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बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

हिंदी की नामवरी ठाठ

अक्षर स्मृति
डॉ. नामवर सिंह (1927-2019)

- प्रेम प्रकाश
एक ऐसे दौर में जब किसी भी तरह के विमर्श और प्रतिरोध को नासमझ वाचालता और असभ्य प्रतिक्रियाओं का फौरी आखेट चुनौती दे रहा है, हिंदी के आलोचकीय विवेक को लोकिप्रियता और स्वीकृति के सबसे ऊंचे आसन तक ले जाने वाले नामवर सिंह का न होना महज एक खबर नहीं है। दरअसल, स्वाधीन भारत की हिंदी चेतना को लोक और परंपरा के साझे के साथ समझने की चुनौती बड़ी रही है। इस बड़ी चुनौती का महत्व आज की तारीख में तब ज्यादा समझा सकता है, जब भाषा, कला और संस्कृति के पूरे विवेक को ही आवारा पूंजी की ताकत गौरजरूरी करार देने पर तुली है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य के रचनात्मक विकास के साथ इस भाषा से जुड़ी संपूर्ण सांस्कृतिक निर्मिति को नामवर जी ने जो आलोचकीय धार दी, वह अद्वीतीय है। 
नामवर सिंह का जन्म 1927 में हुआ था। उनकी तरुणाई और देश की स्वाधीनता को अगर एक साथ देखें तो उस स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है, जब देश के साथ एक प्रखर युवा मन अपनी भाषा, संस्कृति और इतिहास की गोद में अपनी नई शिनाख्त की छटपटाहट से जूझ रहा होगा। गौरतलब है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ 1929 में लिख चुके थे। यानी देश की स्वाधीनता के साथ देश की सबसे प्रमुख भाषा के साहित्य और इतिहास का आलोचकीय निकष गढ़ा जा चुका था। यही नहीं ‘लोकमंगल’ और ‘परंपरा’ जैसे बीज शब्दों के साथ हिंदी रचनात्मकता को देखने-परखने के उपकरण सामने आ चुके थे। आगे अगर कोई चुनौती थी तो इन आलोचकीय उपकरणों के साथ हिंदी की रचनात्मक अस्मिता को और गहरे पहचानने की, उसे नए संदर्भों और नए मुहावरों से लैस करने की।
बड़ी बात यह भी है कि रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा के यहां हिंदी साहित्य की जो आलोचना भक्तिकाल, छायावाद और राष्ट्रीय भावधारा तक आते-आते ठहर जाती है। जाहिर है कि आजादी के बाद के भारतीय समाज के विरोधाभासी यथार्थों के बीच रचे गए नए साहित्य को लेकर आलोचकीय समझ बनाने की चुनौती बड़ी थी। नामवर जी अपने जिन आलोचकीय प्रतिमानों के कारण लोकिप्रय रहे और हिंदी आलोचना के शिखर आलोचक होने तक की स्वीकृति अपने जीते-जी पा गए, उन प्रतिमानों का एक सिरा अगर लोक और परंपरा के मस्तूलों से बंधा है, तो वहीं उसमें समाकालीन जीवन संदर्भों के बीच प्रगतिशील संवेदनात्मक तत्वों को पहचाने का आलोचकीय विवेक भी है।   
हिंदी साहित्य के साथ पूरे हिंदी समाज के लिए यह वाकई बड़े शोक की घड़ी है। हमारे दौर के महत्वपूर्ण कवियों में शामिल मंगलेश डबराल ने कहा भी कि यह हिंदी के प्रतिमानों की विदाई का त्रासद समय है। सोलह महीनों के छोटे से अंतराल में कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, कृष्णा सोबती और अब नामवर सिंह के निधन से जो जगहें खाली हुई हैं वे हमेशा खाली ही रहेंगी।
