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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

अपसेट कर गया लांसेट


लांसेट की रिर्पोट हमेशा से ही हंगामाखेज रही हैं। इससे पहले जब उसने युवाओं में लैंगिक रूप में सेक्स प्रवृत्तियों में आए बदलाव का जिक्र किया था, तो आरोप यहां तक लगे थे कि वह कंडोम बनाने वाले एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के लिए काम कर रही है। सेक्स सर्वे चर्चा को सतह पर लाने का आज एक माना हुआ जरिया हो गया है  और इसका इस्तेमाल ठंडे कमरों में क्रांति की आंच पैदा करने वाले एक्टिविस्टों से लेकर मीडिया तक के लिए दौड़ में बने रहने का सबसे आसन्न औजार बन गया है।
बहरहाल, बात लांसेट के हालिया अध्ययनों की। महज कुछ ही दिनों के अंतराल पर उसकी यह दूसरी रिपोर्ट है, जिसने भारत सहित कई देशों की एक ऐसी तस्वीर दुनिया के सामने रखी है, जो न सिर्फ चिंता बढ़ाने वाली है बल्कि आईना दिखाने वाली भी है। दिल्ली में मिलने वाले पेयजल में सुपरबग मिलने के खुलासे पर बवाल अभी थमा भी नहीं था कि इस प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ने यह आकलन छापकर सनसनी मचा दी कि दुनिया में हर रोज सात हजार से ज्यादा मृत बच्चे पैदा होते हैं। दिलचस्प है कि इनमें 68 फीसद मृत बच्चे मारत, चीन और बांग्लादेश सहित दस देशों में पैदा होते हैं। लांसेट ने अपने विश्लेषण में इस समस्या को सीधे आमदनी से जोड़ा है। उसके मुताबिक 98 फीसद मृत बच्चे उन देशों में पैदा हुए जहां आमदनी कम है।
भारत की गिनती भी अगर विपन्नता के मारे ऐसे देशों में होती है तो इसकी वजह  यह नहीं है कि हमारे यहां अरबपतियों या धनकुबेरों की कोई कमी है। फोर्ब्स जो सूचियां दुनियाभर के रइसों की छापती है, उनमें भारतीयों का दबदबा लगातार कायम है। पर अमीरी और संपन्नता की गाढ़ी मलाई जिस दूध-पानी पर तैर रही है, उसकी सचाई अब भी खासी स्याह है। लांसेट के नए खुलासे भी इस तथ्य पर मुहर लगाते हैं। आलम यह है कि जो देश अपनी शिनाख्त को पिछले तकरीबन दो-ढ़ाई दशकों में लगातार एक बड़ी इकोनमी पावर के रूप में शिद्दत से गढ़ने में लगा है, वह कोख में नौ माह तक पलने के बाद एक नवजात को दुनिया का मुंह तक देख पाने की वांछित स्थिति और  सुविधाएं मुहैया कराने में सबसे पिछड़ा है।
विकास का यह कोढ़ कम से कम हमारे उद्यम और संपन्नता के आंकड़ों  और दावों को तो किसी सूरत में मानवीय नहीं ठहराते। अच्छी बात यह है कि अब विकास के इस विरोधाभास को सरकार  और  उसके योजनकार भी नकारने की बजाय मानने लगे हैं तभी तो विकास की सरपट और प्रतिस्पर्धी दौर में मैदान मारने के बजाय बात अब हो रही है इन्कलूसिव डेवलपमेंट यानी समावेशी विकास की। पंचायतों के सशक्तिकरण से विकास योजनाओं को अमली जाम पहनाने के तंत्र का जो विकेंद्रित रूप सामने आया है, उससे अब गैरबराबरी वाले विकास की खाई को पाटने में मदद मिल रही है। पर अभी यह आगाज मात्र है। सरकार को अपने प्रयासों को इस दिशा में अभी और सघन और कारगर बनाना पड़ेगा तभी गांव-देहातों में स्वास्थ्य सुविधा की बात करें या जच्चा-बच्चा की सुरक्षा की, हमारे देश-समाज का हर हिस्सा हर लिहाज से संपन्न, सुरक्षित और  विकसित हो सकेगा। 'गरीबी हटाओ' भारतीय लोकतंत्र में लोकप्रियता हासिल करने का अब तक का सबसे कारगर नारा रहा है। दिल्ली में अभी जो सरकार सत्ता में अपनी दूसरी पारी खेल रही है, उसने भी अपनी सफलता की वजह गांव और गरीब तक पहुंचने वाली मनरेगा जैसी योजना को ही माना है। पिछले कई चुनावों में वोटरों ने तमाम दूसरे वादों के बजाय क्षेत्र के विकास को ज्यादा महत्व देकर अपनी मानसिकता और इरादे में आए फर्क को दर्ज कराया है। क्या अगले कुछ सालों में भारत की खुशहाली का वह चेहरा दुनिया के सामने होगा, जिसमें उसका हर वर्ग, हर इलाका इतना संपन्न आैर खुशहाल हो कि उसका कोई विलोमी पक्ष कहीं से भी रेखांकित न हो। अगर उम्मीद की यह तस्वीर अब भी बेरंग और  बेनूर है तो यह सचमुच एक खतरनाक स्थिति है।        

