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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

पत्थर फेंक रहा हूं द्रौपदी

चंद्रकांत देवताले
देवताले पचास के दशक के आखिर में हिंदी कविता जगत में एक हस्तक्षेप के रूप में उभरते हैं और उनका यह हस्तक्षेप आगे चलकर भी न तो कभी स्थगित हुआ और न ही कमजोर पड़ा। देवताले की काव्य संवेदना पर वीरेन डंगवाल की चर्चित टिप्पणी है, कि वे 'हाशिए' के नहीं बल्कि 'परिधि' के कवि हैं। उनकी कविताओं में स्वातंत्रोत्तर भारत में जीवनमूल्यों के विघटन और विरोधाभासों को लेकर चिंता तो है ही, एक गंभीर आक्रोश और प्रतिकार भी है। अपनी रचनाधर्मिता के प्रति उनकी संलग्नता इस कारण कभी कम नहीं हुई कि अपने कई समकालीनों के मुकाबले आलोचकों ने उनको लेकर एक तंग नजरिया बनाकर रखा।
जाहिर है कि इस कारण अर्धशती से भी ज्यादा व्यापक उनके काव्य संसार को लेकर एक मुकम्मल राय तो क्या बनती, उलटे उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और सरोकारों को लेकर सवाल उठाए गए। किसी ने उन्हें 'अकवि' ठहराया तो किसी ने उनकी वैचारिक समझ पर अंगुली उठाई। देवताले के मू्ल्यांकन को लेकर रही हर कसर उन्हें 2012 के साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद पूरी हो जाएगी, ऐसा तो नहीं कह सकते। हां, यह जरूर है कि इस कारण उनको लेकर नई पीढ़ी को एक आग्रहमुक्त राय बनाने में मदद मिलेगी। देवताले को यह सम्मान उनके 2010 में प्रकाशित काव्य संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए दिया गया है। यह उनकी एक महत्वपूर्ण काव्य पुस्तक है, लेकिन सर्वश्रेष्ठ नहीं। 'भूखंड तप रहा है' और 'लकड़बग्घा हंस रहा है', 'पत्थर की बेंच' और 'आग हर चीज में बताई गई थी' जैसे उनके काव्य संकलन उनकी रचनात्मक शिनाख्त को कहीं ज्यादा गढ़ते हैं।
बहरहाल, यह विवाद का विषय नहीं है। वैसे भी अकादमी सम्मान के बारे में कहा जाता है कि यह भले किसी एक कृति के लिए दिया जाता हो, पर यह कहीं न कहीं पुरस्कृत साहित्याकार के संपूर्ण कृतित्व का अनुमोदन है। इस कारण एक उम्मीद यह जरूर बंधती है कि देवताले के काव्य बोध और उनके विपुल कवि कर्म का पुनरावलोकन करने की आलोचकीय दरकार देर से ही सही लेकिन अब पूरी होगी। इस तरह की दरकारों का जीवित रहना और उनका पूरा होना मौजूदा दौर में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि समय, समाज और संवेदना का अंतजर्गत आज सर्वाधिक विपन्नता का संकट झेल रहा है। मानव मूल्यों के विखंडन को नए विकासवादी सरोकारों के लिए जरूरी मान लिया गया है। यह एक खतरनाक स्थिति है पर इस खतरे को रेखांकित करने का जोखिम कोई लेना नहीं चाहता है।
देवताले हिंदी की अक्षर संवेदना को बनाए और बचाए रखने वाले महत्वपूर्ण कवियों में हैं। हिंदी का मौजूदा रचना जगत  सार्वकालिकता के बजाय तात्कालिक मूल्य बोधों को पकड़ने के प्रति ज्यादा मोहग्रस्त मालूम पड़ता है। यही कारण है कि टिकाऊ रचानकर्म का अभाव आज हिंदी साहित्य की एक बड़ी चिंता बनकर उभर रही है। देवताले इस चिंता का समाधान तो देते ही हैं, वे हमें उस चेतना से भी लैस करते हैं, जिसकी दरकार एक जीवंत आैर तत्पर नागरिक बोध के लिए है- 'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा/ आैर मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया/ जो घृणित युद्ध में शामिल हैं।' (पत्थर फेंक रहा हूं)
प्रतिभा राय
2011 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हो गई है और इस बार इसके लिए चुनी गई हैं वरिष्ठ उडि़या कथाकार प्रतिभा राय। प्रतिभा राय भारतीय साहित्यकारों की उस पीढ़ी की हैं, जिन्होंने गुलाम नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में अपनी आंखें खोलीं। लिहाजा, अपनी अक्षर विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें स्वतंत्र लीक गढ़ने का हौसला दिखाया। उडि़या से बाहर का रचना संसार उनके इस हौसले से ज्यादा करीब से तब परिचित हुआ, जब उनका उपन्यास आया- 'द्रौपदी'। भारतीय पौराणिक चरित्रों को लेकर नवजागरण काल से 'सुधारवादी साहित्य' लिखा जा रहा है, जिसमें ज्यादा संख्या काव्य कृतियों की है। कथा क्षेत्र में इस तरह का कोई बड़ा प्रयोग नहीं हुआ।
समाकालीन जीवन के गठन और चिंताओं को लेकर एक बात इधर खूब कही जाती है कि साहित्य के मौजूदा सरोकारों पर खरा उतरने के लिए अब 'बिंबात्मक' औजार से ज्यादा जरूरी  है- 'कथात्मक हस्तक्षेप'। मौजूदा भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जारी दुराग्रहों पर हमला बोलने के लिए राय ने इस दरकार को समझा। 'द्रौपदी' में वह विधवाओं के पुनर्विवाह को लेकर सामाजिक नजरिया, पति-पत्नी संबंध और स्त्री प्रेम को लेकर काफी ठोस धरातल पर संवाद करती हैं। इस संवाद में वह एक तरफ जहां पुरुषवादी आग्रहों को चुनौती देती हैं, वहीं भारतीय स्त्री के गृहस्थ जीवन को रचने वाली विसंगतिपूर्ण स्थितियों पर भी वह संवेदनात्मक सवाल खड़ी करती हैं।
बहरहाल, 'द्रौपदी' उपन्यास की रचयिता का रचना संसार काफी विषद और विविधतापूर्ण है। कथा साहित्य की विविध विधाओं के साथ कविता के क्षेत्र में भी वह अधिकारपूर्वक दाखिल हुई हैं। यही कारण है कि आज जब उन्हें भारतीय साहित्य क्षेत्र के सर्वाधिक सम्मानित आैर मान्य पुरस्कार के लिए चुना गया है तो निर्णय प्रक्रिया की तटस्थता पर भी कोई सवाल नहीं उठ रहा है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि सुप्रसिद्ध उडि़या लेखक डॉ. सीताकांत महापात्र चूंकि ज्ञानपीठ चयन समिति के अध्यक्ष थे, इसलिए प्रतिभा राय के कृतित्व पर विचार करने और सर्वसम्मत निर्णय लेने में सहुलियत हुई होगी।
राय को इससे पूर्व साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ का ही एक और महत्वपूर्ण पुरस्कार मूर्तिदेवी सम्मान मिल चुका है। लिहाजा उनके साहित्य को नए सिरे अनुमोदित होने की जरूरत नहीं है। उनका रचनाकर्म अभी न तो थका है और न ही विराम के करीब है, इसलिए उनसे आगे और महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों की उम्मीद की जा सकती है।     

