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गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

पनघट-पनघट पूरबिया बरत


पानी पर तैरते किरणों का दूर जाना
और तड़के ठेकुआ खाने रथ के साथ दौड़ पड़ना
भक्ति का सबसे बड़ा रोमांटिक यथार्थ है
आलते के पांव नाची भावना
ईमेल के दौर में ईश्वर से संवाद है

मुट्ठी में अच्छत लेकर मंत्र तुम भी फूंक दो
पश्चिम में डूबे सूरज की पूरब में कुंडी खोल दो...


दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।'
वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरने वाली जनता ने अपने लिए जो उम्मीद जुटाई, सियासी आकाओं ने उस उम्मीद को सफेद से स्याह करने में अपनी पूरी ताकत झांक दी। फिर सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में जिस दुनिया में रौनक और  चहल-पहल ज्यादा बढ़ी है  उसके 'विकसित हठ' और 'पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस' और 'लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है ।
हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वैश्विक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं।

पनघट-पनघट पूरबिया बरत
बहुत दूर तक दे गयी आहट

शहरों ने तलाशी नदी अपनी
तलाबों पोखरों ने भरी पुनर्जन्म की किलकारी
गाया रहीम ने फिर दोहा अपना
ऐतिहासिक धोखा है पानी के पूर्वजों को भूलना...


बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, 'लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है।
कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।

3 टिप्‍पणियां:

  1. छठ के पर्व की बढ़िया विस्तारपूर्वक जानकारी दी है आपने धन्यवाद॥

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  2. अद्भुत आलेख भाई जी!!

    कई जुड़ी यादें एक बाद एक तिरती गईं। कहां से शुरु करूं। अभी तक टिकट नहीं मिला है, तत्काल में नहीं मिला तो मां तो आसरा देखते रह जाएगी।

    लोग प्रदूषण की बात करते हैं, पूरे घाट ही नहीं पटना में देखा पूरा शहर ही चमकने लगता है इन दिनों।

    चंडीगढ़ का सुखना लेक में छठ मनाना और इस बार कुछ दिनों पहले गया था तो मालूम हुआ प्रशासन ने एक नया तालाब ही बनवा दिया है, ताकि सभी छठी एक जगह बिना सुखना को परेशानी में डाले हुए छठ मना सकें।

    कलकत्ते की छठ की रौनक का तो कहना ही क्या।

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