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शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

विकल्पहीनता के विरोध का विमर्श

- प्रेम प्रकाश

विकल्पहीन नहीं है दुनिया - किशन पटनायक

नीदरलैंड्स इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोसाइंस की सोशल न्यूरोलॉजिस्ट एमिली कैस्पर ने एक दिलचस्प शोध किया है। कैस्पर जानना चाहती थीं कि सत्ता के विरोध का निर्णय लोग निर्भीकता से करते हैं या ऐसा करते हुए वे किसी भय से दबे होते हैं। शोध के नतीजे से यह बात जाहिर हुई है कि अनजाने ही सत्ता के साथ सहमति की मनोवैज्ञानिक स्वाभाविकता हाल के दौर में बढ़ी है। अपने शोध अध्ययन की व्याख्या करते हुए कैस्पर कहती हैं कि बगैर उचित प्रशिक्षण और जागरुकता के लोग सत्ता के खिलाफ अपनी असहमति को खुले विरोध के मोर्चे तक ले जाने से भागते हैं। कैस्पर के अध्ययन और उसके नतीजे को अगर भारत के मौजूदा हालात से जोड़कर देखें तो विमर्श का एक नया आधार विकसित हो सकता है।

इस आधार को विकसित करने की पहल में पहला संदर्भ अगर मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के 325 के मुकाबले 126 वोटों के भारी अंतर से गिरने का लें तो इस परिणाम का प्रोजेक्शन सीधे 2019 के लोकसभा चुनाव पर करने के बजाय, इस पूरी स्थिति को इतिहास की रोशनी में धैर्य के साथ देखना होगा। भारतीय संसद के इतिहास में पहला अविश्वास प्रस्ताव पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने रखा था। तब इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 वोट पड़े थे और विरोध में 347 वोट पड़े थे। पर इस प्रस्ताव का महत्व महज इसलिए कम नहीं हो जाता कि वह गिर गया, बल्कि इसकी अहमियत इसलिए है क्योंकि इससे देश में कहीं न कहीं विपक्षी राजनीति की वह सैद्धांतिकी तय हुई, जिसे गैर-कांग्रेसवाद के रूप में हम जानते हैं। विपक्षी राजनीति की यह सैद्धांतिक धुरी आज भी कायम है। बस उसका नाम बदलकर गैर-भाजपावाद हो गया है। देश में राजनीतिक विरोध का यह सैद्धांतिक तकाजा विपक्ष और जनता दोनों के सामने है। लिहाजा इस तकाजे पर कौन अपनी भूमिका कैसे तय करता है, यह ज्यादा बड़ा सवाल है।

लोकतंत्र में विकल्पहीनता की बात एक खतरनाक स्थिति है। इसलिए आज जब नरेंद्र मोदी की विकल्पहीनता पर बहस के कई सिरे एक साथ खुले हैं तो उसमें हमें लोकतंत्र के कुछ बुनियादी सरोकारों की भी फिक्र करनी चाहिए। कैस्पर ने भी अपने अध्ययन में इस खतरे का जिक्र किया है। अंग्रेजी में इस खतरनाक स्थिति के लिए ‘टीना’ नाम से एक टर्म काफी लोकप्रिय है और इन दिनों काफी इस्तेमाल भी हो रहा है। ‘टीना’ यानी ‘देअर इज नो अल्टरनेटिव’। यहां यह साफ हो जाना चाहिए कि सत्ता और उसे हासिल करने का गणित ही लोकतंत्र में सब कुछ नहीं है। आज भी इस मुल्क की तारीख में अगर महात्मा गांधी से लेकर राममनोहर लोहिया, जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण जैसे राजनेताओं के नामों के आगे उनके लोकतांत्रिक संघर्ष और राजनीतिक विवेक के कई-कई उल्लेख दर्ज हैं तो इसलिए क्योंकि उनके लिए लोकतंत्र में शक्ति का केंद्र सत्ता नहीं बल्कि लोकशक्ति है। 