बनारसे के एक छोटे से गांव जायतपुर में जन्मे नामवर सिंह की चर्चा के साथ दो बातें हमेशा जुड़ी रहेंगी। एक तो उनकी भाषा से लेकर पूरे व्यक्तित्व को अपने गहन में लेनेवाला बनारसीपन और दूसरा अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिली आलोचकीय सीख को अमिट और अपराजेय बनाए रखने की उनकी जीवट जद्दोजहद। उनके व्यक्तित्व के ये दोनों रंग खासे ठेठ हैं। यहां तक कि नामवर जी खुद अपने जीवन संघर्षों के बीच भी इस ठेठ ठसक के साथ ही जीवट बने रहे।
आज पूरे देश में विश्वविद्यालयों में हिंदी विभागों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। नामवर सिंह को भुलाया इसिलए भी नहीं जा सकता क्योंकि उन्होंने स्वाधीन भारत में हिंदी आलोचना और विमर्श के केंद्र में विश्वविद्यालयों को लाने की दरकार को सबसे पहले समझा था। नए दौर में उच्च शिक्षा केंद्रों में हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाए बगैर हिंदी ज्ञान परंपरा का विकास असंभव है, वे इस बात को समझते थे। देश के सबसे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय में अपनी अगुआई में भारतीय भाषा केंद्र की स्थापना कराने और फिर उसे आकादमिक स्वीकृति दिलाने में उनका अध्यापकीय योगदान ऐतिहासिक है।
‘नई कविता’ और ‘नई कहानी’ को लेकर हिंदी आलोचना का जो नया प्रतिमान लेकर नामवर सिंह लेकर आए, वह नए भारतीय समाज और संस्कार के लिए भी एक मार्गदर्शक सिद्धांत की तरह है। यह सिद्धांत हमें लगातार इस बात के लिए आगाह करता रहेगा कि लोक, परंपरा और आधुनिकता हमारी संस्कृति के आलग-आलग टापू नहीं बल्कि एक ऐसी साझी विरासत हैं, जिसमें से एक का भी अलगाव हमें भाषा, समाज और संस्कृति के मजबूत साझेपन से अलग-थलग कर देगा। यह भी कि बात सैद्धांतिक प्रतिबद्धता की हो कि सामाजिक सुधार के आंदोलनात्मक तकाजों की, इनके लिए हमें कहीं और ताकने-निहारने की जरूरत नहीं बल्कि इनके बीज संस्कार हमारी परंपराओं में पहले से हैं।
आज जब नामवर जी हमारे बीच नहीं हैं, तो जो एक बात हमें सबसे ज्यादा सालेगी वह यह कि भाषा को सारस्वत रूप से धन्य करने वाली ऐसी नामवरी प्रतिभा अब हमारे बीच नहीं होगी, जिसने विमर्श और आलोचना को लेखन और पठन-पाठन के साथ वाचिक रूप से लगातार सशक्त बनाए रखा, उसे लगातार नई धार और तेवर देता रहा। 
‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘कहानी नई कहानी’ जैसे लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक के साथ हमारे समय में हिंदी की अस्मिता को गरिमा और स्वीकृति की सबसे समादृत पहचान को खोना, हिंदी भाषा से आगे पूरी हिंदी संस्कृति के लिए एक बड़ा आघात है। यह आघात इसलिए भी बड़ा है क्योंकि हमारे दौर का लोकतांत्रिक सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श आज गहरे संकट में है। संकट की इस घड़ी में नामवर जी के लिखे-कहे की ताकत हमारी चेतना और विवेक के हौसले को हारने नहीं देगी, इस उम्मीद के साथ डॉ. नामवर सिंह को असंख्य हिंदी जनों का साझा नमन।

