इस बार के लोकसभा चुनाव में फैसला महज इस बात का नहीं होगा कि दिल्ली में सरकार कौन बनाएगा, बल्कि यह चुनाव देश की राजनीति को भी नए निकष पर कसने जा रहा है। यह इस लिहाज से जरूरी भी है कि बीते कुछ दशकों में जनता को राजनीतिक विचारधारा और उसके प्रति दिखाई जाने वाली प्रतिबद्धता के नाम पर खतरनाक तरीके से बहलाया-भड़काया और बांटा जाता रहा है।
दरअसल, देश की राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के खिलाफ आई गैरकांग्रेसवाद की डॉ. राममनोहर लोहिया की अवधारणा के बाद जिस तरह सेक्यूलर और अस्मितावादी राजनीति ने अपना रकबा बढ़ाया, उसने भारतीय राजनीति के अखिल चरित्र को क्षेत्र, जाति और वर्ग के खांचों में पूरी तरह बांटकर रख दिया। सोशल इंजीनियरिंग की सामयिकता और दरकार की वकालत करने वालों की नजर में लंबे समय से चले आ रहे सामाजिक अन्याय के खिलाफ यह एक जरूरी राजनीतिक कार्रवाई है। पर यह कार्रवाई कई तरह की प्रतिक्रियावादी अनीतियों-कुतर्कों की जिस तरह शिकार हुई, वह काफी चिंताजनक है।
चिंता की इस जमीन को समझने के लिए खासतौर पर बीते दो दशकों में उत्तर प्रदेश में बसपा की राजनीति को देखा जा सकता है। दलित या बहुजन समाज की बात करने वाली पार्टी की नेता मायावती ने नई सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ब्राह्मणों-क्षत्रियों सबके मंच पर गईं और अपने लिए वोट का जुगाड़ किया। बात बनी तो सनक इस तरह सवार हुई की बहनजी सरकार में आने पर सूबे में कई जगहों पर करोड़ों रुपयों की लागत से अपनी मूर्तियां लगवाने लगीं। इसी तरह की राजनीति अपनी-अपनी सुविधा से बिहार में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान करते रहे हैं। थोड़े किंतु-परंतु के साथ इस सूची में आप चाहें तो नीतीश कुमार को भी गिन सकते हैं।
अब जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव के दिन करीब आते जा रहे हैं अस्मितावाद के नाम पर क्षेत्रवाद की राजनीति करने वालों के पांव के नीचे से जमीन खिसकती जा रही है। इस स्थिति को और समझने के लिए आपको मायावती के पिछले दिनों आए उस बयान पर गौर करना होगा, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए सांप्रदायिकता विरोधी ताकतों की एकजुटता की बात की थी। बहनजी ने कितने दफे भाजपा के साथ आकर यूपी में सत्ता सुख भोगा है, यह कोई ज्यादा पुराना इतिहास नहीं है। अब जब उन्हें लग रहा है कि एक व्यक्ति गुजरात से निकलकर पूरे देश में विकास और देश के नवनिर्माण की बात कर रहा है तो उन्हेंयह खौफ खाए जा रहा है कि कहीं यह लोकप्रियता उनकी सियासी जमीन को ही न हड़प ले।
बात यूपी की निकली है तो राजनीति के पुराने पहलवान मुलायम सिंह यादव का भी जिक्र जरूरी है। अपनी सेक्यूलर छवि के लिए मुस्लिम तुष्टि की हर हद को छूने वाले नेताजी को इन दिनों सबसे ज्यादा आक्रोश इसी बिरादरी से देखने को मिल रहा है। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद 'मुल्ला मुलायम’ का सियासी तिलिस्म किस कदर दरका है, इसकी मिसाल है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जाने का दौरा नेताजी को रद्द करना पड़ा। वहां के छात्र उनके विरोध में सड़कों पर उतर आए थे। छात्रों का आक्रोश मुजफ्फरनगर दंगे को लेकर सपा सरकार के अगंभीर रवैए को लेकर था। दिलचस्प है कि यह वही विश्वविद्यालय है, जहां एक जमाने में मुसलमानों के सबसे बड़े रहनुमा के तौर पर मुलायम की आवभगत होती थी। इस सबसे घबड़ाए नेताजी सांप्रदायिकता का खौफ दिखाकर भरसक कोशिश कर रहे हैं कि मुसलमानों का साथ उन्हें फिर से मिल जाए। तीसरे मोर्चे का तंबू एक बार फिर तानकर वे आखिरी सियासी दांव चल रहे हैं। पर शायद अब बहुत देर हो गई है।
नया ताजा पॉलिटकल ड्रामा बिहार में खेला जा रहा है। उत्तर प्रदेश में दलित नेता उदित राज के भाजपा में शामिल होने के साथ ही खबर आई कि दलित राजनीति के पुराने सूरमा रामविलास पासवान भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ सकते हैं। इन दोनों खबरों ने हिंदी पट्टी में बीते कम से कम से कम दो दशकों से चली आ रही दलित राजनीति के अस्मितावादी तकाजे को एक तरह से अप्रासंगिक ठहरा दिया।
दिलचस्प तो यह रहा कि इस बड़े सियासी उलटफेर के साथ खबर यह भी आई कि बिहार में लालू यादव की राजनीति का लालटेन अचानक बुझने लगा है। एक जमाने में बैलेट बॉक्स से 'जिन्न’ निकालने का दावा करने वाले लालू प्रसाद यादव को अपनी ही पार्टी में
विरोध की आग को ठंडा करने में पसीना बहाना पड़ रहा है।
इन तमाम सियासी घटनाक्रमों को एक सीध में रखकर देखें तो कुछ बातों के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। पहला संकेत तो यही है कि गठबंधन राजनीति के दौर में क्षेत्रीय राजनीति की जो गुंजाइश बढ़ गई थी, वह अब सिमटती जा रही है। न सिर्फ यूपीए और एनडीए बल्कि अब देश की नई राजनीति कांग्रेस और भाजपा के दो ध्रुवों में बंटती नजर आ रही है। भारत की बहुलतावादी एकता के सूत्रों को समझने वालों की नजर में यह एक पॉजिटव पॉलिटकल डेवलपमेंट है।
इससे आगे की बात करें तो पूरे देश में नमो को लेकर आकर्षण है। इस स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पहले जो बात कांग्रेस के कुछ नेता अलग-अलग कह रहे थे, वह बात अब अरविंद केजरीवाल तक कह रहे हैं कि मोदी की कहीं न कहीं लहर तो जरूर है। हालांकि इसे समझने के लिए ग्राउंड रिपोट्र्स का ही भरोसा ज्यादा करना चाहिए क्योंकि ओपिनियन पोल्स पर नए स्टिंग ने इसकी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठा दिए हैं।
अगर यह स्थिति वाकई है तो इसके चुनावी फलित को इस रूप में देखा जा सकता है कि इस बार मोदी की छतरी के नीचे कई ऐसे दल और नेता आ सकते हैं, जो अब तक दलित-पिछड़ा या सेक्यूलरवाद की आड़ में अपनी राजनीति खेलते रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो वाकई देश की राजनीति को देखने-समझने का पिछले दो-तीन दशकों का नजरिया बदल जाएगा। नए नजरिए में न तो कथित अस्मितावादी तकाजों के लिए कोई जगह होगी और न ही छद्म सेक्यूलरवाद के लिए कोई गुंजाइश।
यह नया बदलाव देश में राजनीति के तर्क को जहां और ठोस करेगा, वहीं पक्ष या विरोध की राजनीति के लिए स्टैंड लेने वालों को ज्यादा गंभीर लोकतांत्रिक विवेक दिखलाना होगा। अपने साढ़े छह दशक से भी लंबे सफरनामे के बाद अगर भारतीय राजनीति इस मुकाम तक पहुंची है, तो यह सचमुच काफी सुखद है। कह यह भी सकते हैं कि इस संभावित बदलाव के साथ देश में 21वीं सदी की नई राजनीति का दौर शुरू होगा।
