आम आदमी पार्टी की दिल्ली की सरकार जनलोकपाल बिल के नाम पर चली गई। वैसे एक और बिल को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कैबिनेट ने मंजूरी दी थी और अगर जनलोकपाल बिल को विधानसभा की हरी झंडी मिल भी जाती तो पूरी संभावना थी कि कांग्रेस और भाजपा के साथ आप के बीच इस मुद्दे पर रार मचती। जनलोकपाल बिल को तो लेकर खैर देश भर में पिछले कम से कम तीन सालों से चर्चा हो रही है पर स्वराज बिल को लेकर कभी कोई गंभीर बहस नहीं हुई। न ही आप की तरफ से ऐसी कोई पहल हुई और न ही दूसरे दलों ने इस बारे में कोई दिलचस्पी अपनी तरफ से दिखाई।
दरअसल, भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त कानून की दरकार तो महसूस इसलिए की जा रही है कि बीते कुछ दशकों में सरकारी लूट और घोटाले इतने बढ़ गए कि इसे नवविकास की अवधारणा का एक जरूरी तत्व तक बताया जाने लगा। खासतौर पर यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में जिस तरह भ्रष्टाचार के एक के बाद नए मामले खुले उससे यह बहस आम हो गई कि इसके खिलाफ कठोर कानूनी पहल तो होनी ही चाहिए। यह अलग बात है कि यह मांग सरकार के अंदर स्वाभाविक रूप से उठनी चाहिए थी पर इसके लिए सिविल सोसायटी की अगुआई में जनता सड़कों पर उतरी। सरकार को मजबूरन इसके लिए तैयार होना पड़ा पर सिविल सोसायटी के जनलोकपाल बिल के ड्राफ्ट को मानने के बजाय सरकारी दखल की अनुकूलता वाला बिल संसद ने पास कर दिया। अब जबकि देश एक बार फिर से पांच साल के लिए केंद्र की अगली सरकार चुनने जा रहा है तो यह सवाल मौजू हो गया है कि भ्रष्टाचार अगर मौजूदा डेमोक्रेटिक सिस्टम का साइड इफेक्ट है, इसे कानूनी तौर पर रोकने के बजाय व्यवस्थागत परिवर्तन के तौर पर क्यों न देखा जाए। आप की सरकार दिल्ली में इसी दरकार को पूरा करने के लिए स्वराज बिल लाना चाहती थी। चूंकि इसका कोई फाइनल या प्रस्तावित ड्राफ्ट लोगों के सामने नहीं है, इसलिए उसके प्रवधानों पर बहुत बारीकी से कोई बात नहीं हो सकती। हां, विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी की तरफ से जो विस्तृत चुनाव घोषणा पत्र लाया गया था, उसमें इस बारे में जरूर कुछ बातें कही गई हैं। आम आदमी पार्टी की सोच इस मामले में तो जरूर सराहनीय कही जाएगी कि वह कम से कम सैद्धांतिक रूप से सत्ता के केंद्रीय वर्चस्व को तोड़कर एक विकेंद्रित ढांचे की बात करती है।
यह सोच पंचायत राज के प्रयोग से आगे की बात इस लिहाज से है कि इसमें मुहल्ला सभाएं या रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशंस (आरडब्ल्यूए) महज कुछ सरकारी योजनाओं को लागू कराने वाले इंस्ट्रÔमेंट भर नहीं होंगे बल्कि अपने इलाके के विकास से लेकर न्याय और सुरक्षा तक का दारोमदार उनके हाथों में होगा। यही नहीं, अगर क्षेत्र के लोग बहुमत से यह तय करते हैं कि उनके पार्षद या विधायक उनकी अपेक्षाओं के मुताबिक काम नहीं करते तो उन्हें वापस भी बुलाया जा सकता है यानी राइट टू रिकॉल।
