LATEST:


मंगलवार, 4 मार्च 2014

मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल


मंडल कमीशन के मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह का पूरे देश में विरोध हो रहा था। इस मुश्किल हालात से निकलना उनके लिए बड़ी चुनौती थी। उन्हें लग रहा था कि कहीं वे देश और समाज में इस कदर अलोकप्रिय न हो जाएं कि उनका नाम इतिहास में सामाजिक तनाव और विद्बेष बढ़ाने वाले एक नेता के तौैर पर दर्ज हो। अगर ऐसा होता तो यह वीपी के पूरे राजनीतिक करियर पर ऐसा दाग होता, जिसे वह चाहकर भी नहीं धो पाते। दिलचस्प है कि वह दौर सामाजिक न्याय की राजनीति के तौर पर भले जाना गया पर उसकी शुरुआती शिनाख्त भय, हिंसा, असुरक्षा और विद्बेष के तौर पर
हुई थी।
ये सारी बातें याद करने की जरूरत आज इसलिए आन पड़ी हैं क्योंकि सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू होने वाली अस्मितावादी राजनीति का मुहावरा अब मौजूदा भारतीय राजनीति के लिए एक खोटे सिक्के की तरह होता जा रहा है। ऐसा बिल्कुल निर्णान्यात्मक तौर पर कहना भले अभी एक जल्दबाजी हो, पर इस तरह केे खतरों को तो जरूर पढ़ा जा सकता है।
वीपी सिंह को रातोरात पिछड़ों के मसीहा और सामाजिक न्याय के जुझारू योद्धा की छवि दिलाने वालों में तीन नेताओं के नाम लिए जाते हैं। ये हैं रामविलास पासवान, शरद यादव और लालू प्रसाद यादव। तब ये तीनों जनता दल में थे। इस पार्टी का गठन तो भ्रष्टाचार विरोध की वीपी की लड़ाई को संसद तक ले जाने के लिए हुआ था पर देखते-देखते राजनीति की कौड़ियां उलटी पड़ गईं और मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का फैसला सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया।
सवर्ण युवकों का आक्रोश दिल्ली से लेकर इलाहाबाद, लखनऊ और पटना तक फूट रहा था। ऐसे में खासतौर पर रामविलास पासवान आगे आए। दलित सेना के नाम पर शुरू किए गए उनके नॉनपॉलिटिकल आउटफिट ने विभिन्न जातियों के पिछड़े नौजवानों की गोलबंदी शुरू की। देखते-देखते मंजर बदला और दलितों-पिछड़ों की दबी आवाज बड़े-बड़े मंचों से गूंजने लगी। राजनीति की मुख्यधारा में पिछड़े नेताओं की एक पूरी जमात विशेष सक्रियता के साथ शामिल हुई। इनमें से ज्यादातर पहले से राजनीति में थे पर नई परिस्थिति में उनकी भूमिका अतिरिक्त रूप से रेखांकित होने लगी। पर बीते दो दशकों में नई राजनीति का यह तार्किक तकाजा देश में वोट बैंक की राजनीति का एक विद्रूप उदाहरण भर बनकर रह गया। खासतौर पर बात करें यूपी-बिहार की तो इसने राजनीति के नए जातीय समीकरण को भले जन्म दिया हो पर इससे सामाजिक स्तर पर बदलाव की कोई लंबी लकीर नहीं खिंच पाई।
अब जबकि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले हर स्तर पर पॉलिटिकल पोजिशनिंग की नई दरकार सामने आई है तो जाति की राजनीति का पुराना खेल फिर से दखल बढ़ाने की फिराक में है। यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार विरोध, समावेशी विकास और वैकल्पिक राजनीति को लेकर बीते कुछ सालों में जिस तरह की जन जागरूकता दिखी है, उसमें राजनीति में जातिगत समीकरणों का पुराना खेल शायद ही बहुत मायने रखे।
बात करें सामाजिक न्याय आंदोलन की पुरानी त्रिमूर्ति की तो वे आज भी राजनीति में सक्रिय हैं पर उनकी हैसियत पहले जैसी नहीं रही। लालू यादव अब भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस चुनाव में वे कांग्रेस-एनसीपी के साथ उतरेंगे या अकेले। शरद यादव की पार्टी जेडीयू का नया चेहरा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। भाजपा से डेढ़ दशक से भी लंबा गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश फिर से तीसरे मोर्चे की छतरी में जरूर आ गए हैं पर बिहार में वे अपने लिए साथी दल की तलाश में हैं। रही रामविलास पासवान की बात तो वे जिस नाटकीय तरीके से भाजपा के साथ गए हैं, वह अवसरवाद की राजनीति की बड़ी मिसाल है। कायदे