कैस्पर ने अपने अध्ययन का संदर्भ बड़ा रखा है। लिहाजा उसके आधार पर अगर भारतीय राजनीतिक स्थिति का हम मूल्यांकन कर रहे हैं तो हमें तात्कालिकता से आगे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में विमर्श को ले जाना होगा। पहली बात तो यही कि यह शोध अध्ययन कहीं न कहीं इस बात को रेखांकित करता है कि दुनिया भर में सत्ता का ढांचा हाल के दशकों में मजबूत हुआ है। लिहाजा उसके खिलाफ विरोध की जमीन तैयार करना और उस जमीन पर टिक कर खड़ा होना एक बड़ी चुनौती बन गई है। अमेरिका से लेकर भारत तक जिस तरह सत्ता और राजनीति का सूर्य एक साथ दक्षिणायन हुआ है, उसने सत्ता पर अधिकार के लोकतांत्रिक संघर्ष को सीधे-सीधे राजनीतिक वर्चस्व में बदल दिया है। इस बदलाव ने लोकतंत्र के बुनियादी सत्य को भी पीछे धकेला और आगे आ गया है ‘पोस्ट ट्रूथ'। 

‘पोस्ट ट्रूथ’ यानी सत्य से ज्यादा प्रभावी प्रचार और शोरगुल। प्रचार का यह शोर बीते चार वर्षों में हर तरफ सुना जा सकता है। कैस्पर जिसे सत्ता की मजबूती के तौर पर देख रही हैं, वह सत्ता से ज्यादा उस सोच की मजबूती है कि जिसमें सरकारें विरोध और हस्तक्षेप के हर लोकतांत्रिक स्पेस को खत्म कर अपने शक्तिशाली होने के भान को पुष्ट करती हैं। किसी नेतृत्व को लेकर विकल्पहीनता का भान अगर सुनियोजित और प्रचारित है तो फिर इस पोस्ट ट्रूथ फिनोमेना को लोकतंत्र के बुनियादी सरोकारों को मिल रही चुनौती के रूप में देखना होगा। 

आखिर में एक बात यह कि 2019 का लोकसभा चुनाव निश्चित तौर पर अहम है, पर यह वर्ष देश के लिए अपने राष्ट्रपिता की 150वीं जयंती मनाने का भी होगा। संघर्ष और सद्भाव के बीच सत्य और अहिंसा जैसे उच्च मूल्यों को जीनेवाले देश में नेतृत्व और विकल्प की बात अगर महज व्यक्तिवादी चौंध में खो जाए तो यह विचार और मूल्य के स्तर पर बहुत बड़ी स्फीति होगी। 

(लेख 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में लिखा गया था। अब 2024 के चुनाव नतीजे भी सामने हैं। पर लोकतंत्र में विकल्प को लेकर चिंताएं अब भी उसी तरह कायम हैं।)

गुरुवार, 18 जुलाई 2024

सिनेमा का प्रगतिशील हमराही


याद आएगा फिल्म भी 

संघर्ष का है कारगर उपकरण 

छिड़ेगा जब भी

दो बीघा जमीन से जुड़ा

हक और संघर्ष का प्रकरण

सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं है बल्कि यह सामाजिक-सांस्कृतिक  प्रगतिशीलता से भी गहरे स्तर पर जुड़ा रहा है। इस लिहाज से कोई सिनेमा के इतिहास को देखे तो उसे संस्कृति के सफरनामे के कई रोचक पड़ाव मिलेंगे। भारत में सिनेमा और सामाजिक-सांस्कृतिक साझे की जब भी बात होगी तो बिमल राय का जिक्र जरूर होगा। वे एक ऐसे फिल्मकार रहे जिन्होंने हिंदुस्तानी सिनेमा के साथ हॉलीवुड तक को भी प्रेरित-प्रभावित किया। दूरदर्शिता देखिए इस फिलम्कार की कि वे रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘जन गण मन’ के राष्ट्रीय गान बनने से पहले इसे 1945 में आई अपनी फिल्म ‘हमराही’ में पेश कर चुके थे। उनके फिल्मी सफरनामे को देखें तो इसमें 1953 का साल अहम है। इस साल आई  फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ ने दुनियाभर के फिल्मकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। बिमल दा के निर्देशन में बनी इस फिल्म से भारत में सार्थक, रचनात्मक और प्रगतिशील सिनेमा का न सिर्फ सघन दौर शुरू हुआ बल्कि फिल्म निर्माण की ऐसी संस्कृति विकसित हुई जिसमें सिनेमा, साहित्य और समाज तीनों एक-दूसरे के सर्वाधिक करीब आए। 