गौरतलब है कि जनलोकपाल आंदोलन के दौरान समाजसेवी अण्णा हजारे देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जो एजेंडा जनता के साथ शेयर करते थे, उसमें चुनाव सुधार और लोकतंत्र के विकेंद्रित ढांचे की बात खासतौर पर करते थे। बल्कि वे तो यहां तक कहते थे कि जनलोकपाल बिल के बाद इन्हीं मुद्दों को लेकर संघर्ष करेंगे। अण्णा की इन बातों से ही कहींन कहीं देश में 21वीं सदी के दूसरे दशक के आगाज के साथ वैकल्पिक राजनीति को लेकर भी एक बहस शुरू हुई। यह अलग बात है इस बहस में बहुत ज्यादा दिलचस्पी न तो मीडिया ने दिखाई और न ही जनता ने। ऐसा संभवत: इसलिए भी हुआ कि यह मुद्दा भ्रष्टाचार विरोध की तरह 'कैची’ नहीं था।
शुक्र मानना चाहिए आम आदमी पार्टी और उसके कुछ नेताओं का कि उन्होंने विचार और मुद्दे के स्तर पर इस दरकार को न सिर्फ जीवित रखा बल्कि अपने चुनावी एजेंडे में भी इसे शामिल किया। यह अलग बात है कि अवधारणात्मक रूप से आप का स्वराज भी विकेंद्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था का सटीक मॉडल नहीं है। यह पहल अपनी बनावट में क्रांतिकारी जरूर ठहराई जा सकती है पर यह उस सोच से काफी दूर है जिसके लिए पहले गांधी ने और फिर विनोबा और जयप्रकाश ने राजनीति की जगह 'लोकनीति’ की बात की थी। आप का स्वराज सैद्धांतिक रूप से इस प्रश्न का तो उत्तर देता है कि संसद या सरकार की सर्वोच्चता जनता के ऊपर नहीं हो सकती। पर केंद्रीय सत्ता अपने अधिकारों में कटौती कर एक विकेंद्रित ढांचा खड़ा करे या विकेंद्रित ढांचे के तहत काम कर रही लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने लिए एक नियामक केंद्रीय सत्ता का निर्माण करें, आप इसका न तो उत्तर देती है और न ही यह सवाल उसके लिए जरूरी है। दरअसल, ये दोनों दो स्थितियां हैं और दोनों में एक बड़ा बुनियादी फर्क है।
गांधी जिस तरह के लोकतंत्र की बात करते हैं, उसमें केंद्र से चैरिटी के रूप में लोकतांत्रिक सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं होता बल्कि स्वावलंबी और स्वदेशी की ताकत पर खड़ी हुई ग्राम पंचायतें या स्थानीय निकाय, राष्ट्र और राज्य के रूप में अपनी शिनाख्त को मुकम्मल बनाने के लिए एक केंद्रीय नियामक संस्था का गठन करते हैं। असल में लोकतंत्र को लेकर समझ और सोच का यह फर्क प्रातिनिधिक और प्रतिभाग के लोकतंत्र के बीच का अंतर है।
दुर्भाग्य से देश में लोकतंत्र की बनावट को लेकर बहस और आंदोलन की गुंजाइश को जानबूझकर केंद्रीकृत सत्ता की राजनीति करने वाली सियासी जमातों ने कभी आगे नहीं बढ़ने दिया। कांग्रेस को भंग कर लोक सेवक संघ की गांधी की वसीयत को नेहरू-गांधी परिवार ने याद करने का साहस नहीं दिखाया तो बाद में जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति में शामिल हुए सियासी दलों ने 'जनता सरकार’ की उनकी परिकल्पना को साकार नहीं होने दिया। आप ने इस निराशा से आगे एक आशावादी पहल को जरूर आकार दिया है पर वह जिस तरह की अराजक जल्दबाजी में दिख रही है, उससे उनसे बहुत उम्मीद करना बेमानी होगा।
एक बात और यह कि देश का नया जन-गण-मन परिवर्तन की छटपटाहट से भरा है और यह बीते सालों में कई मौकों पर देखने को मिला है। कमी है तो एक ऐसे सूत्रधार की और समन्वित पहल की जिसमें परिवर्तन का मतलब सरकार बदलने से आगे लोकतांत्रिक तकाजों को नए सिरे से जांचना-परखना और स्थिर करना हो। फिर इसके लिए विधान से लेकर संवधिान तक जो भी बदलना पड़े, उसे बदला जाए। नए भारत का नया गणतंत्र बदलावों की ऐसी बड़ी संभावनाओं को सरजमीं पर उतरने की बाट न जाने कब से जोह रहा है।
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