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मंगलवार, 22 मार्च 2011

हां, मैं हूं एक वेश्या...


बिपाशा बसु को यह चिंता खाए जा रही है कि बालीवुड मर्दों की दुनिया है और यहां महिलाओं की दाल नहीं गल सकती। वह पिछले कम से कम दो मौकों पर ऐसा कहकर मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच चुकी हैं। पहली नजर में यह चिंता गंभीर इसलिए नहीं लगती क्योंकि बयान देने वाली की अपनी 'ख्याति' इसके आड़े आती है। 'जिस्म' के जादू और नशे का आमंत्रण परोसने वाली और 'प्यार की गली बीच नो एंट्री' का तरन्नुम युवाओं के होठों पर रातोंरात बिठाने वाली बाला को कोई मर्दवादी हाथों की कठपुतली ही सबसे पहले मानेगा। हां, मानवाधिकारवादी तार्किकता यह दरकार किसी सूरत में खारिज नहीं होने देना चाहती कि बेहतर और सामन्य जिंदगी जीने में सांसत जहां और जब भी महसूस हो आवाज उठानी चाहिए। इस लिहाज से बिप्स जो कह रही हैं उसे खारिज नहीं किया जा सकता।
याद आती है सालों पहले अपनी कलात्मक फिल्म निर्माण की सोच का रातोंरात 'मर्डर' करने पर उतारू  महेश भट्ट की एक चर्चित दलील। भट्ट ने अपनी आलोचनाओं से तिलमिलाकर सवालिया लहजे में कहा था, 'हां, मैं हूं एक वेश्या। चौराहे पर खड़ी वेश्या... तो क्या करोगे? क्या मुझे जीने नहीं दोगे? क्या मुझे गोली मार दोगे?' भट्ट की तल्खी काम कर गई। उन्होंने अपनी तार्किक चालाकी से अपने आलोचकों के मुंह बंद कर दिए। ऐसे ही तार्किक कवच बिप्स जैसों के पास भी हैं। लिहाजा, उनकी मानवाधिकारवादी आपत्तियों पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। पर सेवा को अगर चैरिटी की कतार में खड़ा होने के लिए मजबूर कर देगें तो एक्टिविज्म को भी टोकनिज्म के खतरों से बचाना मुश्किल होगा। ऐसे में राखी सावंत के एलानिया गांधी भक्त होने पर भला किस कोने से सवाल उठेंगे। 
हमारे समय की त्रासदी यह है कि यह किसी के आचरण और कर्तव्यों से ज्यादा उसके अधिकारों के लिए स्पेस निकालने की बात करती है। नतीजतन सिरे से न किसी असहमति के लिए गुंजाइश बन रही है और न ही कोई जनांदोलन कारगर हो रहा है। अगर हम सवाल उठाने और जवाब देने की लोकतांत्रिक कसौटियों में थोड़ी कसावट लाएं तो हमारे आसपास आवाज, ज्यादा भरोसेमंद, ज्यादा टिकाऊ और ज्यादा कारगर साबित होंगी।  फिर किसी विपाशा, किसी राखी या शिल्पा की बातों पर कान देने से हम परहेज करेंगे।  

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