रविवार, 10 अप्रैल 2011

जन आंदोलनों का जंतर मंतर

जब इस देश के नेताओं में
लूट प्रवृति आम हो गई...
पूछ रही है चंबल घाटी
मैं ही क्यों बदनाम हो गई...

यह गीत बिहार के वरिष्ठ सर्वोदयी साथी रामशरण भाई का है। इसे वे जेपी आंदोलन और बाद के दिनों में गाते थे। डफली के साथ झूम-झूमकर जब वे गाते थे...तो लोग बस उनसे जुड़ते चले जाते थे। उनके इस जादू का साक्षी बिनोवा-जेपी के दौर के लाखों-हजारों लोग से लेकर जेएनयू कैंपस तक रहा है। अपने तकरीबन दस साल के सामाजिक जीवन और शोधकार्य के दौरान रामशरण भाई से कई मर्तबा मिला और उन्हें सुना। एक झोले में एक मोटी बिनाई का कुर्ता-धोती, एक पुरानी डायरी और एक-दो और सामान। उनके साथ उनका जीवन इतना ही सरल और बोझरहित था।
जहां तक मुझे याद है, अपने जीवन में वे दर्जनों संस्थाओं के सैकड़ों अभिक्रमों से जुड़े पर कभी वेतनभोगी नहीं बने। जीवन को जीने का यह कबीराई अंदाज ही था, जो उन्हें आजीवन तत्पर और  कार्यरत तो बनाए रखा पर संलग्नता का मोह कहीं से भी बांध न सका, न परिवार से और न ही संस्था। तभी तो उनके कंठ से जो स्वर फूटे, वे न सिर्फ धुले हुए थे बल्कि सच्चे भी थे। शादी-ब्याह में दिखावे के बढ़े चलन पर उनका गीत याद आता है-
दुई हाथी के मांगै छै दाम
बेचै छै कोखी के बेटा के चाम...
बड़का कहाबै छै कलजुग के कसाई
बाप कहाबै छै कलजुग के कसाई...
एमफिल के लिए चूंकि मैं 'जयप्रकाश आंदोलन और हिंदी कविता' पर काम कर रहा था, लिहाजा आंदोलन के दौर के कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला, जो रामशरण भाई जैसे तो पूरी तरह नहीं, पर थे उनके ही समगोत्रीय। सर्वोदय-समाजवादी आंदोलन में क्रांति गीतों की भूमिका कार्यकर्ता तैयार करने में सबसे जरूरी और कारगर रही है। 'जय हो...' और  'चक दे इंडिया... ' गाकर जो तरुणाई जागती है, उसका 'फेसबुक' कभी भी इतना विश्वसनीय, दृढ़ और जुझारू नहीं हो सकता, जितना किसी आंदोलन की आंच को बनाए और जिलाए रखने के लिए जरूरी है।
दरअसल, रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली में कहें तो 'लोक कल्याण' की 'परंपरा'  या तो आज कहीं पीछे छूट गई है या फिर बदले दौर में इसकी दरकार को ही खारिज मान लिया गया है।  देश में जन गायक और लोक गायक की ऐसी परंपरा का अब सर्वथा अभाव दिखता है। दक्षिण भारत में एक स्वर गदर का सुनाई पड़ता है, जो अपनी सांगठनिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण जन की बजाय कैडर की आवाज ज्यादा  लगती  है।
अन्ना के जंतर मंतर पर चले अनशन के दौरान भी या तो देशप्रेम के फिल्मी गाने बजे या फिर गिटार पर कुछ धुन...आंदोलन का जन चेहरा जन औजारों से ही गढ़ा जा सकता है। रामशरण भाई जैसे जन गायक जिन औजारों से काम करते थे, आज न वैसे हाथ रहे...और न ही ऐसे  हाथों को हुनरमंद करने वाले हालात।


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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

'सत्य' भी हो यह रिकार्ड 'तथ्य'


