रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ, आ फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ'- मेहदी हसन की गाई यह मशहूर गजल उनके इंतकाल के बाद बरबस ही उनके चाहने वालों को याद हो आती है। उनका जन्म 1927 में हुआ तो था भारत में, राजस्थान के लूणा गांव में। पर 1947 में मुल्क के बंटवारे के वक्त वे पाकिस्तान चले गए। अपनी माटी-पानी से दो दशक का उनका संबंध उन्हें ताउम्र आद्र करता रहा। बताते हैं कि जब सत्तर के दशक में वे अपने पैतृक गांव को देखने आए तो सड़क न होने के कारण उन्हें गांव तक पहुंचने में काफी परेशानी हुई।
अपनी पुरखों की मिट्टी को लेकर उनके जज्बात किस तरह के थे, यह इस वाकिये से जाहिर होता है कि लूणा तक सड़क का निर्माण हो इसके लिए फंड इकट्ठा करने के लिए उन्होंने तत्काल वहीं अपनी गायकी का एक कार्यक्रम रख दिया। करीब 12 साल हो गए भारत में उनका कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। आखिरी बार 2005 में वे यहां आए थे अपने इलाज के सिलसिले में। अपने आखिरी दिनों में भारत आने को लेकर वे काफी उत्सुक थे। यहां आकर वे लता मंगेशकर और दिलीप कुमार जैसी शख्सियतों से मिलना चाहते थे। पर उनकी सेहत ने इसकी इजाजत उन्हें आखिर तक नहीं दी। वे लगातार बीमार चल रहे थे। राजस्थान सरकार ने अपनी तरफ से पहल भी की थी कि उन्हें इलाज के लिए भारत लाया जाए। संगीत के जानकारों की नजर में बेगम अख्तर के बाद गजल गायकी की दुनिया को यह सबसे बड़ा आघात है।
कभी लता मंगेशकर ने उनकी गायकी सुनकर कहा था कि यह खुदा की आवाज है। हारमोनियम, तबला और मेहंदी हसन- संगीत की इस संगत को जिसने भी कभी सामने होकर सुना, वह उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सरमाया बन गया। मेहदी हसन की गायकी पर राजस्थान के कलावंत घराने का रंग चढ़ा था, जो आखिर तक नहीं उतरा। उन्होंने गजल से पहले ठुमरी-दादरा के आलाप भरे पर आखिर में जाकर मन रमा गजलों में। उन्हें उर्दू शायरी की भी खासी समझ थी। गालिब, मीर से लेकर अहमद फराज और कतील शिफाई तक उन्होंने कई अजीम शायरों की गजलों को अपनी आवाज दी। आज जबकि गजल गायकी के पुराने स्कूल प्रचलन से बाहर हो रहे हैं, मेहदी की आवाज संगीत के नए होनहारों को बहुत कुछ सीखा सकती है।
बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महान कलाकर की मौत के बाद जहां एक तरफ संगीत की दुनिया में एक भारीपन पसरा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने उनकी जिंदगी के निहायत निजी पन्ने उलटते हुए कुछ अप्रिय विवादों को जन्म देना चाहा है। यह सच है कि मेहदी की जिंदगी पर संघर्ष और मुफलिसी का साया हमेशा रहा। पर इनकी वजहों का सच टटोलने से बड़ी बात है, वह लगन आैर साधना जिसने उन्हें गजल की दुनिया की शहंशाही तक का जन खिताब दिलाया।
अपनी पुरखों की मिट्टी को लेकर उनके जज्बात किस तरह के थे, यह इस वाकिये से जाहिर होता है कि लूणा तक सड़क का निर्माण हो इसके लिए फंड इकट्ठा करने के लिए उन्होंने तत्काल वहीं अपनी गायकी का एक कार्यक्रम रख दिया। करीब 12 साल हो गए भारत में उनका कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। आखिरी बार 2005 में वे यहां आए थे अपने इलाज के सिलसिले में। अपने आखिरी दिनों में भारत आने को लेकर वे काफी उत्सुक थे। यहां आकर वे लता मंगेशकर और दिलीप कुमार जैसी शख्सियतों से मिलना चाहते थे। पर उनकी सेहत ने इसकी इजाजत उन्हें आखिर तक नहीं दी। वे लगातार बीमार चल रहे थे। राजस्थान सरकार ने अपनी तरफ से पहल भी की थी कि उन्हें इलाज के लिए भारत लाया जाए। संगीत के जानकारों की नजर में बेगम अख्तर के बाद गजल गायकी की दुनिया को यह सबसे बड़ा आघात है।
कभी लता मंगेशकर ने उनकी गायकी सुनकर कहा था कि यह खुदा की आवाज है। हारमोनियम, तबला और मेहंदी हसन- संगीत की इस संगत को जिसने भी कभी सामने होकर सुना, वह उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सरमाया बन गया। मेहदी हसन की गायकी पर राजस्थान के कलावंत घराने का रंग चढ़ा था, जो आखिर तक नहीं उतरा। उन्होंने गजल से पहले ठुमरी-दादरा के आलाप भरे पर आखिर में जाकर मन रमा गजलों में। उन्हें उर्दू शायरी की भी खासी समझ थी। गालिब, मीर से लेकर अहमद फराज और कतील शिफाई तक उन्होंने कई अजीम शायरों की गजलों को अपनी आवाज दी। आज जबकि गजल गायकी के पुराने स्कूल प्रचलन से बाहर हो रहे हैं, मेहदी की आवाज संगीत के नए होनहारों को बहुत कुछ सीखा सकती है।
बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महान कलाकर की मौत के बाद जहां एक तरफ संगीत की दुनिया में एक भारीपन पसरा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने उनकी जिंदगी के निहायत निजी पन्ने उलटते हुए कुछ अप्रिय विवादों को जन्म देना चाहा है। यह सच है कि मेहदी की जिंदगी पर संघर्ष और मुफलिसी का साया हमेशा रहा। पर इनकी वजहों का सच टटोलने से बड़ी बात है, वह लगन आैर साधना जिसने उन्हें गजल की दुनिया की शहंशाही तक का जन खिताब दिलाया।
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