रविवार, 30 दिसंबर 2012

रविशंकर : हमारी स्थानीयता वैश्विकता के खिलाफ नहीं


चेतना और स्वतंत्रता की जो नई जमीन तैयार दुनिया में 50-60 के दशक में हो रही थी, उसमें राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा ही नहीं संस्कृति भी एक बड़े औज़ार के रूप में काम कर रही थी। पंडित रविशंकर की नब्बे साला जिंदगी पर नजर डालें तो यह बात ज्यादा समझ में आती है। रविशंकर से पहले उनके अग्रज उदयशंकर नृत्य की तमाम शैलियों को लेकर नर्तन की एक नई सर्वसमावेशी शैली को रच रहे थे। उनका प्रयोग स्थानीयता के प्रभाव से मुक्त एक ग्लोबल प्रयोग था। 18 साल की उम्र तक रविशंकर अपने अग्रज के साथ रहे। लेकिन नृत्यकला में वैश्विक पहचान बनाने की हुलस अचानक ही बदल गई और उन्होंने सितार के तारों को अपनी आत्मा की आवाज बनाने का निर्णय कर लिया। करियर आैर सक्सेस के प्रतिस्पद्र्धी दौर में इस निर्णय के पीछे की शिद्दत को समझना थोड़ा कठिन है। रविशंकर के लिए यह निर्णय महज अपने रास्ते अपनी मंजिल पाने की धुन भर नहीं थी।
नृत्य का साथ छोड़कर वादन क्षेत्र में आने का फैसला उनके अग्रज के प्रयोगों का ही एक नया विस्तार था। अपने समय और परिवेश के साथ संवादी रिश्ते के साथ रविशंकर को यह भी लगा कि जब तक वे प्रशिक्षण से आगे साधना के रूप में संगीत से नहीं जुड़ेंगे, तब तक उनका संगीत 'अनहद' तक नहीं पहुंच पाएगा। साधना की इस शपथ को उन्होंने मैहर वाले बाबा अल्लाउद्दीन खान की शार्गिदी में और पक्का कर लिया।  फिर क्या था, सितार और रविशंकर इस तरह एक-दूसरे के पर्याय बने कि विश्व संगीत जगत भी दंग रह गया।
दिलचस्प है कि उनकी पैदाइश बनारस की थी और बनारस के बारे में कहा जाता है कि यहां की माटी-पानी का असर जिंदगी भर नहीं जाता। आज भारतीय संगीत के इस महान जादूगर के निधन पर जब भारत के साथ पूरी दुनिया उनके जीवन के स्वर्णिम सर्गों को याद कर विस्मित हो रही है, तो संगीत के भारतीय घराने की परंपरा, शैली और संभावना पर भी नए सिरे से बात हो रही है। भारत रत्न, मैग्सेसे और तीन बार ग्रैमी सम्मान से नवाजे गए रविशंकर को बीटल्स के जार्ज हैरिसन अगर विश्व संगीत के गॉडफादर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने भारतीय संगीत परंपरा का साथ छोड़ धुन और साज की कोई नई वैश्विक समझ पा ली थी।
दरअसल, प्राच्य दर्शन की तरह प्राच्य संगीत भी नस्ल और सरहद की दायरेबंदी से आजाद रहा है। विश्व मानवता और उनके बीच के समन्वय, सहयोग और सौहार्द को और प्रगाढ़ करने के लिए संगीत भी एक क्रांतिकारी जरिया हो सकता है, पंडित रविशंकर ने अपनी संगीत साधना से सिद्ध करके दिखाया। आज जब ग्लोबल भाषा, व्यापार और सूचना तंत्र की बात होती है और उसमें भारत की दखल पर जोर दिया जाता है, तो लोग यह भूल जाते हैं कि भारत अपनी तरह से इस तकाजे पर शुरू से खरा उतरता आया है। यह सबक है, उन तमाम लोगों के लिए जो यह मानते हैं कि उत्तर-आधुनिकता की सीढि़यां लोक और परंपरा की भारतीय सीख के साथ नहीं चढ़ी जा सकती है।
कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर एमएफ हुसैन और पंडित रविशंकर तक भारत की यशस्वी सांस्कृतिक परंपरा एक ही बात बार-बार दोहराती है कि हमारी स्थानीयता वैश्विकता के खिलाफ नहीं बल्कि उसकी पूरक है, उसकी संवाहक है।   

रविवार, 4 नवंबर 2012

एक भट्टी का शांत हो जाना


मौजूदा दौर की एकिक और सामूहिक मानवीय प्रवृतियों पर गौर करें तो कहना पड़ेगा कि यह दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का है। साझे के इस मांझे में ही निजी से लेकर सार्वजनिक जिंदगी उलझी हुई है। सुलझाव की कोशिशें इतनी सतही और बेइमान हैं कि उलझन में और नई गांठ ही पड़ती जा रही हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य-व्यंग्य की चुटीलता भोंडेपन में तब्दील हो रही है।
ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो थी ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे।
जसपाल भट्टी ने पढ़ाई तो इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से ही थी, जो बाद में और प्रखर हुई। भट्टी का हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से लैश था और उनकी चिंता के केंद्र में आम आदमी हमेशा रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल खड़े किए।
नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक कार्टूनिस्ट के तौर पर हुआ। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी 'द ट्रिब्यून' अखबार के लिए कार्टून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और कार्टून और व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोल रहे लोग शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे।
जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों, टेलीविजन सीरियलों और फिल्मों में उठाते थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक जरूर किया पर खुद भट्टी कभी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही यह उन लोगें के आगे एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही अपनी जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि भट्टी का वयक्तित्व पंजाबियत की रंग में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी यह पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी तरफ खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए।

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

बुद्ध के खिलाफ युद्ध...!

एक दशक पूर्व जब अफागानिस्तान में तालिबानियों ने बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को नष्ट कर अपनी बर्बरता दिखाई थी तब इसकी चौतरफा आलोचना हुई थी। यहां तक कि इस्लाम के नाम पर आतंकी गतिविधियां चलाने वाले समूहों में भी इस कार्रवाई को लेकर मतभेद उभरे थे। एक दशक बाद एक बार फिर पूरी दुनिया में धार्मिक असंवेदनशीलता का एक नया दौर शुरू हुआ है। पैगंबर मोहम्मद की कथित आलोचना वाली अमेरिकी फिल्म 'इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स' के खिलाफ पूरी दुनिया में प्रतिरोध में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। आगजनी हो रही है। खून-खराबे हो रहे हैं। प्रतिरोध के ये स्वर संयुक्त राष्ट्र तक गूंजे। अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस मुद्दे पर जहां अपनी सफाई रखी, वहीं यह कहकर मामले को एक तरह से तूल भी दे दी कि किसी धर्म विशेष की निंदा-आलोचना पर मुखर होने वालों को बाकी धर्मों के प्रति भी समान नजरिया अपनाना चाहिए। यह एक भड़काने वाला बयान भले न सही पर इससे अमेरिकी फिल्म से दुनिया भर में भड़के आक्रोश को और बढ़ाया ही।
वैसे धर्म के नाम पर होने वाले प्रतिरोध की दलीलों और वजहों को तो फिर भी समझा जा सकता है। आखिर धार्मिकआस्था एक संवेदनशील मुद्दा है और किसी को भी जानबूझकर इसे भड़काने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। पर अफसोसनाक यह है कि प्रतिरोध की इस आड़ में लूटमार और हिंसा की बड़ी घटनाएं भी होती हैं।  दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि अकसर ऐसे मौकों पर समाज के कुछ अराजक तत्व सक्रिय हो जाते हैं और वे शांति और सौहार्द का माहौल बिगाड़ने लगते हैं।
बांग्लादेश में जो घटना घटी उसमें कथित तौर पर एक बौद्ध धर्मावलंबी ने अपने फेसबुक एकाउंट में पवित्र कुरानशरीफ की जली प्रति की तस्वीर पोस्ट कर दी थी। हालांकि ऐसा करने वाले ने इसे जानबूझकर किया गया कृत्य न मानकर एक चूक बताया है। बावजूद इसके वहां की बहुसंख्यक आबादी इस बात पर भड़क उठी। आधी रात के बाद वहां हजारों लोग इस कृत्य के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। इस दौरान ही कुछ अराजक मानसिकता के लोगों ने वहां कम से कम 11 बौद्ध मंदिरों को जला डाला। इस घटना ने बामियान की एक दशक पुरानी घटना की याद ताजा कर दी है।
अभी पिछले साल ही खबर आई थी कि जर्मनी के म्युनिख विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर और उनके कुछ साथी शोधार्थियों ने बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को पुनस्र्थापित करने की पहल शुरू की है। ये लोग शांति का संदेश देने वाली इन ऐतिहासिक प्रतिमाओं का महत्व इस रूप में देख रहे थे कि इनकी उपस्थिति से विश्व मानवता का प्रेम और सौहार्द का संकल्प मजबूत होता है।
दिलचस्प है कि पूरी दुनिया में जहां-जहां भी बौद्ध धर्मावलंबी हैं, उनका नाम शायद ही कभी धार्मिक टकराव की किसी घटना में आया हो। जिस बांग्लादेश में बौद्ध मंदिरों को जलाया गया, वहां तो उनकी बमुश्किल एक फीसद आबादी है। इससे पूर्व वहां कभी धार्मिक हिंसा की खबर आई भी है तो वह बहुसंख्यक मुस्लिमों और अल्पसंख्यक हिंदुओं के कारण। बौद्धों के प्रति किसी दूसरे मजहब के लोगों के आक्रोशित होने की ऐसी खबर अब तक  दुनिया के किसी हिस्से से आई संभवत: पहली खबर है। साफ है कि धार्मिक असहिष्णुता का पागलपन अगर हम नहीं रोक पाते हैं तो इसका अनिष्ट भविष्य में और भी बड़ा हो सकता है। 

रविवार, 30 सितंबर 2012

महात्मा @ कुलकर्णी

रंग-बिरंगे मुखौटों का अट्टाहास
गूंज रहा है मैलोड्रामा के बीच
नस्ल की रोशनाई
फौलाद को गुस्ताख कहने वाली सोच की शमशीर
 कहीं भी लिख देती है लाल लथपथ गाथा
पर अजन्मी रह जाती है हर बार
आखिरी आदमी की पहली पुकार
महात्मा फिर एक बार
...


