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बुधवार, 11 अगस्त 2010

...तो खारी नहीं मीठी होती!


नमक किसी मिठाई की बेटी नहीं
हाथ और पांव का गासा-गासा गला चुके
मजदूरों की रोटी है
साल के चुनिंदा दिनों में
खुशियों की काजल आंज कर
केक के साथ चाकूमारी से पहले
मोमबत्तियां बुझाने वाली आंखें
खारे पानी से भींगकर
पहले भी हो चुकी हैं नंगी
गम को सैड सांग का कीमती एलबम
दिल को वेलेंटाइन डे का गिफ्ट
और खुशी को चमकता पारा कहने वालों ने
जब भी लिखा है सुलेख मधुमास में संत्रास का
उन्हें दिखे हैं सिर्फ अपने टेसू

हर कदम पर जहां जीतने का रोमांस
दो कदम साथ चलकर
कैसे हो जाता है लहूलुहान
यह डायरी के कुछ पन्ने
कविताई के नाम करने वाले बताएं
यह उनके बूते का नहीं
हर रात को मिठास की तरह चखने वाली इच्छाएं
हर मौसम के लिए रचाना चाहती हैं स्वयंवर
और जब उनकी अंगराई पर नहीं बरसते मेघ
नहीं सजती सेज बहारों की
तीखा लगता है उन्हें जिंदगी का सच
खारा लगता है प्यार का आस्वाद

प्यार को पूनम
और खुशियों को शबनम का
रुपक देनेवाली गुस्ताखियां
जब भी होती हैं मजबूर
संवेदनाओं की ओट लेती हैं
खारेपन को कोसकर
फिर से मीठी हो जाने की दमित इच्छाओं ने
अपनी छुअन बेचकर
कितनों को कराया है झूठे पुण्य का एहसास
यह समुद्र होने की कामना से पहले
अगर सोचती नदी
तो वह खारी नहीं मीठी होती
10.08.10

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