आंकड़े तथ्य होते हैं और तथ्य तात्कालिक। रही सत्य की बात तो इसके पीछे तथ्य इतना ही है कि इसका आधार और सार दोनों सार्वकालिक, सार्वकालिक और कल्याणकारी होते हैं। बहरहाल, बात उस तथ्य की जो आंकड़े की शक्ल में एक बार फिर हमारे सामने आया है। सरकार खुश है बहुत यह घोषणा करते हुए कि वर्ष 2010-11 के बीच खाद्यान का रिकार्ड उत्पादन होगा। अगर यह अनुमान अचूक तथ्यगत आधारों पर है तो इसका सकारात्मक असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी आने वाले हफ्ते-महीनों में दिखना शुरू हो जाएगा।
एक तरफ जहां खाद्य मुद्रास्फीति की दर गिरने की संभावना जताई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ खाद्य सुरक्षा बिल जैसे अटके मामलों पर सरकारी कदम अब तेजी से बढ़ेंगे, यह उम्मीद भी की जा रही है। पर ये सारी स्थितियां अनुमानित हैं, अभी इन्हें यथार्थ होना है। जहां तक अनाज उत्पादन में स्वावलंबी होने की बात है तो ये स्थिति देश के लिए नई नहीं है। हरित क्रांति के बाद मौसम की जब-तब की बेरुखी को छोड़ दें तो किसानों की मेहनत और पुरुषार्थ हमेशा रंग लाई है। हां, यह जरूर है कि अब हमारा स्वावलंबन रिकार्ड उपलब्धि का आंकड़ा दर्ज करा रहा है।
2010-11 के जुलाई से जून के बीच  23.58 करोड़ टन का अनुमानित खाद्यान्न उत्पादन, ऐसा ही एक रिकार्ड है। इससे पहले देश में 2008-09 में सबसे ज्यादा 23.44 लाख टन खाद्यान का उत्पादन हुआ था। बीच के दो साल में मौसम की मार से अनाज उत्पादन गिरा, सरकारी तर्क यही है और सरकार के बाहर भी इस तर्क पर तकरीबन सहमति है। बीते दो सालों में खाने-पीने की चीजों की महंगाई का रोना कमोबेश आम जनता रोती रही है। बीते 19 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह में भी जो खाद्य मुद्रास्फीति की दर रिकार्ड की गई है, वह 9.5 फीसद है। जाहिर है महंगाई का बोझ कुछ कम हुआ है पर अब भी यह सामान्य दर से ज्यादा है। ऐसे में अगर खाने-पीने की चीजें महंगी होती हैं तो सरकार खाद्यान की कमी या उसके वितरण में गड़बड़ी का बहाना आसानी से नहीं बना पाएगी।
साफ है कि आने वाले दिनों में यह बहुत कुछ सरकारी प्रयासों पर ही निर्भर करेगा कि वह रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन को आम उपलब्धता के रूप में किस तरह तब्दील कर पाएगी। रही बात खाद्य सुरक्षा बिल का तो यह मुद्दा सरकार के एजेंडे में तो जरूर लगातार टंगा हुआ है पर अब भी इसका एक असरकारी कदम के रूप में क्रियान्वयन बाकी है। अनाज उत्पादन में स्वाबलंबी होना और रिकार्ड उपलब्धि की तरफ बढ़ना सरकार को इस दिशा में भी फौरी कार्रवाई के लिए अगर प्रेरित करता है तो यह एक आदर्श स्थिति होगी। पर दुर्भाग्य से खाद्य सुरक्षा बिल के लटकने के पीछे मूल कारण अनाज की उपल्बधता की बजाय वह सरकारी तंत्र है, जो आज तक यह तय ही नहीं कर पाया कि गरीबी का स्तर तय करने का मान्य पैमाना क्या हो और इसके तहत लाभान्वितों की अंतिम संख्या कितनी मानी जाए।
सरकार और राज्य आज तक इस बात पर भिड़ रहे हैं कि बीपीएल परिवारों की सही संख्या क्या है। राज्य ज्यादा केंद्रीय अनुदान की चक्कर में इसे बढ़ाकर पेश करते हैं तो केंद्र के लिए यह मानना नाक कटाने जैसा होता है कि उसके लाख प्रयासों के बावजूद देश में तंगहालों की गिनती बढ़ी है। दरअसल आंकड़ों में 'अनर्थ' को 'अर्थपूर्ण' दिखाने की जुगत अभी इस बात के लिए तैयार ही नहीं है कि सारी आर्थिक सफलता और उन्नति के बीच समाज का एक बड़ा तबका आज भी अनाज, अक्षर और आवास के लिए मोहताज है। रिकार्ड अनाज उत्पादन का सार्थक मतलब तभी है जब ये मोहताजी हमारा मुंह न चिढ़ाए। सरकार का रिकार्ड इस मोहताजी के खिलाफ भी बने तो फिर उसे आंकड़ों के कसीदे अपनी तरफ से पढ़ने की शायद जरूरत भी न पड़े। क्योंकि तब उसकी सफलता 'तथ्य' को लांघकर 'सत्य' हो जाएगी।