सुधींद्र कुलकर्णी महज एक भाजपा कार्यकर्ता भर नहीं हैं। उनकी पहचान पार्टी की विचारधारा और रणनीति बनाने वाले की रही है। यह भूमिका वह पिछले कई सालों से निभा रहे हैं। एनडीए सरकार के दौरान उनकी यह भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई थी। पिछली बार उनका नाम तब जोर-शोर से सामने आया था, जब 'वोट फॉर नोट' मामले का पर्दाफाश हुआ। तुलनात्मक दृष्टि से चीजों को देखने-परखने वाले उन्हें भाजपा का सैम पैत्रोदा तक कहते हैं। यह तुलना सही हो या नहीं, इतना जरूर है कि भाजपा शिविर में वैचारिक-बौद्धिक प्रखरता का बहुत बड़ा दारोमदार उन पर है और वे इस प्रखरता को अपनी तरह से बनाए-बचाए हुए भी हैं।
उनकी इसी प्रखर सक्रियता की मिसाल है, उनकी नई अंग्रेजी किताब- 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिंग व्हील'। इस किताब में कुलकर्णी ने इंटरनेट की भूमिका और प्रसार का गांधीवादी प्रतिमानों पर रोचक आलोचना की है। आईडिया के लिहाज से यह प्रयास बेजोड़ है। निश्चित रूप से इससे इंटरनेट को सामने रखकर एक नवीन सभ्यता विमर्श को शुरू करने में मदद मिलेगी। बात गांधी और सभ्यता विमर्श की हो रही है, तो यह जिक्र भी जरूरी है कि गांधी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' को उनकी 'मूल विचार सारिणी' कहा जाता है। एक सदी पूर्व इस पुस्तक को 'सभ्यता विमर्श' की अहिंसक कसौटी के रूप में देखा गया था, तो आज इसे बजाप्ता 'नव सभ्यता विमर्श' के रूप में प्रासंगिकता के साथ देखा-समझा जा रहा है।
इस सिलसिले में वरिष्ठ लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल की हाल में आई पुस्तक 'हिंद स्वराज : नव सभ्यता विमर्श' का उल्लेख जरूरी है। दिलचस्प है कि 'हिंद स्वराज' में जहां अहिंसक स्वाबलंबन और विकेंद्रीकरण को शांति और विकास का रास्ता बताया गया है, वहीं भारी मशीन और मानव श्रम की अस्मिता को खंडित करने वाले केंद्रित उपक्रमों को खतरनाक ठहराया गया है। कुलकर्णी ने इंटरनेट को गांधीवादी मू्ल्यों पर न सिर्फ खरा पाया है, बल्कि इसे गांधी के 'आधुनिक चरखे' का नाम तक दिया है। इंटरनेट को लेकर यह निष्कर्ष दिलचस्प भले हो पर जल्दबाजी और असावधानी में निकाला गया नतीजा है।
इंटरनेट बाजारवादी दौर की तो देन है ही बाजार के पराक्रम को बढ़ाने वाला एक प्रमुख अस्त्र भी रहा है। आम आदमी के जीवन में महत्व और 'न्यू मीडिया' जैसी संभावनाओं को अगर इंटरनेट क्रांति का कल्याणकारी हासिल मान भी लें तो भी इसे अहिंसक कसौटी पर कबूल कर पाना मुश्किल है। गांधी के 'सत्याग्रह' का 'विग्रह' महज एक सदी बीतते-बीतते कम से कम इस धरातल पर तो नहीं हो सकता कि समय के साथ गांधीवादी मूल्यों में जोड़-तोड़ और सुधार संभव हैं। 

रविवार, 16 सितंबर 2012

मीडिया पर मनमोहन उपदेश

विपक्ष को अपने मौजूदा प्रधानमंत्री से अन्य शिकायतों के साथ एक बड़ा शिकायतयह है कि वे मुखर नहीं हैं। पिछले दिनों अपनी खामोशी पर मनमोहन  सिंह ने एक शायराना जवाब भी दिया था। प्रधानमंत्री चूंकि बोलते ही बहुत कम हैं इसलिए जब वे कुछ कहते भी हैं तो लोग उसके निहितार्थ को बहुत दूर तक या तह तक जाकर समझने की कोशिश करते हैं। आमतौर पर ऐसी स्थिति में कई बातें सामने आ जाती हैं और फिर उस पर बाजाप्ता बहस छिड़ जाती है।
ऐसा ही एक मौका बीते दिनों आया, जब मनमोहन सिंह ने मीडिया को उसके दायित्वों और चुनौतियों की याद दिलाई। मौका था केरल श्रमजीवी पत्रकार संघ के स्वर्ण जयंती समारोह के शुभारंभ का। आज सरकार जिस स्थिति में चल रही है और वह खुद जिस तरह की आलोचनाओं से घिरी है, उसमें उसके मुखिया द्वारा अकेले मीडिया को संयम और समन्वय का पाठ पढ़ाना गले के नीचे नहीं उतरता। ऐसा इसलिए नहीं कि भारतीय मीडिया को अपनी आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है और वह अपने को सुधारों से ऊपर मानता है, बल्कि इसलिए क्योंकि जब प्रधानमंत्री उसे 'सनसनीखेज' बनने से बचने की सलाह देते हैं तो लगे हाथ वे अपनी पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को जबानी संयम का सबक याद कराना भूल जाते हैं।
अन्ना आंदोलन से लेकर असम हिंसा और कार्टूनों पर लंबे चले विवाद तक कई ऐसे मौके आए जब यह संयम अनजाने नहीं बल्कि जानबूझकर तोड़ा गया। वैसे इस मामले में कांग्रेस पार्टी पर अकेला दोष मढ़ना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि आज हम कटुता और असंवेदनशीलता के सामाजिक-राजनीतिक दौर में जी रहे हैं। मीडिया के आईने में जो जैसा है, उसकी वैसी ही छवि दिखती है। यह अलग बात है कि लोग अपनी विद्रूपता को छोड़ दूसरों के दोषों को गिनाने में दिलचस्पी ज्यादा लेते हैं। आलम तो यह है कि संवैधानिक संस्थाएं ही एक-दूसरे की छवि म्लान कर रही हैं।
जहां तक बात है असम समस्या की -जिसका हवाला खासतौर पर प्रधानमंत्री ने दिया है- तो मीडिया में वहां की खबरों को लेकर शुरुआती तथ्यात्मक त्रुटियां जरूर रहीं, पर उसे बगैर और समय गंवाए सुधार भी लिया गया। बल्कि मीडिया को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने इस समस्या की गंभीरता को समझा और इसे राष्ट्रीय चिंता से जोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। रही बात सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए अफवाहों और भ्रामक प्रचारों की तो, यह नाकामी सरकार और उसकी एजेंसियों की रही, जिसे इस बारे में समय से पता ही नहीं चला।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री उपदेश का उल्लू अगर सिर्फ मीडिया का नाम लेकर सीधा करना चाहते हैं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं। उलटे उनकी ही सोच और विवेक पर दस सवाल और खड़े हो जाएंगे। 

