अमेरिका में जब बराक ओबामा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने में सफल हुए थे, तो वहां की और भारत की स्थितियों को राजनैतिक और बौद्धिक जमात के बीच कई तुलनात्मक नजरिए सामने आए। बार-बार अमेरिका के उदाहरण को सामने रखकर यह समझने की कोशिश की गई कि भारत उस उदार और विकसित राजनीतिक-सामाजिक स्थिति तक पहुंचने से कितनी दूर है, जब हम भी अपने यहां एक दलित को या एक मुसलमान को प्रधानमंत्री पद पर बैठा देखेंगे। जो बात ज्यादा भरोसे से और तार्किक तरीके से समझ में आई वह यही कि विकास और संपन्नता मध्यकालीन और जातीय बेडि़यों को तोड़ने का सबसे मुफीद औजार है। अमेरिका में ये औजार सबसे ज्यादा तेजी से काम कर रहे हैं। इसलिए वहां चेंज को अलग से चेज करने की जरूरत अब नहीं है। पर क्या भारत भी अपनी विकासयात्रा में उन्हीं सोपानों पर पहुंच रहा है, जहां चेंज कोई चैलेंज न होकर एक स्वभाविक स्थिति बन जाती है। अगर आपका उत्तर है तो आपको अपने सैद्धांतिक आधारों पर एक बार फिर विचार करना होगा? दरअसल, यह दरकार कहीं और से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के हालात के बीच से आए हैं। 2014 के आम चुनाव में यूपी के चुनावी गणित कितने काम आएंगे, पता नहीं। पर सभी सियासी पार्टियां इसे दिल्ली की सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर ही लड़ रही हैं। आरक्षण का खुर्शीदी-बेनी खेल पहले ही बोतल से बाहर आ गया है। रही सही कसर जातीय राजनीति को लेकर खेले गए नंगे खेल ने पूरा कर दिया है। क्षेत्रीय प्रभाव रखने वाले दलों की मजबूरी तो छोड़ दें, कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय प्रभाव और विस्तार वाले दलों ने भी विकास व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को छोड़कर क्षेत्र और जाति की राजनीति पर अपना यकीन ज्यादा दिखाया। बाबूसिंह कुशवाहा मामले में भाजपा ने जहां आंतरिक विरोध तक को सुनना गंवारा नहीं किया, वहीं रियल और फेयर पॉलिटिक्स के हिमायती राहुल गांधी ने चुनावी सभा में सैम पित्रोदा को विश्वकर्मा जाति का बताकर केंद्र में अपने पिता राजीव गांधी के कार्यकाल के आईटी विकास को जातीय तर्कों पर उतारने को मजबूर हुए।
विकास को सामाजिक न्याय की समावेशी संगति पर खरा उतारना तो समझ में आता है पर इसे सीधे-सीधे जातीयता की जमीन पर ला पटकना खतरनाक है। इस लिहाज से कांग्रेस पार्टी की इस हिमाकत को सबसे बड़ा मर्यादा उल्लंघन ठहराया जा सकता है, जब उसने देश में आईटी क्रांति के प्रणेता रहे सैम पित्रोदा को जातीय राजनीति के चौसर पर पासे की तरह फेंका। यह गलती नहीं बल्कि कांग्रेस की एक सोची-समझी चुनावी रणनीति है, यह तब ज्यादा जाहिर हुआ जब पार्टी ने यूपी में अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए सैम को मीडिया से मुखातिब कराया।
सैम अगर सबके सामने कैलकुलेटेड ढिठाई से यह कहते कि 'मैं बढ़ई का बेटा हूं और अपनी जाति पर मुझे फख्र है', तो कांग्रेस का उनको लेकर खेला गया चुनावी खेल तो समझ में आता है पर सैम को क्या पड़ी थी कि वह खुद को इस खेल में इस्तेमाल हो जाने दे रहे हैं। क्या सैम की यह बढ़ईगिरी विकास को भी जातिगत शिनाख्त देने की दरकार को खतरनाक अंजामों तक नहीं ले जाएगी। राजीव गांधी के जमाने का आईटी 21वीं सदी के एक दशक बीतते-बीतते कहां पहुंच गई, आप समझ सकते हैं।
विकास को सामाजिक न्याय की समावेशी संगति पर खरा उतारना तो समझ में आता है पर इसे सीधे-सीधे जातीयता की जमीन पर ला पटकना खतरनाक है। इस लिहाज से कांग्रेस पार्टी की इस हिमाकत को सबसे बड़ा मर्यादा उल्लंघन ठहराया जा सकता है, जब उसने देश में आईटी क्रांति के प्रणेता रहे सैम पित्रोदा को जातीय राजनीति के चौसर पर पासे की तरह फेंका। यह गलती नहीं बल्कि कांग्रेस की एक सोची-समझी चुनावी रणनीति है, यह तब ज्यादा जाहिर हुआ जब पार्टी ने यूपी में अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए सैम को मीडिया से मुखातिब कराया।
सैम अगर सबके सामने कैलकुलेटेड ढिठाई से यह कहते कि 'मैं बढ़ई का बेटा हूं और अपनी जाति पर मुझे फख्र है', तो कांग्रेस का उनको लेकर खेला गया चुनावी खेल तो समझ में आता है पर सैम को क्या पड़ी थी कि वह खुद को इस खेल में इस्तेमाल हो जाने दे रहे हैं। क्या सैम की यह बढ़ईगिरी विकास को भी जातिगत शिनाख्त देने की दरकार को खतरनाक अंजामों तक नहीं ले जाएगी। राजीव गांधी के जमाने का आईटी 21वीं सदी के एक दशक बीतते-बीतते कहां पहुंच गई, आप समझ सकते हैं।
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