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रविवार, 15 जुलाई 2012

प्रभाष जोशी के बहाने हिंदी पत्रकारिता से एक मुठभेड़


हिंदी की आलोचकीय बहस में अकसर दो बातों की चर्चा होती है- लोक और परंपरा। हिंदी के निर्माण और इसकी रचना प्रक्रिया में ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ देखने की तार्किक दरकार पर जोर देने वाले डॉ. रामविलास शर्मा ने जरूर इससे आगे बढ़कर कुछ जातीय तत्वों और सरोकारों पर ध्यान खींचा है। पर कायदे से हिंदी की यह जातीय शिनाख्त भी लोक और परंपरा के बाहर का नहीं बल्कि उसके भीतर का ही गुणतत्व है। इसी तरह, गौर करने लायक एक बात यह भी है कि हिंदी में पत्रकारिता का विकास भी उसके बाकी तमाम रचनात्मक रूपों के तकरीबन साथ ही हुआ। भारतेंदु और द्विवेदी के दौर की रचनात्मकता के साथ पत्रकारिता के विकास को अलगाकर नहीं देखा जा सकता बल्कि बाद में अस्सी के दशक के आसपास जब खबर और साहित्य ने अलग से अपनी जगह घेरनी शुरू की तो भी दोनों जगह कलम चलाने वालों का गोत्र एक ही रहा।
फिर यह विभाजन अलगाववादी न होकर लोकतांत्रिक तौर पर एक-दूसरे के लिए भरपूर सम्मान, स्थान और अवसर मुहैया कराने के लिए था। यही कारण रहा कि इस दौर में एक तरफ जहां धूम मचाने वाली आधुनिक धज की साहित्यिक पत्रिकाओं ने ऐतिहासिक सफलता पाई तो वहीं उस दौरान की समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने लोकप्रियता और श्रेष्ठता के सार्वकालिक मानक रचे। खासतौर पर देशज भाषा, संवेदना और चिंता के स्तर पर इस दौर की हासिल मानकीय श्रेष्ठता ने आधुनिक हिंदी पत्रकारिता की संभावना की ताकत को जाहिर किया। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद स्वतांत्र्योत्तर भारत का यह सबसे सुनहरा दौर था हिंदी पत्रकारिता के लिए और विशुद्ध साहित्य से आगे की वैकल्पिक रचनात्मकता के लिए। इसके बाद आया ज्ञान को सूचना आैर खबर की तात्कालिकता में समाचार की पूरी अवधारणा को तिरोहित करने वाला ग्लोबल दौर : जिसमें एक तरफ नजरअंदाज हो रही सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिताओं का संघर्ष सतह पर आया तो वहीं चेतना और अभिव्यक्ति के पारंपरिक लोक के लोप का खतरा बढ़ता चला गया।
हिंदी के रचनात्मक लेखन और पत्रकारिता के इस संक्षिप्त सफर को ध्यान में रखना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके बिना हम हर दस माइल पर एक नया संस्करण बेचने वाले हिंदी अखबारों के आज से मुठभेड़ नहीं कर सकते। जिसे हम भाषाई पत्रकारिता कहते हैं, वह अंग्रेजी से नितांत अलग है। खड़ी बोली के तौर पर तनी हिंदी की मुट्ठी उस राष्ट्रप्रेम की भी प्रतीक है, जिसमें देश की कोई सुपर इंपोज्ड या इंलाज्र्ड छवि नहीं बल्कि गंवई-कस्बाई निजता मौलिकता को अखिल भारतीय हैसियत की छटा देने की क्रांतिकारी रचनात्मकता हमेशा जोर मारती रही है। बोलियां अगर हिंदी की ताकत है तो इसे बोलने वालों की जाति और समाज ही हिंदी की दुनिया है।
खुद को बाद करने की शर्त पर नहीं संवाद
यहां यह भी साफ होने का है कि विचार और संवेदना के स्तर पर हिंदी विश्व संवाद के लिए हमेशा तैयार रही है पर यह संवाद कभी भी खुद को बाद करने की शर्त पर नहीं हुआ है। इसे एक उदाहरण से समझें। सुरेंद्र प्रताप सिंह तब 'नवभारत टाइम्स" में थे। संस्करण के लिए खबरों की प्राथमिकता तय करने के लिए न्यूज रूम में संपादक और समाचार संपादकों की टीम बैठी। एक खबर थी कि दिल्ली के किसी इलाके में कार में युवक-युवती 'आपत्तिजनक' स्थिति में पकड़े गए। सवाल उठा कि इस खबर की हेडिंग क्या हो? किसी ने सुझाया कि खबर में आपत्तिजनक शब्द आया है, यही हेडिंग में आ जाए पर बात नहीं बनी। कहा गया कि अगर दोनों बालिग हैं और उनकी राजी-खुशी है तो फिर उनके कृत्य पर आपत्ति किसे है? इस पर किसी ने खबर के भारीपन को थोड़ा हल्का करने के लिए कहा कि लिख दिया जाए कि युवक-युवती 'मनोरंजन' करते धरे गए। फिर बात उठी कि कृत्य को तन के बजाय मन से जोड़ना तथ्यात्मक रूप से गलत होगा। आखिर में तय हुआ कि 'तनोरंजन' शब्द लिखा जाए। भाषा को अभिव्यक्ति की ऐसी दुरुस्त कसौटी पर कसने की तमीज और समझ को आज अनुवाद और अनुकरण की दरकार के आगे घुटने टेकने पड़ रहे हैं।
आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण की अलख तकरीबन दो दशकों तक हिंदी में कलम के सिपाहियों ने उठाई। पर यहां यह समझना जरूरी है कि हिंदी की प्रखरता का एक मौलिक तेवर विरोध और असहमति है। दशकों की आैपनिवेशिक गुलामी से मुठभेड़ कर बनी भाषा की यह ताकत स्वाभाविक है। इसलिए अपने यहां नेहरू युग के अंत होते-होते राष्ट्र निर्माण की एक 'असरकारी' और वैकल्पिक दृष्टि की खोज हिंदी के लेखक-पत्रकार करने लगे और उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया की समाजवादी राह मिली। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद हिंदी में यह रचनात्मक प्रतिबद्धता से सज्जित सिपाहियों की पहली खेप थी। जिन लोगों ने 'दिनमान' के जमाने में फणीश्वरनाथ रेणु जैसे साहित्यकारों की रपट और लेख पढ़े हैं, उन्हें मालूम है कि अपने हाल को बताने के लिए भाषाई औजार भी अपने होने चाहिए। बाद में विचारवान लेखकों-पत्रकारों के इस जत्थे में जयप्रकाश आंदोलन से प्रभावित ऊर्जावान छात्रों की खेप शामिल हुई।
पत्रकारिता या सामाजिक कार्यकर्ता
आज यह बहस अकसर होती है कि क्या एक जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट की भूमिका निभाने की लक्ष्मण रेखा लांघनी चाहिए यानी यह जोखिम मोल लेना चाहिए? दुर्भाग्य से पत्रकारिता को 'मिशन' और 'प्रोफेशन' बताने वाली उधार की समझ रखने वाले आज मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खींचने से बाज नहीं आते और देश-समाज का जीवंत हाल बताने वालों को उनकी सीमाओं से सबसे पहले अवगत कराते हैं। जबकि अपने यहां लिखने-पढ़ने वालों की एक पूरी परंपरा है, जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धता महज 'कागद कारे' करने से कभी पूरी नहीं हुई। बताते हैं कि चंडीगढ़ में प्रभाष जोशी नए संवाददाताओं की बहाली के लिए साक्षात्कार ले रहे थे। एक युवक से उन्होंने पूछा कि पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? युवक का जवाब था, 'आंदोलन करने के लिए। परिवर्तन की ललक हो तो हाथ में कलम, कुदाल या बंदूक में से कोई एक तो होना ही चाहिए।' कहने की जरूरत नहीं कि युवक ने प्रभाष जी को प्रभावित किया। आज किसी इंटरव्यू पैनल के आगे ऐसा जवाब देने वालों के लिए अखबार की नौकरी का सपना कितना दूर चला जाएगा, पता नहीं।
न्यू मीडिया
आखिर में बात सूचना तकनीक के उस भूचाली दौर की जिसमें  कंप्यूटर और इंटरनेट ने भाषा और अभिव्यक्ति ही नहीं विचार के एजेंडे भी अपनी तरफ से तय करने शुरू कर दिए हैं। अंग्रेजी के लिए यह भूचाल ग्लोबल सबलता हासिल करने का अवसर बना तो हिंदी की भाषाई ताकत को सीधे वरण, अनुकरण और अनुशीलन के लिए बाध्य किया जा रहा है। कमाल की बात है कि इस मजबूरी के गढ़ में भी पहली विद्रोही मुट्ठी तनी तो उन हिंदी के उन कस्बाई-भाषाई शूरवीरों ने जिन्हें ग्लोब पर बैठने से ज्यादा ललक अपनी माटी-पानी को बचाने की रही। जिसे आज पूरी दुनिया में 'न्यू मीडिया' कहा जा रहा है, उसका हिंदी रूप ग्लोबल एकरूपता की दरकार के बावजूद काफी हद तक मौलिक है। यहां अभी थोड़ी भटकाव की स्थिति जरूर है पर यहां से थोड़ी रोशनी जरूर छिटकती दिखती है, उस मान्यता पर अब भी अटूट आस्था रखने वालों के लिए जिनकी परंपरा का दूध पीने से हासिल बलिष्ठता को किसी भी अखाड़े में उतरने से डर नहीं लगता।


 हस्तक्षेप (राष्ट्रीय सहारा) 14.07.2012

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