रविवार, 9 सितंबर 2012

सोशल मीडिया को अराजक कहने से पहले

सरकार ने एकाधिक मौकों पर यह चिंता जाहिर की है कि सोशल मीडिया का अराजक इस्तेमाल खतरनाक है और इस पर निश्चित रूप से रोक लगनी चाहिए। हाल में असम हिंसा में अफवाह और भ्रामक सूचना फैलाने के पीछे भी बड़ा हाथ सोशल मीडिया का रहा है, यह बात अब विभिन्न स्तरों पर पड़ताल के बाद सामने आई है। इसी तरह का एक दूसरा मामला है, जिसमें पता चला कि लोग पीएमओ के नाम पर ट्वीटर पर फेक एकाउंट खोलकर लोगों में भ्रम फैला रहे हैं। इससे पहले सरकार ने शीर्षस्थ नेताओं को लेकर आपत्तिजनक गुस्से को लेकर इस तरह की साइट चलाने वाले फर्मों को नोटिस तक थमाया था। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सोशल मीडिया पर सरकार की नीति और कार्यक्रमों पर टिप्पणी की तल्खी अब बढ़ती जा रही है। इसका फायदा अन्ना आंदोलन को भी मिला। आंदोलन की रणनीति बनाने वालों ने लोगों को सड़क पर उतारने के लिए एसएमएस के अलावा सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया। 
बहरहाल, सरकार एक बार फिर जहां साइट प्रबंधनों को इस बाबत चेताने की सोच रही है, वहीं वह अपने उन तामम विभागों को जो सोशल साइटों का किसी भी रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें ताकीद किया है कि वे इन पर गोपनीय व अपुष्ट तथ्य न डालें। सवाल यह है कि क्या साइबर क्रांति की देन अभिव्यक्ति की इस नई स्वतंत्रता के खतरे क्या आज सचमुच इतने बढ़ गए हैं कि बार-बार उस पर नकेल कसने की बात उठने लगी है।
दरअसल, सोशल मीडिया के स्वरूप और विस्तार को लेकर पिछले कुछ सालों में कई स्तरों पर बहस चल रही है। एक तरफ अरब मुल्कों का अनुभव है, जहां आए बदलाव के 'वसंत' का यह एक तरह से सूत्रधार रहा तो वहीं अमेरिका की इराक, ईरान और अफगानिस्तान को लेकर विवादास्पद नीतियों पर तथ्यपूर्ण तार्किक अभियान पिछले करीब एक दशक से 'न्यू मीडिया' के हस्तक्षेप को रेखांकित कर रहा है। इसके अलावा मानवाधिकार हनन से लेकर पर्यावरण सुरक्षा तक कई मुहिम पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति के इस ई-अवतार के जरिए चलाई जा रही है। ऐसे में यह एकल और अंतिम राय भी नहीं बनाई जा सकती कि सोशल नेटवर्किंग साइटों का महज दुरुपयोग ही हो रहा है।
समाज और सोच की विविधता का अंतर और असर सिनेमा से लेकर साहित्य तक हर जगह दिखता है। यही बात सोशल मीडिया को लेकर भी कही जा सकती है। फिर जिस रूप में भूगोल और सरहद की तमाम सीमाएं लांघकर इसका विकास और विस्तार हो रहा है, उसमें इसके कानूनी दायरे को स्पष्ट रूप से रेखांकित कर पाना भी किसी देश के अकेले बूते की बात नहीं है। कोशिश यह होनी चाहिए की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस बड़े जरिए को लेकर दुनिया के तमाम देश मिलकर एक साथ मिल-बैठकर कोई राय बनाएं। यहां यह भी गौरतलब है कि अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा आज एक तरफ अत्यंत मुखरता के कारण चर्चा में है तो वहीं जन-अभिव्यक्ति और जनपक्षधरता की अभिव्यक्ति की गर्दन पर फांस चढ़ाने की कोशिश दुनिया की कई लोकप्रिय सरकारें कर रही हैं। ऐसे में नियम-कायदों की कमान थामने वालों को भी अपने चरित्र से कहीं न कहीं यह दिखाना होगा कि अपनी जनता के बीच उतना इकबाल इतना भी कमजोर नहीं कि उसे कुछ क्लिक और कुछ पोस्ट डिगा दें।   

रविवार, 19 अगस्त 2012

कहां खो गए एक लाख बच्चे...!

अगर देश में महज दो सालों के भीतर एक लाख से ज्यादा बच्चे लापता हुए हैं, तो यह सचमुच एक बड़े खतरे का संकेत है। बच्चों को लेकर परिवार और समाज में बढ़ी असंवेदनशीलता का यह एक क्रूर पक्ष है। भूले नहीं होंगे लोग कि देश में 42 फीसद बच्चों के कुपोषित होने की सचाई का खुलासा करने वाली 'हंगामा' रपट जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सार्वजनिक तौर पर अपनी शर्मिंदगी जाहिर करनी पड़ी थी। तब उन्होंने कहा भी था कि अगर बच्चों को इस हाल में छोड़कर सफलता और संपन्नता के सोपान चढ़ रहे हैं तो यह विकास इकहरा ही होगा। विकास को सर्व-समावेशी बनाने की दरकार चर्चा और बहस में तो खूब कबूली गई पर इसे लोकर ठोस कार्यनीति बनाने की बात अब भी बाकी है। 
'हंगामा' की तरह ही तरह प्रथम संस्था द्वारा जारी 'असर' रपट से यह सचाई सामने आई कि कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन की दर तो बढ़ गई पर उनकी नियमित शिक्षा में यही बढ़त कहीं से भी जाहिर नहीं होती है। साफ है कि बच्चों को लेकर लापरवाही न सिर्फ सरकारी नजरिए में है बल्कि सरकारी योजनाएं भी ऐसी कमियों से बचे नहीं हैं। इन कमियों के रहते वह सूरत तो कहीं से बदलने नहीं जा रही, जो राष्ट्रीय शर्मिंदगी जैसी स्थिति के आगे देश को खड़ी करती हैं।
बच्चों के लापाता होने के आंकड़े भी देश को शर्मसार करने वाले हैं। बाल गुमशुदगी के सामने आए आंकड़ों का स्रोत कोई गैरसरकारी एजेंसी नहीं बल्कि केंद्रीय गृह मंत्रालय है। मंत्रालय के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक 2008-2010 के बीच देश के 392 जिलों से एक लाख 17 हजार 480 बच्चे लापता हुए हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें मानव तस्कर गिरोह ने शिकार बनाया है। यह गिरोह या तो बच्चों से बंधुआ मजदूरी करवाता है या फिर उन्हें जिस्मफरोसी के दलदल में उतार देता है। यही नहीं सीमावर्ती जिलों में जिस तरह बच्चों के लापता होने की घटनाएं बढ़ी हैं, वह बच्चों के साथ ही हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।
हमारे यहां ऐसी कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं है, जो मानव तस्कर गिरोहों के देश और देश के बाहर घने होते जाल को लेकर अलग से सूचनाएं एकत्रित करे और इन पर लगाम कसने के लिए अभियान चलाए। नतीजतन जो बच्चे लापता हुए हैं, उनका कोई एकत्रित डाटाबेस तक अब तक तैयार नहीं हो पाया है, जिनसे उन्हें ढूंढ़ने की कोशिशों को स्थानीय स्तर से आगे बढ़ाने में तमाम तकनीकी व कानूनी बाधाएं सामने आती हैं। सरकारी स्तर पर ऐसे सुझाव जरूर विचाराधीन हैं कि बाल अपराध से जुड़े हर तरह आकड़ों को कंप्यूटर-डाटाबेस में बदला जाए और डीएनए प्रोफाइल तैयार हो। खासतौर पर गुमशुदा बच्चों की छानबीन के लिए एक समन्वित केंद्रीय एजेंसी बनाई जाए। पर ये सुझाव अमल में कब आएंगे, इसका कोई स्पष्ट जवाब सरकार के पास नहीं है।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

