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रविवार, 5 अगस्त 2012

घोषणापत्र : ऐसी चुनावी रुढि़ की क्या जरूरत

अपने यहां चुनाव का सीजन कभी खत्म नहीं होता। ग्राम पंचायत और निकाय चुनाव से लेकर आम चुनाव तक कुछ न कुछ हमेशा चलते रहता है। नहीं कुछ तो बीच में सीट खाली होने के कारण उपचुनाव ही हो जाते हैं। यह मांग पुरानी है कि एक समन्वित व्यवस्था बने ताकि कम से कम सारे स्थानीय चुनाव के एक साथ करा लिए जाएं। इसी तरह लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होने की अनिवार्यता हो तो यह न सिर्फ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में होगा बल्कि इस कारण चुनावी राजनीति की चिकचिक से भी जनता को थोड़ी निजात मिलेगी।
इसी तरह का एक और मुद्दा चुनाव के मौके पर राजनीतिक दलों द्वारा जारी किए जाने वाले चुनाव घोषणापत्र से जुड़ा है। आमतौर पर जनता के लिए अब इन घोषणापत्रों का कोई महत्व नहीं रह गया है। वैसे भी इन घोषणापत्रों के जारी होने का परंपरागत महत्व भले हो पर इनका कोई संवैधानिक महत्व नहीं होता। यहां तक कि चुनाव आयोग भी इसे कोई महत्व नहीं देता। पर बावजूद इसके कुछ मौकों पर इन घोषणापत्रों से बड़े-बड़े चुनावी खेल आज भी बनते-बिगड़ते हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। इससे पहले तमिलनाडु में भी चुनाव हुए थे। इन दोनों विधानसभा चुनावों के नतीजों में विजयी दल के घोषणापत्र मतदाताओं को काफी रास आए, नतीजों के विश्लेषण में ऐसा कई चुनाव विश्लेषकों ने कहा। पर यह इस बात के लिए पर्याप्त आधार नहीं है कि जनता किसी दल को या उनके दल के निर्वाचितों को चुनाव घोषणापत्र का पूरी तरह या आंशिक रूप में पालन के लिए मजबूर कर सकती है। और अगर ऐसा है तो फिर घोषणापत्र के रूप में जारी ऐसी चुनावी रुढि़ क्या जरूरत है?
अभी नई दिल्ली में प्रभाष परंपरा न्यास के एक कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इसी सवाल को गंभीरता से उठाया। उन्होंने कहा कि विधायकों और सांसदों को संविधान की शपथ दिलाई जाती है। उन्हें वचनबद्ध किया जाता है कि वे संविधान की व्यवस्था और मूल भावनाओं के मुताबिक आचरण करेंगे। निर्वाचन से पहले या बाद कहीं भी औपचारिक रूप से चुनाव घोषणापत्र की बात नहीं होती। ऐसे में महज राजनीति के लिए ऐसे दस्तावेज के जारी होने और इसके नाम पर जनता को गुमराह करने का क्या मतलब? जाहिर है यह मांग तार्किक है और इस पर सरकार और राजनीतिक जमात दोनों को गौर करना चाहिए। 

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