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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

सदी का अंतिम फ्लैश


सदी के आखिर में बंधते
लाखों-करोड़ों असबाबों के बीच
छूट गयी है वह
किसी पोंगी मान्यता की तरह
नहीं लेना चाहता कोई
अपने साथ
नहीं होना चाहता कोई
नयी सदी में उसके पास

आने-जाने वाले हर रास्ते पर
चलते-फिरते हर शख्स को
जागो और चल पड़ो की
अहद दे रही हैं नयी रफ्तारें
सांझ के दीये की तरह
कंपती-बलती
कर रही है इंतजार वह
अब भी किसी के लौटने का

इस सदी के
सबसे उदास दोपहर में
मैं पहुंचना चाहता हूं
उसके पास
अभी-अभी छोड़ आई है
उलटा निशान तीर का जो
उस चौराहे पर
शोर जहां सबसे ज्यादा है
भीड़ है
और रेंगती हैं अफवाहें
तरह-तरह की
सांपों की तरह

सदी का सबसे बूढ़ा आदमी
वहां गुजरते समय के
आखिरी दरवाजे पर
बैठा है
चमार के पेशे के साथ
पूरी आस्था और जन्मजात
शपथ की अंटी बांधे
चलते-फिरते धूल उड़ाते
चप्पल-जूतों की चरमराहट
दुरुस्त करने
इस तारीखी मंजर के सामने
रुंधे गले की नि:शब्दता
पूरी होती है
छलछला आये आंसूओं से
लिखता हूं पंक्ति अंतिम
सदी की अंतिम कविता की-
यह इस सदी का अंतिम फ्लैश है

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