ओबामा का श्याम-श्वेत


अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में सौ से भी कम दिन रह गए हैं। जो हालिया सर्वे वहां हुए हैं, उसमें बराक ओबामा अपने प्रतिद्वंद्वी मिट रोमनी पर बढ़त बनाए हुए हैं। आज की तारीख में अमेरिका में अन्य किसी मुद्दे से बड़ा मुद्दा है आर्थिक संकट। तकरीबन 36 फीसद अमेरिकियों को भरोसा है कि ओबामा में ही वह दमखम और विवेक है, जिससे इस चुनौती से निपट सकता है। वैसे इस चुनाव को हार-जीत से अलग कुछ अन्य संवेदनशील मुद्दों की रोशनी में भी देखा जाना चाहिए। दिलचस्प है कि ओबामा भले अपने नेतृत्व की सर्व-स्वीकार्यता के लिए शुरू से सजग रहे हों पर अब भी अमेरिका सहित बाकी दुनिया में उनकी एक बड़ी छवि अश्वेत राजनेता की भी है। जब पहली बार वह राष्ट्रपति बने तो उनकी जीत को अमेरिकी समाज के उस लोकतांत्रिक खुलेपन के रूप में भी देखा गया, जिसमें एक अश्वेत भी व्हाइट हाउस में दाखिल हो सकता है। कुछ लोगों की यह शिकायत है कि ओबामा ने अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ खास नहीं किया, जिससे अमेरिकी समाज में अब भी विभिन्न मौकों और सलूकों में जाहिर होने वाली नस्लवादी मानसिकता को बदला जा सके।
हाल का ही एक मामला है, जिसमें वहां एक चर्च के पादरी ने एक अश्वेत जोड़े का विवाह कराने से मना कर दिया। यह जोड़ा मिसीसिपी के क्रिस्टल स्प्रिंग्स में फस्र्ट बैपटिस्टि चर्च में जाता रहा था लेकिन श्वेतों की प्रधानता वाले इस चर्च ने दबाव में आकर शादी की तय तारीख से एक दिन पूर्व अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर दिया। दलील यह दी गई कि 1883 में स्थापित होने के बाद से इस चर्च में आज तक किसी अश्वेत जोड़े की शादी नहीं कराई गई है। पादरी स्टैन वीदरफोर्ड ने कहा कि चर्च के कुछ सदस्यों ने पहले से चली आ रही परंपरा को तोड़ने के प्रति सख्त एतराज जताया। इन लोगों ने पादरी को धमकाया कि अगर उसने परंपरा भंजन का दुस्साहस किया तो उसे पादरी पद से हटाया तक जा सकता है।
देखने में यह भले एक आपवादिक मामला लगे पर अमेरिकी समाज की वास्तविकता इससे बखूबी उजागर होती है। श्वेत-अश्वेत का मुद्दा अब भी वहां विवाह जैसे फैसलों को प्रभावित करते हैं। वहां की कुल आबादी में अश्वेतों की गिनती 13 फीसद है। ओबामा की 2008 की जीत में इस आबादी के 96 फीसद वोट ने बड़ी भूमिका निभाई थी। अब जबकि  ओबामा ने मुख्यधारा की या यों कहें कि कथित नए और खुले अमेरिकी समाज की नुमाइंदगी के नाम पर समलैंगिक संबंधों तक पर अपनी पक्षधरता जाहिर करने में हिचक नहीं दिखाई है तो उनका अश्वेत वोट बैंक इससे काफी खफा है। पर वहां की अश्वेत आबादी के पास इस संतोष और फख्र का कोई विकल्प नहीं है कि वह एक अश्वेत की जगह किसी दूसरे को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाए। अमेरिकी अश्वेत समाज का यह धर्मसंकट बराक ओबामा के दोबारा राष्ट्रपति बनने की राह को और आसान बना सकता है।

रविवार, 5 अगस्त 2012

घोषणापत्र : ऐसी चुनावी रुढि़ की क्या जरूरत

अपने यहां चुनाव का सीजन कभी खत्म नहीं होता। ग्राम पंचायत और निकाय चुनाव से लेकर आम चुनाव तक कुछ न कुछ हमेशा चलते रहता है। नहीं कुछ तो बीच में सीट खाली होने के कारण उपचुनाव ही हो जाते हैं। यह मांग पुरानी है कि एक समन्वित व्यवस्था बने ताकि कम से कम सारे स्थानीय चुनाव के एक साथ करा लिए जाएं। इसी तरह लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होने की अनिवार्यता हो तो यह न सिर्फ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में होगा बल्कि इस कारण चुनावी राजनीति की चिकचिक से भी जनता को थोड़ी निजात मिलेगी।
इसी तरह का एक और मुद्दा चुनाव के मौके पर राजनीतिक दलों द्वारा जारी किए जाने वाले चुनाव घोषणापत्र से जुड़ा है। आमतौर पर जनता के लिए अब इन घोषणापत्रों का कोई महत्व नहीं रह गया है। वैसे भी इन घोषणापत्रों के जारी होने का परंपरागत महत्व भले हो पर इनका कोई संवैधानिक महत्व नहीं होता। यहां तक कि चुनाव आयोग भी इसे कोई महत्व नहीं देता। पर बावजूद इसके कुछ मौकों पर इन घोषणापत्रों से बड़े-बड़े चुनावी खेल आज भी बनते-बिगड़ते हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। इससे पहले तमिलनाडु में भी चुनाव हुए थे। इन दोनों विधानसभा चुनावों के नतीजों में विजयी दल के घोषणापत्र मतदाताओं को काफी रास आए, नतीजों के विश्लेषण में ऐसा कई चुनाव विश्लेषकों ने कहा। पर यह इस बात के लिए पर्याप्त आधार नहीं है कि जनता किसी दल को या उनके दल के निर्वाचितों को चुनाव घोषणापत्र का पूरी तरह या आंशिक रूप में पालन के लिए मजबूर कर सकती है। और अगर ऐसा है तो फिर घोषणापत्र के रूप में जारी ऐसी चुनावी रुढि़ क्या जरूरत है?
अभी नई दिल्ली में प्रभाष परंपरा न्यास के एक कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इसी सवाल को गंभीरता से उठाया। उन्होंने कहा कि विधायकों और सांसदों को संविधान की शपथ दिलाई जाती है। उन्हें वचनबद्ध किया जाता है कि वे संविधान की व्यवस्था और मूल भावनाओं के मुताबिक आचरण करेंगे। निर्वाचन से पहले या बाद कहीं भी औपचारिक रूप से चुनाव घोषणापत्र की बात नहीं होती। ऐसे में महज राजनीति के लिए ऐसे दस्तावेज के जारी होने और इसके नाम पर जनता को गुमराह करने का क्या मतलब? जाहिर है यह मांग तार्किक है और इस पर सरकार और राजनीतिक जमात दोनों को गौर करना चाहिए। 

रविवार, 22 जुलाई 2012

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अच्छा तो हम चलते हैं...!


हिंदी सिनेमा के एक स्टार का कद वास्तविकता से कितना बड़ा हो सकता है, यह सवाल जब भी पूछा जाएगा तो जिक्र सबसे पहले बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना उर्फ काका का ही होगा। काका से पहले फिल्मी स्टारडम की ऐसी दीवानगी अगर किसी कलाकार को लेकर पैदा हुई तो वह केएल सहगल थे। राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की त्रयी इनसे अलग है। इन कलाकारों के साथ हिंदी सिनेमा का रचनात्मक सफर ऊंचाइयों पर पहुंचा। पर बात अगर करेंगे सिनेमा के माध्यम से समाज की आंखों में उतरने वाले सपनों की तो राजेश खन्ना इन सपनों के चक्रवर्ती राजा थे। बुजुर्गो ने फिल्म ‘आनंद’ में उनके कैंसर से मरने के दर्दनाक सीन में ‘जिंदगी की पहेली’ को समझा तो युवाओं ने कटी पतंग, आराधना, अमर प्रेम जैसी फिल्मों में राजे-रजवाड़ों के जमाने के प्रेमी नायकों को भूल उनमें नए दौर और समाज का फैशनेबल- रोमांटिक आइकन देखा। मांओं ने अपने बच्चों के नाम ‘राजेश’ रखने शुरू कर दिए। लोकप्रियता की यह हद यहां तक गई कि उस दौर में मुहावरा ही चल पड़ा- ऊपर आका और नीचे काका।
कहने की जरूरत नहीं कि सौ साल के भारतीय सिनेमा के सफर का यह सबसे चमकता सितारा अपने पीछे जो अफसाने छोड़ गया है, वह उनके न रहने के बाद भी उनके चाहने वालों के बीच उनकी मौजूदगी को दशकों तक बहाल रखेगा। दिलचस्प है कि 21वीं सदी में हिंदी सिनेमा का मल्टीप्लेक्स मार्का कल्चर जिस रेट्रो लुक को पर्दे पर उतारने में लगा है, राजेश खन्ना उस रेट्रो दौर के महानायक थे। यह वही दौर था जब हिंदी साहित्य के बड़े कहानीकारों और उपन्यासकारों पर गुलशन नंदा के रोमानी कथानक भारी पड़ रहे थे। जिंदगी की खुरदुरी सचाइयों और चुनौतियों के सामने सिनेमाई रोमांस का जो इंद्रधनुष राजेश खन्ना की फिल्मों ने बनाया, उसकी चर्चा अब लोग एक कीर्तिमान से भी आगे सुनहरी किंवदंती के रूप में करते हैं।
बहरहाल, काका अपने पीछे सिर्फ चमक और लोकप्रियता की धूम ही नहीं छोड़ गए हैं। उनका ‘सफर’ अपने आखिरी मुकाम तक पहुंचते-पहुंचते ‘आनंद’ से दुखांत में बदल गया। भले यह प्रतीकात्मक हो पर अपने हालिया विज्ञापन अवतार में लोग जब ढलती काया और कांपती आवाज में उन्हें यह कहते सुनते हैं कि मेरे फैंस मुझसे कोई नहीं छीन सकता तो साफ लगता है कि अपने उजास के दिन बीत जीने के बाद भी राजेश खन्ना को तलाश उसी चौंध की थी, जो कभी उनके नाम के जिक्र मात्र से पैदा हो जाया करती थी।
 काका अपने ही दौर के कई सितारों के मुकाबले इस मामले में निहायत ही अविवेकी साबित हुए कि उन्हें ‘अपने समय’ को मुट्ठी में भरने के आत्मविास का एहसास तो खूब हुआ पर उसे रेत की तरह मुट्ठी से फिसलते जाने का पता ही नहीं चला। सत्तर के दौर में चढ़ा उनका जादू अस्सी के दौर के बीतते-बीतते पूरी तरह उतार पर था। न वह बदलते समय, समाज और सिनेमा को समझ सके और न ही अपनी निजी जिंदगी में बदलती वास्तविकताओं से समन्वय बैठा पाए। यहां तक कि राजनीति का रुख भी उन्होंने किया पर मैदान बीच में ही छोड़ चले। आज जब काका नहीं हैं तो उनके यादगार गानों और संवादों की हर तरफ चर्चा है।
बीते दौर की इस गूंज-अनगूंज को सुनकर जेहन में आखिरी बात यही आती है कि जीवन के कुछ चित्र भले सदाबहार हों पर उसकी वास्तविकता इतनी ही कोमल और सब्ज कभी नहीं होती।
                                     (राष्ट्रीय सहारा  19.07.2012)