दरअसल, देश की राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के खिलाफ आई गैरकांग्रेसवाद की डॉ. राममनोहर लोहिया की अवधारणा के बाद जिस तरह सेक्यूलर और अस्मितावादी राजनीति ने अपना रकबा बढ़ाया, उसने भारतीय राजनीति के अखिल चरित्र को क्षेत्र, जाति और वर्ग के खांचों में पूरी तरह बांटकर रख दिया। सोशल इंजीनियरिंग की सामयिकता और दरकार की वकालत करने वालों की नजर में लंबे समय से चले आ रहे सामाजिक अन्याय के खिलाफ यह एक जरूरी राजनीतिक कार्रवाई है। पर यह कार्रवाई कई तरह की प्रतिक्रियावादी अनीतियों-कुतर्कों की जिस तरह शिकार हुई, वह काफी चिंताजनक है।
चिंता की इस जमीन को समझने के लिए खासतौर पर बीते दो दशकों में उत्तर प्रदेश में बसपा की राजनीति को देखा जा सकता है। दलित या बहुजन समाज की बात करने वाली पार्टी की नेता मायावती ने नई सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ब्राह्मणों-क्षत्रियों सबके मंच पर गईं और अपने लिए वोट का जुगाड़ किया। बात बनी तो सनक इस तरह सवार हुई की बहनजी सरकार में आने पर सूबे में कई जगहों पर करोड़ों रुपयों की लागत से अपनी मूर्तियां लगवाने लगीं। इसी तरह की राजनीति अपनी-अपनी सुविधा से बिहार में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान करते रहे हैं। थोड़े किंतु-परंतु के साथ इस सूची में आप चाहें तो नीतीश कुमार को भी गिन सकते हैं।
अब जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव के दिन करीब आते जा रहे हैं अस्मितावाद के नाम पर क्षेत्रवाद की राजनीति करने वालों के पांव के नीचे से जमीन खिसकती जा रही है। इस स्थिति को और समझने के लिए आपको मायावती के पिछले दिनों आए उस बयान पर गौर करना होगा, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए सांप्रदायिकता विरोधी ताकतों की एकजुटता की बात की थी। बहनजी ने कितने दफे भाजपा के साथ आकर यूपी में सत्ता सुख भोगा है, यह कोई ज्यादा पुराना इतिहास नहीं है। अब जब उन्हें लग रहा है कि एक व्यक्ति गुजरात से निकलकर पूरे देश में विकास और देश के नवनिर्माण की बात कर रहा है तो उन्हेंयह खौफ खाए जा रहा है कि कहीं यह लोकप्रियता उनकी सियासी जमीन को ही न हड़प ले।
बात यूपी की निकली है तो राजनीति के पुराने पहलवान मुलायम सिंह यादव का भी जिक्र जरूरी है। अपनी सेक्यूलर छवि के लिए मुस्लिम तुष्टि की हर हद को छूने वाले नेताजी को इन दिनों सबसे ज्यादा आक्रोश इसी बिरादरी से देखने को मिल रहा है। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद 'मुल्ला मुलायम’ का सियासी तिलिस्म किस कदर दरका है, इसकी मिसाल है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जाने का दौरा नेताजी को रद्द करना पड़ा। वहां के छात्र उनके विरोध में सड़कों पर उतर आए थे। छात्रों का आक्रोश मुजफ्फरनगर दंगे को लेकर सपा सरकार के अगंभीर रवैए को लेकर था। दिलचस्प है कि यह वही विश्वविद्यालय है, जहां एक जमाने में मुसलमानों के सबसे बड़े रहनुमा के तौर पर मुलायम की आवभगत होती थी। इस सबसे घबड़ाए नेताजी सांप्रदायिकता का खौफ दिखाकर भरसक कोशिश कर रहे हैं कि मुसलमानों का साथ उन्हें फिर से मिल जाए। तीसरे मोर्चे का तंबू एक बार फिर तानकर वे आखिरी सियासी दांव चल रहे हैं। पर शायद अब बहुत देर हो गई है।
