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मंगलवार, 1 मई 2012

सजा दो हमें कि हम हैं बच्चे तुम्हारे


राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने स्कूलों में शारीरिक दंड को लेकर जो विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट जारी की है, उसमें एक बार फिर देश में बच्चों के प्रति बढ़ रही असंवेदनशीलता की पुष्टि हुई है। यहां दिलचस्प यह है कि निजी स्कूलों में हालात सरकारी स्कूलों से भी बदतर है। निजी स्कूलों में 83.6 फीसद लड़कों और 84.8 फीसद लड़कियों को किसी न किसी तरह के मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। केंद्रीय विद्यालयों में यह आंकड़ा क्रमश: 70.5 और 72.6 फीसद है जबकि राज्य सरकारों द्वारा संचालित स्कूलों में 81.1 फीसद लड़कों और 79.7 फीसद लड़कियों को मानसिक रूप से प्रताडि़त करने वाले अपशब्दों को झेलने पड़ते हैं। 
रिपोर्ट में दर्ज टिप्पणी में भी कहा गया है कि आमतौर पर माना यही जाता है कि निजी तौर पर संचालित स्कूलों में योग्य शिक्षक-शिक्षिकाएं होती हैं। ऐसे में वहां बच्चों के साथ क्रूर सलूक की शिकायतें कम होनी चाहिए। पर ऐसा है नहीं और यह कहीं न कहीं स्कूली शिक्षा के निजीकरण की बढ़ी होड़ पर सवाल उठाता है। गौरतलब है कि निजी स्कूलों की शिक्षा न सिर्फ महंगी है बल्कि यहां दाखिला भी आसान नहीं है। पिछले दिनों चेन्नई के एक स्कूल में एक शिक्षिका के कठोर व्यवहार और उपेक्षा से खीझे बच्चे ने प्रतिक्रिया में चाकू से गोदकर शिक्षिका की स्कूल में ही हत्या कर दी थी। यह घटना भी एक बड़े निजी स्कूल में ही हुई थी। कहना नहीं होगा कि शिक्षकों की असंवेदनशीलता छात्रों की पढ़ाई को ही महज प्रभावित नहीं करती बल्कि उनकी मनोवृत्ति को भी खतरनाक रूप से विकृत कर देती है। 
वैसे यहां यह भी साफ होने का है कि देश में बचपन के साथ ऐसा क्रूर सलूक सिर्फ स्कूलों में ही नहीं बल्कि हर जगह बढ़ रहा है। पिछले साल एनसीआरबी के जो आंकड़े जारी हुए थे, उसमें कहा गया था कि 2009 के मुकाबले 2010 में आपराधिक मामलों में जहां करीब पांच फीसद की वृद्धि देखी गई, वहीं बच्चों के मामले में यह फीसद दोगुने से भी ज्यादा रही। यह दिखाता है कि परिवार और समाज के स्तर पर बच्चों के प्रति हमारे सरोकार निहायत ही लापरवाह होते चले जा रहे हैं। यह स्थिति ऐसी है जिस पर समय से ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाली पीढि़यों की सोच और समझ में इसके खतरानक बीज को हम पनपते हुए देखेंगे।
अपने देश में यह स्थिति तब है जब पूरी दुनिया में बच्चों के प्रति घर-परिवार से लेकर विद्यालय तक एक जिम्मेदार और संवेदनशील व्यवहार के प्रति चेतना और प्रयास कारगर शक्ल अख्तियार कर रहे हैं। अपने देश में भी पिछले वर्ष महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने एक कानूनी प्रस्ताव घर और विद्यालयों में बच्चों को शारीरिक दंड देने पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए तैयार किया था। पर इस बारे में आगे ज्यादा प्रयास नहीं हुए, नतीजतन आज भी यह महत्वपूर्ण कानून संसद से पारित होने की बाट जोह रहा है।

1 टिप्पणी:

  1. कहना नहीं होगा कि शिक्षकों की असंवेदनशीलता छात्रों की पढ़ाई को ही महज प्रभावित नहीं करती बल्कि उनकी मनोवृत्ति को भी खतरनाक रूप से विकृत कर देती है। ....sach bachhon ke komal man par dar ka jo prabhav pad jaata hai wah use hamesha darata rahta hai...
    bahut badiya sarthak vicharniya prastuti ...

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