रविवार, 15 जुलाई 2012

प्रभाष जोशी के बहाने हिंदी पत्रकारिता से एक मुठभेड़


हिंदी की आलोचकीय बहस में अकसर दो बातों की चर्चा होती है- लोक और परंपरा। हिंदी के निर्माण और इसकी रचना प्रक्रिया में ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ देखने की तार्किक दरकार पर जोर देने वाले डॉ. रामविलास शर्मा ने जरूर इससे आगे बढ़कर कुछ जातीय तत्वों और सरोकारों पर ध्यान खींचा है। पर कायदे से हिंदी की यह जातीय शिनाख्त भी लोक और परंपरा के बाहर का नहीं बल्कि उसके भीतर का ही गुणतत्व है। इसी तरह, गौर करने लायक एक बात यह भी है कि हिंदी में पत्रकारिता का विकास भी उसके बाकी तमाम रचनात्मक रूपों के तकरीबन साथ ही हुआ। भारतेंदु और द्विवेदी के दौर की रचनात्मकता के साथ पत्रकारिता के विकास को अलगाकर नहीं देखा जा सकता बल्कि बाद में अस्सी के दशक के आसपास जब खबर और साहित्य ने अलग से अपनी जगह घेरनी शुरू की तो भी दोनों जगह कलम चलाने वालों का गोत्र एक ही रहा।
फिर यह विभाजन अलगाववादी न होकर लोकतांत्रिक तौर पर एक-दूसरे के लिए भरपूर सम्मान, स्थान और अवसर मुहैया कराने के लिए था। यही कारण रहा कि इस दौर में एक तरफ जहां धूम मचाने वाली आधुनिक धज की साहित्यिक पत्रिकाओं ने ऐतिहासिक सफलता पाई तो वहीं उस दौरान की समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने लोकप्रियता और श्रेष्ठता के सार्वकालिक मानक रचे। खासतौर पर देशज भाषा, संवेदना और चिंता के स्तर पर इस दौर की हासिल मानकीय श्रेष्ठता ने आधुनिक हिंदी पत्रकारिता की संभावना की ताकत को जाहिर किया। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद स्वतांत्र्योत्तर भारत का यह सबसे सुनहरा दौर था हिंदी पत्रकारिता के लिए और विशुद्ध साहित्य से आगे की वैकल्पिक रचनात्मकता के लिए। इसके बाद आया ज्ञान को सूचना आैर खबर की तात्कालिकता में समाचार की पूरी अवधारणा को तिरोहित करने वाला ग्लोबल दौर : जिसमें एक तरफ नजरअंदाज हो रही सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिताओं का संघर्ष सतह पर आया तो वहीं चेतना और अभिव्यक्ति के पारंपरिक लोक के लोप का खतरा बढ़ता चला गया।
हिंदी के रचनात्मक लेखन और पत्रकारिता के इस संक्षिप्त सफर को ध्यान में रखना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके बिना हम हर दस माइल पर एक नया संस्करण बेचने वाले हिंदी अखबारों के आज से मुठभेड़ नहीं कर सकते। जिसे हम भाषाई पत्रकारिता कहते हैं, वह अंग्रेजी से नितांत अलग है। खड़ी बोली के तौर पर तनी हिंदी की मुट्ठी उस राष्ट्रप्रेम की भी प्रतीक है, जिसमें देश की कोई सुपर इंपोज्ड या इंलाज्र्ड छवि नहीं बल्कि गंवई-कस्बाई निजता मौलिकता को अखिल भारतीय हैसियत की छटा देने की क्रांतिकारी रचनात्मकता हमेशा जोर मारती रही है। बोलियां अगर हिंदी की ताकत है तो इसे बोलने वालों की जाति और समाज ही हिंदी की दुनिया है।
खुद को बाद करने की शर्त पर नहीं संवाद
यहां यह भी साफ होने का है कि विचार और संवेदना के स्तर पर हिंदी विश्व संवाद के लिए हमेशा तैयार रही है पर यह संवाद कभी भी खुद को बाद करने की शर्त पर नहीं हुआ है। इसे एक उदाहरण से समझें। सुरेंद्र प्रताप सिंह तब 'नवभारत टाइम्स" में थे। संस्करण के लिए खबरों की प्राथमिकता तय करने के लिए न्यूज रूम में संपादक और समाचार संपादकों की टीम बैठी। एक खबर थी कि दिल्ली के किसी इलाके में कार में युवक-युवती 'आपत्तिजनक' स्थिति में पकड़े गए। सवाल उठा कि इस खबर की हेडिंग क्या हो? किसी ने सुझाया कि खबर में आपत्तिजनक शब्द आया है, यही हेडिंग में आ जाए पर बात नहीं बनी। कहा गया कि अगर दोनों बालिग हैं और उनकी राजी-खुशी है तो फिर उनके कृत्य पर आपत्ति किसे है? इस पर किसी ने खबर के भारीपन को थोड़ा हल्का करने के लिए कहा कि लिख दिया जाए कि युवक-युवती 'मनोरंजन' करते धरे गए। फिर बात उठी कि कृत्य को तन के बजाय मन से जोड़ना तथ्यात्मक रूप से गलत होगा। आखिर में तय हुआ कि 'तनोरंजन' शब्द लिखा जाए। भाषा को अभिव्यक्ति की ऐसी दुरुस्त कसौटी पर कसने की तमीज और समझ को आज अनुवाद और अनुकरण की दरकार के आगे घुटने टेकने पड़ रहे हैं।
आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण की अलख तकरीबन दो दशकों तक हिंदी में कलम के सिपाहियों ने उठाई। पर यहां यह समझना जरूरी है कि हिंदी की प्रखरता का एक मौलिक तेवर विरोध और असहमति है। दशकों की आैपनिवेशिक गुलामी से मुठभेड़ कर बनी भाषा की यह ताकत स्वाभाविक है। इसलिए अपने यहां नेहरू युग के अंत होते-होते राष्ट्र निर्माण की एक 'असरकारी' और वैकल्पिक दृष्टि की खोज हिंदी के लेखक-पत्रकार करने लगे और उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया की समाजवादी राह मिली। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद हिंदी में यह रचनात्मक प्रतिबद्धता से सज्जित सिपाहियों की पहली खेप थी। जिन लोगों ने 'दिनमान' के जमाने में फणीश्वरनाथ रेणु जैसे साहित्यकारों की रपट और लेख पढ़े हैं, उन्हें मालूम है कि अपने हाल को बताने के लिए भाषाई औजार भी अपने होने चाहिए। बाद में विचारवान लेखकों-पत्रकारों के इस जत्थे में जयप्रकाश आंदोलन से प्रभावित ऊर्जावान छात्रों की खेप शामिल हुई।
पत्रकारिता या सामाजिक कार्यकर्ता
आज यह बहस अकसर होती है कि क्या एक जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट की भूमिका निभाने की लक्ष्मण रेखा लांघनी चाहिए यानी यह जोखिम मोल लेना चाहिए? दुर्भाग्य से पत्रकारिता को 'मिशन' और 'प्रोफेशन' बताने वाली उधार की समझ रखने वाले आज मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खींचने से बाज नहीं आते और देश-समाज का जीवंत हाल बताने वालों को उनकी सीमाओं से सबसे पहले अवगत कराते हैं। जबकि अपने यहां लिखने-पढ़ने वालों की एक पूरी परंपरा है, जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धता महज 'कागद कारे' करने से कभी पूरी नहीं हुई। बताते हैं कि चंडीगढ़ में प्रभाष जोशी नए संवाददाताओं की बहाली के लिए साक्षात्कार ले रहे थे। एक युवक से उन्होंने पूछा कि पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? युवक का जवाब था, 'आंदोलन करने के लिए। परिवर्तन की ललक हो तो हाथ में कलम, कुदाल या बंदूक में से कोई एक तो होना ही चाहिए।' कहने की जरूरत नहीं कि युवक ने प्रभाष जी को प्रभावित किया। आज किसी इंटरव्यू पैनल के आगे ऐसा जवाब देने वालों के लिए अखबार की नौकरी का सपना कितना दूर चला जाएगा, पता नहीं।
न्यू मीडिया
आखिर में बात सूचना तकनीक के उस भूचाली दौर की जिसमें  कंप्यूटर और इंटरनेट ने भाषा और अभिव्यक्ति ही नहीं विचार के एजेंडे भी अपनी तरफ से तय करने शुरू कर दिए हैं। अंग्रेजी के लिए यह भूचाल ग्लोबल सबलता हासिल करने का अवसर बना तो हिंदी की भाषाई ताकत को सीधे वरण, अनुकरण और अनुशीलन के लिए बाध्य किया जा रहा है। कमाल की बात है कि इस मजबूरी के गढ़ में भी पहली विद्रोही मुट्ठी तनी तो उन हिंदी के उन कस्बाई-भाषाई शूरवीरों ने जिन्हें ग्लोब पर बैठने से ज्यादा ललक अपनी माटी-पानी को बचाने की रही। जिसे आज पूरी दुनिया में 'न्यू मीडिया' कहा जा रहा है, उसका हिंदी रूप ग्लोबल एकरूपता की दरकार के बावजूद काफी हद तक मौलिक है। यहां अभी थोड़ी भटकाव की स्थिति जरूर है पर यहां से थोड़ी रोशनी जरूर छिटकती दिखती है, उस मान्यता पर अब भी अटूट आस्था रखने वालों के लिए जिनकी परंपरा का दूध पीने से हासिल बलिष्ठता को किसी भी अखाड़े में उतरने से डर नहीं लगता।


