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सोमवार, 16 जनवरी 2023

 जाना हिंदी के एक और मैनेजर का

- प्रेम प्रकाश

आपातकाल का अंधेरा तब थोड़ा दूर था, पर नेहरू युग जरूर किताब के पन्नों में प्रगतिशील आलोचकीय निकष पर आ चुका था। अगर नहीं थकी और झुकी थी तो हिंदी पत्रकारिता की वह असाधारण कलम, जिसने आजादी के आंदोलन के दौरान हासिल यशस्विता को इस दौरान भी विचार और लोकतंत्र की हिमायत में बहाल रखा। श्री कृष्ण किशोर पांडेय जी अब हमारे बीच नहीं रहे। हिंदी के घर-परिवार और संस्कार के बीच प्रखर आलोचक मैनेजर पांडेय के बाद शोक की यह दूसरी बड़ी खबर है। यह खबर और इससे जुड़ा संयोग और इस विदाई का पूरा समकाल नई चिंताओं और सवालों को जन्म देता है। यह हिंदी विमर्श और अभिव्यक्ति के एक और मैनेजर का जाना है, सर्द थपेड़ों के बीच एक और अलाव का ठंडा पड़ना है।

स्वर्णीय केके पांडेय का जीवन एक ऐसे प्रतिबद्ध हिंदी पत्रकार का सफरनामा है, जो 1968 से 2005 तक भरपूर सक्रियता के साथ अखबार के उस कक्ष को प्रतिष्ठा देता रहा, जिसे संपादकीय कक्ष कहा जाता है। मेरे जैसे पत्रकार के लिए उनकी स्मृति को नमन ऐसे विशाल वटवृक्ष के नीचे खड़ा होना है, जहां प्रशांत ऊर्जा की शालीन अनुभूति एक अक्षर मनोदशा को रचती है। उनके निधन पर सोशल मीडिया पर जिस तरह के संस्मरण लिखे जा रहे हैं, उन्हें लोग जिस लगाव और कचोट के साथ याद कर रहे हैं, वे ये जाहिर करते हैं कि पत्रकारिता की कम से कम दो पीढ़ी उनसे गहरे तौर पर जुड़ी रही। यह जुड़ाव पत्रकारिता के बदलते दौर में छपे शब्दों की अस्मिता को बहाल रखने के प्रशिक्षण के साथ हिंदी की अभिव्यक्ति और उसके सामर्थ्य को नए समकाल में ढालने की ईमानदार कोशिश थी।

गौरतलब है कि श्री कृष्ण किशोर पांडेय जब ‘हिंदुस्तान’ जैसे शीर्षस्थ अखबार के संपादकीय पृष्ठ को विचार और विमर्श के केंद्र में ला रहे थे, तब हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पूरे लय में थी तो साथ ही खोजी पत्रकारिता की जमीन तेजी से पक रही थी। पत्र-पत्रिकाओं पर ताले झूलने का शोक तब किसी आशंका के गर्भ में भी नहीं था। हां, कई दूरद्रष्टा जरूर काल के क्षितिज पर छाते धुंधलके की बात कहने लगे थे। यह दौर अपने पूरे विस्तार में कुलदीप नैयर, बीजी वर्गीज, राजेंद्र माथुर, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, प्रभाष जोशी और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसी शख्सियतों की पत्रकारिता की लाजवाब पारी का साक्षी रहा।

इस दौरान दूरदर्शन ने जहां आंखें खोलीं, एशियाड दूसरी बार भारत लौटा, वहीं आगे चलकर श्रीमति इंदिरा गांधी के करिश्माई दौर का पटाक्षेप भारतीय राजनीति का सबसे दिलचस्प घटनाक्रम साबित हुआ। इतने सारे बदलावों और आगाजों के बीच कलम उठाना और अखबारी विमर्श का कंपास स्थिर करना आसान नहीं था। भाषाई संस्कार और हिंदी की अपनी धज और परंपरा के मुताबिक यह चुनौती कितनी बड़ी होगी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हिंदी सिनेमा का महानायक तब तक ‘पुष्पा के आंसू’ पर शोकाकुल होने के बजाय जमाने की नाइंसाफियों के खिलाफ सुलगते लावे की तरह एंग्री यंग मैन बन चुका था। बदलाव का दूसरा सिरा साहित्य को छू रहा था। हिंदी की किस्सागोई नई कहानी और कविताई नई कविता की शिनाख्त के साथ अपने होने को नई प्रतिबद्धता के सांचे में ढाल रही थी, नई चुनौतियों के बीच संवेदनशील सरोकारों को रच रही थी। कुल मिलाकर रचनात्मकता की दुनिया की हलचल हिंदी को नए प्रस्थान की ओर ले जा रही थी।

जिन लोगों ने भी उन्नत गौर ललाट और तिलकित भाल से सुशोभित पांडेय जी के साथ काम किया, उनके लिखने-पढ़ने की समझ और शैली को नजदीक से देखते-समझते रहे, वे ये बताते हैं कि उन्होंने भारतीय समाज और राजनीति के उत्तरायण और दक्षिणायन के बजाय उसके मध्याह्न को ज्यादा अहम माना। इसलिए विचार के तीखे कोणों के बजाए उन्होंने विमर्श और विरासत की दोमट मिट्टी पर अक्षर फूल खिलाए, नए समकोण खड़े किए।

इस अक्षर वाटिका की बड़ी बात यह रही कि इसमें नए चटख रंग और तासीर के फूलों ने हिंदी और हिंदुस्तान दोनों को एक साथ महकाया। नए कलम उठाने वालों ने लिखने के जोखिम और दायित्व को समझा। और इस तरह तैयार हुई नए लेखकों और पत्रकारों की एक पूरी खेंप। यह वह खेंप है जो भाषा से खिलवाड़, दो-तीन जीबी डेटा और अफवाह के दोस्ताने के बीच लिखने की मर्यादा को बचाए रखने के लिए अंतिम लश्कर के तौर पर आज भी कार्य कर रही है। 

इसके बाद हिंदी की बिंदी और मान को बचाए रखने के लिए न तो कोई लश्कर बचेगा और न ही बचेगा कोई संघर्ष। केके पांडेय की स्मृति और प्रेरणा को नमन के साथ यह बड़ा संकट बिल्कुल सामने दिख रहा है। बड़ी बात होगी कि इस संकट और अंधकार के बीच कहीं से एक नया कृष्ण किशोर होने की संभावना प्रकट हो। यह संभावना और इसके लिए बची-खुची उम्मीद हिंदी के पुराने कंगूरों और नए चबूतरों पर दीयों के बलने की अंतिम उम्मीद है। यह उम्मीद फलीभूत हो और इससे जुड़ा बोध चिरायु हो, ऐसी कामना है।

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