गौरतलब है कि दूसरे विश्वयुद्ध में फासीवाद ने इटली के समाज की परतें उधेड़ कर रख दी थीं। मुसोलिनी के खौफ से जहां अन्य फिल्मकार सब हरा-हरा ही दिखा रहे थे तो रॉबर्ट रोसेलिनी, वित्तोरियो डी सिका और विस्कोंती जैसे कुछ फिल्मकार भी थे जो समाज में उपजे वर्ग संघर्ष को दिखा रहे थे। सिनेमा और नव-यथार्थवाद की कहानी यहीं से शुरू होती है। शोषित और शासक के बीच के द्वंद्व को संवेदना के तमाम स्तरों पर स्पर्श करने वाली नव-यर्थाथवादी फिल्मों का भारतीय संदर्भ बिमल दा के नाम के साथ शुरू होता है। भारतीय संदर्भ में इस संघर्ष को सबसे पहले दिखाती उनकी फिल्म ‘उदेर पाथेय’(1944) ने बांग्ला सिनेमा में तूफान ला दिया था। 12 जुलाई, 1909 को ढाका में जन्मे बिमल राय की फिल्मी पारी बतौर फोटोग्राफर शुरू हुई थी। अपने शुरुआती संघर्ष वाले दिनों में 1935 में प्रदर्शित प्रथमेश चंद्र बरुआ की ‘देवदास’ और 1937 में आई फिल्म ‘मुक्ति’ के लिए फोटोग्राफी का जिम्मा बिमल दा ने ही संभाला था। वैसे ये उनके सिनेमा के सपने सजाने की शुरुआत भर थी। 1944 तक आते-आते कैमरे से कलाकारी करने वाले बिमल दा ‘लाइट, कैमरा और एक्शन’ बोलने को तैयार थे। फिल्मकार के तौर पर उन्होंने अपनी पहली बांग्ला फिल्म बनाई ‘उदेर पाथेय’, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं।

1942 में बॉम्बे टॉकीज के लिए उन्होंने ‘मां’ जैसी कामयाब फिल्म बनाई लेकिन उनकी असल पहचान बनकर पर्दे पर उतरी ‘दो बीघा जमीन’। इस फिल्म ने बिमल दा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान दी। समाजवाद से प्रेरित और सिनेमा के सर्वहारा की आवाज उठाने वाले बिमल दा पर व्यावसायिक फिल्में बनाने का जबरदस्त दबाव रहा। पर यह उनका ही कमाल था कि बॉक्स ऑफिस की जरूरत को ध्यान में रखते हुए भी वे अपने मनपसंद विषयों पर फिल्म बना लेते थे। ‘नौकरी’और ‘मधुमती’ इसी का नतीजा थीं।  आगे उन्होंने आगा हश्र कश्मीरी की कहानी ‘यहूदी की लड़की’ से प्रेरित होकर ‘यहूदी’ बनाई। जात-पात व छूत-अछूत के मुद्दे पर ‘सुजाता’ हो या लोकतंत्र पर व्यंग्य करती ‘परख’ या फिर स्त्री केंद्रित विषय पर बनी ‘बंदिनी’, ये सारी फिल्में उनकी रचनात्मक विविधता को साधने के कौशल को जाहिर करती हैं। बिमल दा ने सलिल चौधरी, ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक, कमल बोस, नबेंदु घोष और गुलजार जैसे हीरे हिंदी सिनेमा को दिए। उनका फिल्मी सफर भारतीय सिनेमा के तारीखी सुलेख की तरह आज भी देखा-पढ़ा जाता  है। 

जन्म : 12 जुलाई, 1909

निधन : 08 जनवरी, 1966