 हस्तक्षेप (राष्ट्रीय सहारा) 14.07.2012

रविवार, 8 जुलाई 2012

आ फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ !

रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ, आ फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ'- मेहदी हसन की गाई यह मशहूर गजल उनके इंतकाल के बाद बरबस ही उनके चाहने वालों को याद हो आती है। उनका जन्म 1927 में हुआ तो था भारत में, राजस्थान के लूणा गांव में। पर 1947 में मुल्क के बंटवारे के वक्त वे पाकिस्तान चले गए। अपनी माटी-पानी से दो दशक का उनका संबंध उन्हें ताउम्र आद्र करता रहा। बताते हैं कि जब सत्तर के दशक में वे अपने पैतृक गांव को देखने आए तो सड़क न होने के कारण उन्हें गांव तक पहुंचने में काफी परेशानी हुई।
अपनी पुरखों की मिट्टी को लेकर उनके जज्बात किस तरह के थे, यह इस वाकिये से जाहिर होता है कि लूणा तक सड़क का निर्माण हो इसके लिए फंड इकट्ठा करने के लिए उन्होंने तत्काल वहीं अपनी गायकी का एक कार्यक्रम रख दिया। करीब 12 साल हो गए भारत में उनका कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। आखिरी बार 2005 में वे यहां आए थे अपने इलाज के सिलसिले में। अपने आखिरी दिनों में भारत आने को लेकर वे काफी उत्सुक थे। यहां आकर वे लता मंगेशकर और दिलीप कुमार जैसी शख्सियतों से मिलना चाहते थे। पर उनकी सेहत ने इसकी इजाजत उन्हें आखिर तक नहीं दी। वे लगातार बीमार चल रहे थे। राजस्थान सरकार ने अपनी तरफ से पहल भी की थी कि उन्हें इलाज के लिए भारत लाया जाए। संगीत के जानकारों की नजर में बेगम अख्तर के बाद गजल गायकी की दुनिया को यह सबसे बड़ा आघात है।
कभी लता मंगेशकर ने उनकी गायकी सुनकर कहा था कि यह खुदा की आवाज है। हारमोनियम, तबला और मेहंदी हसन- संगीत की इस संगत को जिसने भी कभी सामने होकर सुना, वह उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सरमाया बन गया। मेहदी हसन की गायकी पर राजस्थान के  कलावंत घराने का रंग चढ़ा था, जो आखिर तक नहीं उतरा। उन्होंने गजल से पहले ठुमरी-दादरा के आलाप भरे पर आखिर में जाकर मन रमा गजलों में। उन्हें उर्दू शायरी की भी खासी समझ थी। गालिब, मीर से लेकर अहमद फराज और कतील शिफाई तक उन्होंने कई अजीम शायरों की गजलों को अपनी आवाज दी। आज जबकि गजल गायकी के पुराने स्कूल प्रचलन से बाहर हो रहे हैं, मेहदी की आवाज संगीत के नए होनहारों को बहुत कुछ सीखा सकती है।
बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महान कलाकर की मौत के बाद जहां एक तरफ संगीत की दुनिया में एक भारीपन पसरा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने उनकी जिंदगी के निहायत निजी पन्ने उलटते हुए कुछ अप्रिय विवादों को जन्म देना चाहा है। यह सच है कि मेहदी की जिंदगी पर संघर्ष और मुफलिसी का साया हमेशा रहा। पर इनकी वजहों का सच टटोलने से बड़ी बात है, वह लगन आैर साधना जिसने उन्हें गजल की दुनिया की शहंशाही तक का जन खिताब दिलाया।  

बीस हजार पार पूरबिया


2009 के मई-जून में
जब सफर शुरू किया था 'पूरबिया' का
तो अंदाजा नहीं था
कि सफर इतना रोचक होगा
और समय के साथ
यह मेरी पहचान बन जाएगा

अब जबकि पूरबिया को
बीस हजार से ज्यादा हिट
हासिल हो चुके हैं
लोगों की इस सफलता पर
शुभकामनाएं मिल रही हैं
तो अभिभूत हूं यह देखकर
कि लोग एक अक्षर यात्रा के जारी रहने को
हमारे समय की एक बड़ी घटना मानते हैं

विचार, कविता, टिप्पणी
ये सब वे बहाने हैं
जो चेतना को बचाए रखने के लिए
नए दौर में एक जरूरी कार्रवाई बन गयी है
'पूरबिया' मेरे लिए
और कुछ मेरे जैसों के लिए
ऐसी ही एक कार्रवाई है
इस कार्रवाई को मिले समर्थन
सहयोग के लिए
सभी साथियों...साथिनों का आभार

पूरबिया आगे भी बहती रहेगी
अपनी महक
अपने तेवर 
अपने सरोकारों के साथ
आपके बीच
आपके साथ

