संभावनाओं के पूरे होने से ज्यादा जरूरी है, उनका बने रहना। जीवन और समाज का संभावना रहित होना खतरनाक है। ये बातें आज भारतीय राजनीति के संदर्भ में समझनी जरूरी है। इन दिनों देश में राजनीति काफी गरमाई हुई है। दो-तीन महीने में लोकसभा चुनाव होने हैं। दल और विचार की साझा ताकत सत्ता के गणित के आगे कमजोर पड़ रही है। बदलाव और विकल्प की सामयिक दरार को रेखांकित करने से तो किसी सियासी जमात को गुरेज नहीं है, पर इस पर पूरा जोर भी किसी का नहीं है। यह सब संभावनाओं के बड़े कैनवस को फिर से पुराने रंगों और चित्रों से भर जाने के अंदेशे की तरह है।
इस पूरी स्थिति को समझने के लिए थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो कई बातें साफ होंगी। बीते तीन सालों में भ्रष्टाचार को लेकर जो देशभर में आक्रोश दिखा, उसकी अगुवाई करने वाले नागरिक समाज के एक धड़े ने अपने सांगठनिक सामथ्र्य को राजनीतिक दल का रूप दिया। पर सत्ता तक पहुंचकर सत्तावादी आचरण को बदलने की अधीरता ने एक बड़ी कोशिश को कुछ ही महीनों में पटरी से उतार दिया। आम आदमी पार्टी के कार्यकताã और शुभचिंतक भी अब उससे कट रहे हैं। सदस्यता अभियान के नाम पर करोड़ का आंकड़ा छूने का दावा जरूर किया जा रहा है पर कमिटेड वर्क फोर्स के नाम पर पार्टी के पास गिनती के नाम हैं। यही नहीं महिला अस्मिता जैसे मुद्दे पर पार्टी की सोच और उसकीसरकार के मंत्री के आचरण की हर तरफ कठोर निंदा हो रही है। पार्टी के संस्थापक सदस्याओं में से एक मधु भादुड़ी सीधा आरोप लगा रही हैं कि पार्टी को कुछ लोगों ने हाईजैक कर लिया है। पार्टी के अंदर चुनाव जीतने और सत्ता की राजनीति करने का पागलपन इस कदर बढ़ गया है कि भिन्न स्वरों और वैकल्पिक रायों को पार्टी के अंदर कोई सुनने को तैयार नहीं है।
मधु आगे बढ़कर यहां तक कहती हैं कि इस पार्टी में और बातें तो छोड़ दीजिए महिलाओं को 'इंसान’ तक नहीं समझा जा रहा। गौरतलब है कि मधु आप के राष्ट्रीय अधिवेशन में खिड़की एक्सटेंशन में आधी रात को दिल्ली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती की अगुवाई में हुए महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक सलूक के मामले को उठाना चाहती थीं। उनकी मांग और मंशा इतनी भर थी कि पार्टी को इस मामले में अपनी चूक मान लेनी चाहिए और खुद से आगे बढ़कर माफी मांगनी चाहिए। पर माफी की बात तो दूर उन्हें इस मामले में पार्टी फोरम पर अपनी पूरी बात कहने तक से रोका गया।
आप से निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी की राजनीतिक पृष्ठभूमि और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को देखते हुए उनके उठाए सवालों को अगर एक किनारे कर भी दें तो भी एक बात तो साफ जाहिर हो रही है कि इस पार्टी ने अपने लिए जो उच्च राजनीतिक मानदंड तय किए थे, वह आज उस पर खुद खरी नहीं उतर रही है। ऐसा नहीं होता तो सरकार बनाने और तमाम अहम मुद्दों पर जनता की राय से अपना रुख तय करने वाली पार्टी अपने विधायक को बिना जनता से राय लिए कम से कम बाहर का रास्ता नहीं दिखाती।