शनिवार, 26 जनवरी 2019

जिद्दी प्रतिरोध की अक्षर दुनिया


- प्रेम प्रकाश

भारत में महिला लेखन के जरिए स्त्री संघर्ष, चेतना और अस्मिता की जो अक्षर दुनिया पिछले कुछ दशकों में आबाद हुई है, उस दुनिया में रचनात्मक हस्तक्षेप की जो सबसे बड़ी धुरी है, उसे चिन्हित करने में कृष्णा सोबती का बड़ा योगदान रहा है। कृष्णा जी ने महिलावादी आंदोलन की वैश्विकता के बीच स्त्री, समाज और परंपरा को अपने तरीके से एक सीध में रखकर देखा। 1950 में कहानी ‘लामा’ से साहित्यिक सफर शुरू करने वाली इस महान लेखिका ने महिला पक्ष के साथ अपने समय के हस्तक्षेप को भी काफी निर्भीक तरीके से लिखा और बोला। इसलिए उनके लेखन और जीवन की रचनात्मक चौहद्दी को बांधना आसान नहीं है।

उनके लेखन में अगर किसी पहाड़ी नदी की तरह आधी दुनिया की हहराती संवेदना है तो समय और समाज की उस चिंता से भी वह हरसंभव मुठभेड़ करती हैं, जिसके लिए कलम को सीधे-सीधे आंदोलन और प्रतिरोध का हथियार बनना पड़ता है।

यह नहीं कि आज जब कृष्णा सोबती हमारे बीच नहीं हैं, तो उनके लेखन और जीवन को लेकर हम भावनात्मक रूप से अतिरिक्त रूप से विवश या सम्मोहन का शिकार हुए जा रहे हैं, बल्कि यह तो उनके जीते-जी ही हो गया था कि समकालीन भारतीय साहित्य की कोई भी कतार बगैर उनके नाम के पूरी नहीं होती है। उनकी नाक पर चढ़े बड़े ऐनक में हम सब अपनी दुनिया को आलोचकीय विवेक के साथ देखने-समझने के आदी बहुत पहले हो गए हैं।

उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए हम अगर उस दौर की स्थितियों को देखें-समझें, जब वो अपनी स्वीकृति और उभार के लिए संघर्ष कर रही थीं तो साफ दिखता है कि नई कहानी आंदोलन के भीष्म साहनी और कमलेश्वर से लेकर राजेंद्र यादव जैसे नामवर सितारों के बीच एक लेखिका कैसे अपने जिद्दी महिला किरदारों के साथ कथा और जीवन का एक नया साझा रचने का जोखिम उठाती है। हिंदी संवेदना की अक्षर दुनिया में यह एक बड़ा मोड़ ही नहीं, एक साहसी हस्तक्षेप भी था। मृदुला गर्ग से लेकर ममता कालिया, नासिरा शर्मा और उनके बाद की कथाकारों तक यह दुनिया अगर लागातार आबाद और सघन होती चली गई तो इसलिए क्योंकि इस विस्तार को कृष्णा जी पाठकों के बीच बड़ी स्वीकृति दिला चुकी थीं। हिंदी आलोचना ने इस रचनात्मक स्वीकृति के दमखम को भले देर-सबेर पहचाना हो पर स्त्री विमर्श का समकालीन सर्ग आज अगर एक बड़ी आलोचकीय दरकार का नाम है तो इसलिए क्योंकि इसने जीवन और लेखन के पुरुषवादी मिथ को निणार्यक रूप से तोड़ दिया है।

कृष्णा जी को पिछले साल ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। इससे पहले उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के लिए उन्हें वर्ष 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फेलोशिप से भी नवाजा गया था। इसके अलावा पद्मभूषण, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान जैसे अलंकरण उनकी यशस्विता को बढ़ाते हैं। उन्होंने अपने लेखन से हिंदी की कम से कम दो पीढ़ियों को रचनात्मक संवेदना से जोड़ा है। उनके कालजयी उपन्यासों में ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘जिंदगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय सरगम’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘हम हशमत’, ‘बादलों के घेरे’ ने कथा साहित्य को अप्रतिम ताजगी और स्फूर्ति प्रदान की है।

उनकी रचनात्मक सक्रियता के आखिरी दिनों में आई ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ जैसी पुस्तकें ये दिखाती हैं कि वह मौजूदा देशकाल और परिस्थिति को देखते-समझते हुए किस तरह अपने रचनात्मक शिल्प और कथ्य को लगातार विचार और लोकतंत्र की हिफाजत के औजार के तौर पर मांज रही थीं।

18 फरवरी 1924 को गुजरात (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मीं कृष्णा सोबती हमेशा साहसपूर्ण रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती रहेंगी। निजी जिंदगी से लेकर अपने शब्दों की दुनिया को वे लगातार इस काबिल बनाए रखने में सफल रहीं, जिस कारण उनके प्रति सम्मान रखने वालों का समाज हर तरह के इकहरेपन का अतिक्रमण करता है। दिलचस्प है कि यह अतिक्रमण खुद उनके जीवन और लेखन का भी हिस्सा रहा है। 94 साल का जीवन जिस दुनिया में उन्होंने जिया, उसमें जब-जब कोई महिला आजादख्याली की बात करेगी, जब-जब लेखकों-बौद्धिकों की जमात अभिव्यक्ति की निर्भीक आजादी की बात करेगी, तब-तब उनकी स्मृति हमें रचनात्मक ऊर्जा से समृद्ध करती रहेगी।