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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

पूस वैसा ना रात वैसी

यह दौर जितना बदलाव का नहीं, उससे ज्यादा अस्थिरता का है। स्थितियों को बदलतीं अस्थिरताएं हमारे आसपास से लेकर अंदर तक पसर चुकी हैं। आलम यह है कि मौसम का बारहमासी चित्त और चरित्र तक अब पहले जैसे नहीं रहे। जेठ की धूप और पूस की रात के परंपरागत अनुभव आज दूर तक खारिज हो चुके हैं। लिहाजा मौसम और प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता अब वैसा नहीं रहा, जैसा हमारे पुरखों का था। जलवायु मुद्दे पर विश्व सम्मेलनों से लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही गैरसरकारी संस्थाएं, पिछले दो दशकों में इस खतरे को लगातार रेखांकित कर रही हैं कि मनुष्य ने अपनी लालच और बेलगाम जरूरतों पर अगर ध्यान नहीं दिया तो जीवन के लिए अनुकूलताएं तय करने वाले कारक एक-एक कर उससे छिनते जाएंगे। पर इस दिशा में कोई पहला, बड़ा और निर्णायक कदम अब तक इसलिए नहीं उठाया जा सका क्योंकि दुनियाभर की सरकारों को उस विकास की ज्यादा फिक्र है, जो उनकी जनता को उपभोग और व्यय का आधुनिक अनुशासन सिखाती है। 
सर्दी का आगाज इस साल भी वैसे तो पिछले कुछ सालों की तरह ही हुआ। इस बार भी सर्दी की शुरुआती दस्तक के साथ खबरें आने लगीं कि इस साल ठंड अपेक्षा से ज्यादा पड़ेगी और पारा गिरने के पुराने कई रिकार्ड धराशायी होंगे। हुआ भी ऐसा ही। दिसंबर बीतते-बीतते सर्दी ने समय को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया। उन इलाकों से भी पारे के खतरनाक स्तर तक गिर जाने की खबरें आ रही हैं, जो कोल्ड जोन से बाहर माने जाते थे। कश्मीर और हिमाचल में बर्फानी सर्दी ने अपने खतरनाक मंसूबे इस तरह जाहिर किए और यहां पड़ने वाली ठंड से निपटने के पारंपरिक अनुभव और तरीके लाचार साबित हो रहे हैं।
विडंबना ही है कि की तपिश महंगाई की हो या मौसम की बेरहमी, पहली मार पड़ती है गरीबों पर। उसकी ही जिंदगी सबसे पहले दूभर होती है, सबसे पहले उसकी ही सांसें उखड़ती हैं। रहा सवाल, सरकारी प्रयासों और उसकी संवेदनशीलता का तो आज अदालत को यह फिक्र करनी पड़ रही है कि रैनबसेरे न तोड़े जाएं और सड़कों पर जीवन गुजारने को मजबूर लोगों की हिफाजत के लिए सर्दी के मौसम में जगह-जगह अलाव जलाए जाएं। हाड़ तक अकड़ा देने वाली ठंड ने जहां बड़े शहरों की देर रात पार्टियों की रौनकी आंच और शराब दुकानों की कतारें बढ़ा दी है, वहीं विकास और सरकार दोनों ही दृष्टि से नजरअंदाज लोगों का हाल बुरा है। सर्दी को सह न पाने के कारण मौत की नींद सोने वालों की अखबारों में बजाप्ता तालिका छप रही है। लेकिन फर्क किसी को नहीं पड़ रहा है। समाज और सरकार दोनों के लिए यह इतनी चौंकाने वाली स्थिति नहीं कि वह अपना चैन लुटाएं।
उधर, बाजार में सर्दी और गरमी दोनों का सामना करने वाले एक से बढ़कर एक उत्पाद आ गए हैं। आप में अगर भोग की परम लिप्सा है और बीच बाजार खड़ा होने की इजाजत आपकी जेब आपको देती है तो फिर मौसम का बदलता बारहमासा भी आपके लिए हर सूरत में सुहाना है, आरामदायक है। पर यह स्थिति ठीक नहीं है। अगर हम अब भी बदले मौसम के खतरे को पढ़ने को तैयार नहीं हैं तो भविष्य के हिस्से हम एक तरफ तो खतरों का बोझ बढ़ा देंगे, वहीं दूसरी तरफ अपनी नीति और नीयत को लेकर ऐतिहासिक रूप से गुनहगार ठहराए जाएंगे। क्योंकि हरित पट्टियों का रकबा लगातार कम होते जाने का खतरा हो या पर्यावरणीय संतुलन को जानबूझकर बिगाड़ने की हिमाकत, इसके नतीजे अगर अभी ही खतरनाक साबित हो रहे हैं तो दूरगामी तौर पर तो ये पूरी तरह असह्य और प्रतिकूल साबित होंगे। लिहाजा, यह समय है निर्णायक रूप से चेतने और  कारगर कदम उठाने का। दरकार सिर्फ प्रकृति पर हावी होने की बजाय उसका साथी होने की है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस साथ की चाह हम सबके अंदर पैदा होगी।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बातों से सहमत हूँ मार चाहे मौसम कि हो या महगाई कि झ्लेनी गरीब को ही पड़ती है ऐसी स्थिति के बाद भी लोग सब कुछ दर किनारे कर नया साल मनाने कि तयारी में जुटे हैं ऐसे हालातों में क्या नया साल मानना ठीक है?
    समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  2. सामयिक और सार्थक प्रश्न उठाती पोस्ट । सच कहा आपने परिवर्तन अब बिल्कुल स्पष्ट दिखाई दे रहा है

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