आप को लेकर ये सारी बातें इसलिए क्योंकि उसके उदय और संघर्ष की परिघटना ने ही देश में राजनीतिक बदलाव और विकल्प की संभावना को रेखांकित किया था। भूले नहीं हैं लोग कि जब इस पार्टी ने दिल्ली में डेढ़ दशक से चल रही कांग्रेस सरकार को महज आठ सीट तक सीमित कर दिया तो राहुल गांधी ने मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि आप से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। खासकर उसने जिस तरह कम समय में लोगों को अपने से जोड़ा। आज उसी राहुल गांधी की तरफ से अखबारों में विज्ञापन छप रहा है- 'अराजकता नहीं प्रशासन सुधार’। साफ है कि निशाने पर सीधे-सीधे खुद को अराजक कहने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी सरकार है। इससे पहले गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति भी परोक्ष रूप से दिल्ली सरकार के कामकाज पर टिप्पणी कर चुके हैं।
दरअसल, अब सवाल यह नहीं है कि क्या आम आदमी पार्टी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इतिहास बदलने की जल्दबाजी में देश में लोकतांत्रिक परिवर्तन की एक बड़ी संभावना हाशिए पर खिसकती जा रही है, खारिज होती जा रही है? नया सवाल तो यह है कि क्या संभावना और उसके बूते परिवर्तन की ऐतिहासिक पटकथा लिखने का लाइसेंस सिर्फ आप और उसके मुट्ठी भर नेताओं के पास है। पिछले एक महीने में दिल्ली की सड़कों से लेकर सचिवालय के अंदर-बाहर दिखी नौटंकी ही क्या देश के भविष्य के चित्र हैं? निश्चित रूप से इसका जवाब नहीं है।
देश में परिवर्तन की गहराती संभावनाओं की बात इसलिए नहीं शुरू हुई कि ऐसा सिविल सोसायटी की नुमाइंदगी करने वाले कुछ लोग या कोई पार्टी ऐसा कह रही थी। दरअसल, इसके पीछे बीते कुछ सालों में देश की सड़कों पर बार-बार खुलकर प्रकट हुई वह जनाकांक्षा रही, जिसने लोकतंत्र में जन साझीदारी की दरकार के लिए सियासी जमातों के आगे खासा दबाव बनाया। बाकी दलों औरआप में फर्क बस यह रहा कि बाकी ने इस सामयिक दरकार को गंभीरता से नहीं लिया और आप ने इसे अपना एजेंडा बना लिया। यह अलग बात है कि सत्ता की राजनीति में उतरी यह नई पार्टी भी अब अपने इस एजेंडे को लेकर पहले की तरह गंभीर नहीं है।
यह स्थिति उन तमाम दलों के लिए चूक सुधार के एक मौके की तरह है जो कल तक आप के सियासी उदय को अपने लिए कहीं न कहीं खतरा मान रहे थे। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से लेकर कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय ठहराए जाने वाले नेता राहुल गांधी को इस बाबत खासतौर पर ध्यान देना चाहिए। इन दोनों नेताओं पर ही कहीं न कहीं दारोमदार है कि वे लोकसभा चुनाव के एजेंडे को क्या शक्ल देते हैं। जनता पर नहीं बल्कि जनता के साथ मिलकर शासन चलाना, सत्ता का विकेंद्रीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर पहल के साथ अगर देश की दोनों चोटी की पार्टियां अपनी तैयारी और सोच के साथ इस बार जनता के सामने वोट मांगने जाएं तो यह जनभावना के अनुरूप होगा। साथ ही यह देश में पारंपरिक की जगह वैकल्पिक राजनीति के प्रयोग की बड़ी मुश्किल से बनी संभावना को एक अंजाम तक पहुंचाने के ऐतिहासिक अभिक्रम से जुड़ने जैसा भी होगा।
चुनाव के दौरान स्वार्थपूणã गठजोड़ और एक दूसरे के खिलाफ तीखे व घटिया आरोप-प्रत्यारोप का अतिवाद अब निश्चित रूप से दरकना चाहिए। इतिहास और विचार के तमाम सुलेखों को अपने नाम दर्ज होने का दावा करने वाली देश की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों को यह साहस दिखाना चाहिए कि वे एक-दूसरे से बेहतर संभावना के नाम पर भिड़ें न कि घटिया सियासी सलूक के नाम पर।
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