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गुरुवार, 18 जुलाई 2024

सिनेमा का प्रगतिशील हमराही


याद आएगा फिल्म भी 

संघर्ष का है कारगर उपकरण 

छिड़ेगा जब भी

दो बीघा जमीन से जुड़ा

हक और संघर्ष का प्रकरण

सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं है बल्कि यह सामाजिक-सांस्कृतिक  प्रगतिशीलता से भी गहरे स्तर पर जुड़ा रहा है। इस लिहाज से कोई सिनेमा के इतिहास को देखे तो उसे संस्कृति के सफरनामे के कई रोचक पड़ाव मिलेंगे। भारत में सिनेमा और सामाजिक-सांस्कृतिक साझे की जब भी बात होगी तो बिमल राय का जिक्र जरूर होगा। वे एक ऐसे फिल्मकार रहे जिन्होंने हिंदुस्तानी सिनेमा के साथ हॉलीवुड तक को भी प्रेरित-प्रभावित किया। दूरदर्शिता देखिए इस फिलम्कार की कि वे रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘जन गण मन’ के राष्ट्रीय गान बनने से पहले इसे 1945 में आई अपनी फिल्म ‘हमराही’ में पेश कर चुके थे। उनके फिल्मी सफरनामे को देखें तो इसमें 1953 का साल अहम है। इस साल आई  फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ ने दुनियाभर के फिल्मकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। बिमल दा के निर्देशन में बनी इस फिल्म से भारत में सार्थक, रचनात्मक और प्रगतिशील सिनेमा का न सिर्फ सघन दौर शुरू हुआ बल्कि फिल्म निर्माण की ऐसी संस्कृति विकसित हुई जिसमें सिनेमा, साहित्य और समाज तीनों एक-दूसरे के सर्वाधिक करीब आए। 

गौरतलब है कि दूसरे विश्वयुद्ध में फासीवाद ने इटली के समाज की परतें उधेड़ कर रख दी थीं। मुसोलिनी के खौफ से जहां अन्य फिल्मकार सब हरा-हरा ही दिखा रहे थे तो रॉबर्ट रोसेलिनी, वित्तोरियो डी सिका और विस्कोंती जैसे कुछ फिल्मकार भी थे जो समाज में उपजे वर्ग संघर्ष को दिखा रहे थे। सिनेमा और नव-यथार्थवाद की कहानी यहीं से शुरू होती है। शोषित और शासक के बीच के द्वंद्व को संवेदना के तमाम स्तरों पर स्पर्श करने वाली नव-यर्थाथवादी फिल्मों का भारतीय संदर्भ बिमल दा के नाम के साथ शुरू होता है। भारतीय संदर्भ में इस संघर्ष को सबसे पहले दिखाती उनकी फिल्म ‘उदेर पाथेय’(1944) ने बांग्ला सिनेमा में तूफान ला दिया था। 12 जुलाई, 1909 को ढाका में जन्मे बिमल राय की फिल्मी पारी बतौर फोटोग्राफर शुरू हुई थी। अपने शुरुआती संघर्ष वाले दिनों में 1935 में प्रदर्शित प्रथमेश चंद्र बरुआ की ‘देवदास’ और 1937 में आई फिल्म ‘मुक्ति’ के लिए फोटोग्राफी का जिम्मा बिमल दा ने ही संभाला था। वैसे ये उनके सिनेमा के सपने सजाने की शुरुआत भर थी। 1944 तक आते-आते कैमरे से कलाकारी करने वाले बिमल दा ‘लाइट, कैमरा और एक्शन’ बोलने को तैयार थे। फिल्मकार के तौर पर उन्होंने अपनी पहली बांग्ला फिल्म बनाई ‘उदेर पाथेय’, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं।

1942 में बॉम्बे टॉकीज के लिए उन्होंने ‘मां’ जैसी कामयाब फिल्म बनाई लेकिन उनकी असल पहचान बनकर पर्दे पर उतरी ‘दो बीघा जमीन’। इस फिल्म ने बिमल दा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान दी। समाजवाद से प्रेरित और सिनेमा के सर्वहारा की आवाज उठाने वाले बिमल दा पर व्यावसायिक फिल्में बनाने का जबरदस्त दबाव रहा। पर यह उनका ही कमाल था कि बॉक्स ऑफिस की जरूरत को ध्यान में रखते हुए भी वे अपने मनपसंद विषयों पर फिल्म बना लेते थे। ‘नौकरी’और ‘मधुमती’ इसी का नतीजा थीं।  आगे उन्होंने आगा हश्र कश्मीरी की कहानी ‘यहूदी की लड़की’ से प्रेरित होकर ‘यहूदी’ बनाई। जात-पात व छूत-अछूत के मुद्दे पर ‘सुजाता’ हो या लोकतंत्र पर व्यंग्य करती ‘परख’ या फिर स्त्री केंद्रित विषय पर बनी ‘बंदिनी’, ये सारी फिल्में उनकी रचनात्मक विविधता को साधने के कौशल को जाहिर करती हैं। बिमल दा ने सलिल चौधरी, ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक, कमल बोस, नबेंदु घोष और गुलजार जैसे हीरे हिंदी सिनेमा को दिए। उनका फिल्मी सफर भारतीय सिनेमा के तारीखी सुलेख की तरह आज भी देखा-पढ़ा जाता  है। 

जन्म : 12 जुलाई, 1909

निधन : 08 जनवरी, 1966

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