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बुधवार, 7 सितंबर 2011

जो अन्ना भी शर्मिला होते !


मौजूदा दौर के कसीदे पढ़ने वाले कम नहीं। यह और  बात है कि ये प्रायोजित कसीदाकार वही हैं, जिन्हें हमारे देशकाल ने कभी अपना प्रवक्ता नहीं माना। दरअसल, चरम भोग के परम दौर में मनुष्य की निजता को स्वच्छंदता में रातोंरात जिस तरह बदला, उसने समय 
और समाज की एक क्रूर व संवेदनहीन नियति कहीं न कहीं तय कर दी है। ऐसे में एक दुराग्रह और पूर्वाग्रह से त्रस्त दौर में चर्चा अगर सत्याग्रह की हो तो यह तो माना ही जा सकता है कि मानवीय कल्याण और उत्थान का मकसद अब भी बहाल है। अब जबकि अन्ना हजारे का रामलीला मैदान में चला 12 दिन का अनशन राष्ट्रीय घटनाक्रम के रूप में देखा-समझा जा रहा है तो लक्षित-अलक्षित कई तीर-कमान विचार के आसमान को अपने-अपने तरीके से बेधने में लगे हैं। 
 इस सब के बीच, कहीं न कहीं देश आज इस अवगत हो रहा है कि अपना पक्ष रखने और 'असरकारी' विरोध जाने का सत्याग्रह रखने वालों की परंपरा देश में खत्म नहीं हुई है। पर ऐसे में कुछ सवाल भी उठने लाजिम हैं जिनके जवाब घटनाओं की तात्कालिकता के प्रभाव पाश से बंधे बिना ही तलाशे जा सकते हैं। बताया जा रहा है कि सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने अन्ना हजारे से अपने एक दशक से लंबे अनशन के लिए समर्थन मांगा है। इरोम मणिपुर में विवादास्पद सशस्त्र बिल विशेषाधिकार अधिनियम की विरोध कर रही हैं। उनके मुताबिक इस अधिनियम के प्रावधान मानवाधिकार विरोधी हैं, बर्बर हैं। यह सेना को महज आशंका के आधार पर किसी को मौत के घाट उतारने की कानूनी छूट देता है। इरोम खुद इस बर्बर कार्रवाई की गवाह रही हैं। यही कारण है कि उन्होंने इस विवादास्पद अधिनियम को वापस लेने की मांग को आजीवन प्रण का हिस्सा बना लिया है। दुनिया के इतिहास में अहिंसक विरोध का इतना लंबा चला सिलसिला और वह भी अकेली एक महिला द्वारा अपने आप में एक मिसाल है। 
इरोम को उम्मीद है कि आज अन्ना हजारे का जो प्रभाव और स्वीकृति सरकार और जनता के बीच है, उससे उनकी मांग को धार भी मिलेगी और उसका वजन भी बढ़ेगा। हालांकि इस संदर्भ का एक पक्ष यह भी है कि इरोम भले अन्ना के समर्थन की दरकार जाहिर कर रही हों, पर उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चरित्र को लेकर आपत्तियां भी हैं। वैसे ये आपत्तियां वैसी नहीं हैं जैसी लेखिका अरुंधति राय को हैं। असल में सत्याग्रह का गांधीवादी दर्शन विरोध या समर्थन से परे आत्मशुद्धि के तकाजे पर आधारित है। गांधी का सत्याग्रह साध्य के साथ साधन की कसौटी को भी अपनाता है। ऐसे में लोकप्रियता के आवेग और जनाक्रोश के अधीर प्रकटीकरण से अगर किसी आंदोलन को धार मिलती हो कम से कम वह दूरगामी फलितों को तो नहीं ही हासिल कर सकता है।
दिलचस्प है कि अहिंसक संघर्ष के नए विमर्शी सर्ग में अन्ना के व्यक्तिगत चरित्र, जीवन 
और विचार पर ज्यादा सवाल नहीं उठे हैं। पर उनके आंदोलन के हालिया घटनाक्रम को देखकर तो एकबारगी जरूर लगता है कि देश की राजधानी का 'जंतर मंतर' और मीडिया के रडार से अगर इस पूरे मुहिम को हटा लिया जाए तो क्या तब भी घटनाक्रम वही होते जो पिछले कुछ दिनों में घटित हुए हैं। और यह भी क्या कि क्या इसी अनुकूलता और उपलब्धता की परवाह इरोम ने चूंकि नहीं की तो उनके संघर्ष का सिलसिला लंबा खिंचता जा रहा है। 
बहरहाल, देश का जनमानस आज क्रांतिकारी आरोहण के नए और समायिक चरणों से गुजरने को अगर तत्पर हो रहा है तो यह एक शुभ संकेत है। अच्छा ही होगा कि हिंसा और संवेदनहीनता के दौर में अहिंसक मूल्यों को लेकर एक बार फिर से बहस और प्रयोग शुरू हों। अगर ये पहलें एकजुट और एक राह न सही कम से कम एक दिशा की तरफ बढ़ती हैं तो यह हमारे समय के माथे पर उगा सबसे शुभ चिह्न होगा। 

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