से पासवान की पार्टी लोजपा इस चुनाव में भाजपा के भरोसे है। बदले में वे भाजपा को कितना फायदा दे पाने की स्थिति में होंगे यह देखने वाली बात होगी। दिलचस्प है कि पासवान ने जो भी फैसला किया वह मन मसोस कर ही किया है। इससे पहले राजद और कांग्रेस के साथ उनके गठबंधन की बात चल रही थी। पर उन पर दबाव था कि वे महज दो-तीन सीट पर चुनाव लड़ने के लिए राजी हो जाएं। अपने राजनीतिक सफरनामे में पासवान के लिए यह संभवत: सबसे बुरा समय है। उन्हें साफ लग रहा है कि राजनीति की नई हवा में उनकी पतंग अब बहुत नहीं उड़ सकती।
लालू-शरद और रामविलास के साथ बात मुलायम सिंह यादव की भी कर ही लेनी चाहिए। मुलायम ने मंडल और मंदिर आंदोलन के जमाने से एक तरह से दोहरी राजनीति यूपी में की है। उन्होंने एक तरफ पिछड़ों को अपने साथ बनाए रखना चाहा तो वहीं दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के भी भरोसे पर खरा उतरने की भरसक कोशिश करते दिखे।
इसी तरह की राजनीति लंबे समय तक बिहार में लालू भी करते रहे हैं। पर राजनीति के मैदान के इन दोनों ही धुरंधरों के आगे मुसीबत यही है कि वे अपने पुराने वोटबैंक को कैसे बचाएं। इन तमाम जिक्रों के बीच मायावती और उनकी पार्टी बसपा की स्थिति जरूर आपवादिक रूप से थोड़ी अविचलित है। ऐसा इसलिए भी संभव हो सकता है क्योंकि बसपा का जन्म मंडल राजनीति की गोद से नहीं हुआ है।
आखिर में कांग्रेस नेता जनार्दन द्बिवेदी की कुछ समय पहले आई उस टिप्पणी का जिक्र, जिसमंे उन्होंने सवाल उठाया कि सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू हुई राजनीति ने एक नए क्रीमी लेयर को जन्म दिया है। कुछ नेताओं और परिवारों की बदली हैसियत को छोड़ दें तो सामाजिक बदलाव के किसी भी निर्णायक गंत्वय तक पहुंचने में यह राजनीति विफल रही है। पासवान से लेकर लालू और मुलायम ने जिस तरह एक नए तरह की वंशवादी राजनीति को जन्म दिया है, उससे समाज के अगड़े-पिछड़े तमाम वर्गों में चिढ़ पैदा हुई है। यह चिढ़ सोलहवीं लोकसभा के चेहरे को काफी हद तक बदल देने तक की ताकत रखता है। क्योंकि इस चिढ़ में इन नेताओं के राजनीतिक आचरण के साथ इन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों तक को लेकर गुस्सा शामिल है।
गौरतलब है कि भारतीय समाज की बहुलतावादी खासियत इसकी सांस्कृतिक विलक्षणता को लंबे समय से दूध पिलाती रही है, बलिष्ठ करती रही है। पर इस सांस्कृतिक विलक्षणता और बलिष्ठता के बीच कुछ ऐसे अंतरविरोध भी रहे हैं, जो हमारे विकास और सभ्यता के दावों को सामने से आईना दिखाते हैं। लिहाजा, इनके खिलाफ क्रांतिकारी राजनीतिक शपथ की दरकार तो आगे भी बनी रहेगी। अलबत्ता मौजूदा परिस्थिति में इतना जरूर कहा जा सकता है कि मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के साथ शुरू हुआ राजनीति का अध्याय अब समाप्त होने जा रहा है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  2. Nicely summarizes a political era that started with Mandal movement. It talks about charismatic leadership who fueled the social justice movement and had courage and determination to take politics on a different course. They succeeded, somewhat. But, where they are now is a different story.

    Sadly, it is a story that is based on vote bank politics, parochialism, corruption, and opportunism. It is also a story of wasted opportunity to uplift millions of people out of poverty and destitution.

    It's fair that such leaders are getting marginalized. Social justice still is a valid issue, but old politics have cheated the cause. It's time for new approach and better ways of doing things. There could be multiple ways, but you can't go wrong with promoting cause for wide reaching economic development.

    जवाब देंहटाएं