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रविवार, 30 दिसंबर 2012

रविशंकर : हमारी स्थानीयता वैश्विकता के खिलाफ नहीं


चेतना और स्वतंत्रता की जो नई जमीन तैयार दुनिया में 50-60 के दशक में हो रही थी, उसमें राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा ही नहीं संस्कृति भी एक बड़े औज़ार के रूप में काम कर रही थी। पंडित रविशंकर की नब्बे साला जिंदगी पर नजर डालें तो यह बात ज्यादा समझ में आती है। रविशंकर से पहले उनके अग्रज उदयशंकर नृत्य की तमाम शैलियों को लेकर नर्तन की एक नई सर्वसमावेशी शैली को रच रहे थे। उनका प्रयोग स्थानीयता के प्रभाव से मुक्त एक ग्लोबल प्रयोग था। 18 साल की उम्र तक रविशंकर अपने अग्रज के साथ रहे। लेकिन नृत्यकला में वैश्विक पहचान बनाने की हुलस अचानक ही बदल गई और उन्होंने सितार के तारों को अपनी आत्मा की आवाज बनाने का निर्णय कर लिया। करियर आैर सक्सेस के प्रतिस्पद्र्धी दौर में इस निर्णय के पीछे की शिद्दत को समझना थोड़ा कठिन है। रविशंकर के लिए यह निर्णय महज अपने रास्ते अपनी मंजिल पाने की धुन भर नहीं थी।
नृत्य का साथ छोड़कर वादन क्षेत्र में आने का फैसला उनके अग्रज के प्रयोगों का ही एक नया विस्तार था। अपने समय और परिवेश के साथ संवादी रिश्ते के साथ रविशंकर को यह भी लगा कि जब तक वे प्रशिक्षण से आगे साधना के रूप में संगीत से नहीं जुड़ेंगे, तब तक उनका संगीत 'अनहद' तक नहीं पहुंच पाएगा। साधना की इस शपथ को उन्होंने मैहर वाले बाबा अल्लाउद्दीन खान की शार्गिदी में और पक्का कर लिया।  फिर क्या था, सितार और रविशंकर इस तरह एक-दूसरे के पर्याय बने कि विश्व संगीत जगत भी दंग रह गया।
दिलचस्प है कि उनकी पैदाइश बनारस की थी और बनारस के बारे में कहा जाता है कि यहां की माटी-पानी का असर जिंदगी भर नहीं जाता। आज भारतीय संगीत के इस महान जादूगर के निधन पर जब भारत के साथ पूरी दुनिया उनके जीवन के स्वर्णिम सर्गों को याद कर विस्मित हो रही है, तो संगीत के भारतीय घराने की परंपरा, शैली और संभावना पर भी नए सिरे से बात हो रही है। भारत रत्न, मैग्सेसे और तीन बार ग्रैमी सम्मान से नवाजे गए रविशंकर को बीटल्स के जार्ज हैरिसन अगर विश्व संगीत के गॉडफादर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने भारतीय संगीत परंपरा का साथ छोड़ धुन और साज की कोई नई वैश्विक समझ पा ली थी।
दरअसल, प्राच्य दर्शन की तरह प्राच्य संगीत भी नस्ल और सरहद की दायरेबंदी से आजाद रहा है। विश्व मानवता और उनके बीच के समन्वय, सहयोग और सौहार्द को और प्रगाढ़ करने के लिए संगीत भी एक क्रांतिकारी जरिया हो सकता है, पंडित रविशंकर ने अपनी संगीत साधना से सिद्ध करके दिखाया। आज जब ग्लोबल भाषा, व्यापार और सूचना तंत्र की बात होती है और उसमें भारत की दखल पर जोर दिया जाता है, तो लोग यह भूल जाते हैं कि भारत अपनी तरह से इस तकाजे पर शुरू से खरा उतरता आया है। यह सबक है, उन तमाम लोगों के लिए जो यह मानते हैं कि उत्तर-आधुनिकता की सीढि़यां लोक और परंपरा की भारतीय सीख के साथ नहीं चढ़ी जा सकती है।
कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर एमएफ हुसैन और पंडित रविशंकर तक भारत की यशस्वी सांस्कृतिक परंपरा एक ही बात बार-बार दोहराती है कि हमारी स्थानीयता वैश्विकता के खिलाफ नहीं बल्कि उसकी पूरक है, उसकी संवाहक है।   

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