नया ताजा पॉलिटकल ड्रामा बिहार में खेला जा रहा है। उत्तर प्रदेश में दलित नेता उदित राज के भाजपा में शामिल होने के साथ ही खबर आई कि दलित राजनीति के पुराने सूरमा रामविलास पासवान भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ सकते हैं। इन दोनों खबरों ने हिंदी पट्टी में बीते कम से कम से कम दो दशकों से चली आ रही दलित राजनीति के अस्मितावादी तकाजे को एक तरह से अप्रासंगिक ठहरा दिया।
दिलचस्प तो यह रहा कि इस बड़े सियासी उलटफेर के साथ खबर यह भी आई कि बिहार में लालू यादव की राजनीति का लालटेन अचानक बुझने लगा है। एक जमाने में बैलेट बॉक्स से 'जिन्न’ निकालने का दावा करने वाले लालू प्रसाद यादव को अपनी ही पार्टी में
विरोध की आग को ठंडा करने में पसीना बहाना पड़ रहा है।
इन तमाम सियासी घटनाक्रमों को एक सीध में रखकर देखें तो कुछ बातों के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। पहला संकेत तो यही है कि गठबंधन राजनीति के दौर में क्षेत्रीय राजनीति की जो गुंजाइश बढ़ गई थी, वह अब सिमटती जा रही है। न सिर्फ यूपीए और एनडीए बल्कि अब देश की नई राजनीति कांग्रेस और भाजपा के दो ध्रुवों में बंटती नजर आ रही है। भारत की बहुलतावादी एकता के सूत्रों को समझने वालों की नजर में यह एक पॉजिटव पॉलिटकल डेवलपमेंट है।
इससे आगे की बात करें तो पूरे देश में नमो को लेकर आकर्षण है। इस स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पहले जो बात कांग्रेस के कुछ नेता अलग-अलग कह रहे थे, वह बात अब अरविंद केजरीवाल तक कह रहे हैं कि मोदी की कहीं न कहीं लहर तो जरूर है। हालांकि इसे समझने के लिए ग्राउंड रिपोट्र्स का ही भरोसा ज्यादा करना चाहिए क्योंकि ओपिनियन पोल्स पर नए स्टिंग ने इसकी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठा दिए हैं।
अगर यह स्थिति वाकई है तो इसके चुनावी फलित को इस रूप में देखा जा सकता है कि इस बार मोदी की छतरी के नीचे कई ऐसे दल और नेता आ सकते हैं, जो अब तक दलित-पिछड़ा या सेक्यूलरवाद की आड़ में अपनी राजनीति खेलते रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो वाकई देश की राजनीति को देखने-समझने का पिछले दो-तीन दशकों का नजरिया बदल जाएगा। नए नजरिए में न तो कथित अस्मितावादी तकाजों के लिए कोई जगह होगी और न ही छद्म सेक्यूलरवाद के लिए कोई गुंजाइश।
यह नया बदलाव देश में राजनीति के तर्क को जहां और ठोस करेगा, वहीं पक्ष या विरोध की राजनीति के लिए स्टैंड लेने वालों को ज्यादा गंभीर लोकतांत्रिक विवेक दिखलाना होगा। अपने साढ़े छह दशक से भी लंबे सफरनामे के बाद अगर भारतीय राजनीति इस मुकाम तक पहुंची है, तो यह सचमुच काफी सुखद है। कह यह भी सकते हैं कि इस संभावित बदलाव के साथ देश में 21वीं सदी की नई राजनीति का दौर शुरू होगा।
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