रविवार, 1 जुलाई 2012

मां को एक दिवसीय प्रणाम

किसी को अगर यह शिकायत है कि परंपरा, परिवार, संबंध और संवेदना के लिए मौजूदा दौर में स्पेस लगातार कम होते जा रहे हैं, तो उसे नए बाजार बोध और प्रचलन के बारे में जानकारी बढ़ा लेनी चाहिए। जो सालभर हमें याद दिलाते चलते हैं कि हमें कब किसके लिए ग्रीटिंग कार्ड खरीदना है और कब किसे किस रंग का गुलाब भेंट करना है। बहरहाल, बात उस दिन की जिसे मनाने को लेकर हर तरफ चहल-पहल है। मदर्स डे वैसे तो आमतौर पर मई के दूसरे रविवार को मनाने का चलन है। पर खासतौर पर स्कूलों में इसे एक-दो दिन पहले ही मना लिया गया ताकि हफ्ते की छुट्टी बर्बाद न चली जाए।
रही बात भारतीय मांओं की स्थिति की तो गर्दन ऊंची करने से लेकर सिर झुकाने तक, दोंनो तरह के तथ्य सामने हैं। कॉरपोरेट दुनिया में महिला बॉसों की गिनती अब अपवाद से आगे कार्यकुशलता और क्षमता की एक नवीन परंपरा का रूप ले चुकी है। सिनेजगत में तो आज बकायदा एक पूरी फेहरिस्त है, ऐसी अभिनेत्रियों की जो विवाह के बाद करियर को अलविदा कहने के बजाय और ऊर्जा-उत्साह से अपनी काविलियत साबित कर रही हैं। देश की राजनीति में भी बगैर किसी विरासत के महिला नेतृत्व की एक पूरी खेप सामने आई है। पर गदगद कर देने वाली इन उपलब्धियों के बीच जीवन और समाज के भीतर परिवर्तन का उभार अब भी कई मामलों में असंतोषजनक है।
आलम यह है कि मातृत्व को सम्मान देने की बात तो दूर देश में आज तमाम ऐसे संपन्न, शिक्षित और जागरूक परिवार हैं, जहां बेटियों की हत्या गर्भ में ही कर दी जाती है। अभी इसी मुद्दे पर टीवी पर अभिनेता आमिर खान के शो की हर तरफ चर्चा है। रही जहां तक प्रसव और शिशु जन्म की बात तो यहां भी सचाई कम शर्मनाक नहीं है। देश में आज भी तमाम ऐसे गांव-कस्बे हैं, जहां प्रसव देखभाल की चिकित्सीय सुविधा नदारद है। जहां इस तरह की सुविधा है भी वहां भी व्यवस्थागत कमियों का अंबार है। सेव द चिल्ड्रेन ने अपनी सालाना रिपोर्ट वल्ड्र्स मदर्स-2012 में भारत को मां बनने के लिए खराब देशों में शुमार करते हुए उसे 80 विकासशील देशों में 76वें स्थान पर रखा है। स्थिति यह है कि देश में 140 महिलाओं में से एक की प्रसव के दौरान मौत हो जाती है। स्वास्थ्य सेवा की स्थिति इतनी बदतर है कि मात्र 53 फीसद प्रसव ही अस्पतालों में होते हैं। ऐसे में जो बच्चे जन्म भी लेते हैं, उनकी भी स्थिति अच्छी नहीं है। पांच साल की उम्र तक के बच्चों में 43 फीसद बच्चे अंडरवेट हैं।
टीयर-2 देशों की बात करें तो सर्वाधिक बाल कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं। ऐसी दुरावस्था में हमारी सरकार अगर देशवासियों को मदर्स डे की शुभकामनाएं देती है और समाज का एक वर्ग इस एक दिनी उत्साह में मातृत्व के प्रति आैपचारिक आभार की शालीनता प्रकट करने में विनम्र होना नहीं भूलता तो यह देश की तमाम मांओं के प्रति हमारी संवेदना के सच को बयां करने के लिए काफी है।   

रविवार, 17 जून 2012

प्रेम : हमारे दौर का सबसे बड़ा संदेह

संबंधों के मनमाफिक निबाह को लेकर विकसित हो रही स्वच्छंद मानसिकता और पैरोकारी के ग्लोबल दौर में जिस एक चीज को लेकर सबसे ज्यादा संदेह और विरोध है, वह है प्रेम। इन दो विरोधाभासी स्थितियों को सामने रखकर ही मौजूदा दौर की देशकाल और रचना को समझा जा सकता है। हाल में अखबारों में ऑनर किलिंग के दो मामले आए। इनमें एक घटना बुलंदशहर और दूसरी मेरठ की है। ये मामले एक ही राज्य उत्तर प्रदेश के हैं पर ऐसी घटनाएं हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार या दिल्ली समेत देश के किसी भी सूबे में हो सकती हैं।
बुलंदशहर वाले मामले में प्रेमिका की आंखों के सामने उसकी ही चुन्नी से प्रेमी का सरेआम गला घोंट दिया गया। जान युवती की भी शायद ही बच पाती पर शुक्र है कि ग्रामीणों ने हत्यारों को घेर लिया। मेरठ में तो युवक की हत्या युवती के घर पर पीट-पीटकर कर दी गई। मामला कहीं न कहीं प्रेम प्रसंग का ही था। अभी 'सत्यमेव जयते' नाम से अभिनेता आमिर खान जो चर्चित टीवी शो पेश कर रहे हैं, उसके पिछले एपिसोड में भी इस मसले को उठाया गया था। कार्यक्रम में लोगों ने एक बार फिर देखा-समझा कि हमारा समय और समाज युवकों की अपनी मर्जी से शादी के फैसले के कितना खिलाफ है। यह विरोध कितना बर्बर हो सकता है, इसके लिए आज किसी आपवादिक मामले को याद करने की जरूरत भी नहीं। आए दिन ऐसा कोई न कोई मामला अखबारों की सुर्खी बनता है।
ऐसे में हमारी समाज रचना और दृष्टि को लेकर कुछ जरूरी सवाल खड़े होते हैं, जिनका सामना किसी और को नहीं बल्कि हमें ही करना है। पहला सवाल तो यही कि जिस पारिवारिक-सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर नौजवान प्रेमियों पर आंखें तरेरी जाती हैं, उस प्रतिष्ठा की रूढ़ अवधारणा को टिकाए रखने वाले लोग कौन हैं? समझना यह भी होगा कि स्वीकार की विनम्रता की जगह विरोध की तालिबानी हिमाकत के पीछे कहीं पहचान का संकट तो नहीं है? क्योंकि यह संकट उकसावे की कार्रवाई से लेकर हिंसक वारदात तक को अंजाम देने की आपराधिक मानसिकता को गढ़ने वाला आज एक बड़ा कारण है।
मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक; हर रोज ऐसी करतूतें सामने आती हैं, जब लोगों की दिमागी शैतानी लोकप्रियता की भूख में शालीनता और सभ्यता की हर हद को तोड़ने के तपाकीपन दिखाने पर उतारू हो जा रही है। समाज वैज्ञानिक बताते हैं कि समाज का समरस और समन्वयी चरित्र जब से व्यक्तिवादी आग्रहों से विघटित होना शुरू हुआ है, परिवार और परंपरा की रूढ़ पैरोकारी का प्रतिक्रियावादी जोर भी बढ़ा है। इसका प्रकटीकरण पढ़े-लिखे समाज में जहां ज्यादा चालाक तरीके से होता है, वहीं अपढ़ और निचले सामाजिक तबकों में ज्यादा नंगेपन में दिखाई दे जाता है। वैसे प्रेम को लेकर तेजाबी नफरत दिखाने के पीछे यह अकेला कारण नहीं है। हां, एक विलक्षण और सामयिक केंद्रीय कारण जरूर है।   

रविवार, 27 मई 2012

थ्री चीयर्स फॉर काली मां

आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र तक सबने अपने-अपने तरह से इस स्थापना को ही दोहराया है कि भारत को लोक, आस्था और परंपरा की परस्परता को समझे बगैर संभव नहीं नहीं है। इस परस्परता ने भारतीय जीवन और समाज को कई मिथकीय विलक्षणता से भरा है। इसके उलट जो मौजूदा वैश्विक दौर है, वह परंपरा विरोधी तो है ही। लोक और परंपरा की लीक भी नई सीख के आगे गैरजरूरी ही है। इस दौर में शामिल तो हम भी हैं पर लोक, परंपरा और आस्था की त्रियक आज भी हमारे दिलोदिमाग को घेरती है। उससे भी दिलचस्प यह कि आधुनिकता और परंपरा के टकराव के कुछ स्वयंभू व्याख्याकारों की तूती आज खूब बोल रही है। समाज पर इनका दबाव हो, न हो पर इस कथित दबाव का प्रभाव कई बार सरकारी निर्णयों पर भी पड़ता है।
अमेरिकी पेय उत्पाद बनाने वाली कंपनी बर्नसाइड ब्रीविंग ने काली मां के नाम से बीयर बाजार में उतारने से पहले यही सोचा होगा कि भारतीय मिथकीय आस्था और उसके प्रति दिलचस्पी रखने वाले वैश्विक समाज में उनका उत्पाद हाथोंहाथ लिया जाएगा। और अगर कोई विरोध होगा भी तो प्रतिप्रचार का लाभ उनके पेय उत्पाद को मिलेगा। इसे ही कहते हैं समर्थन से भी ज्यादा कारगर विरोध का बाजार। आपकी क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों का ही लाभार्थी एक ही है।
बहरहाल, इस बीयर के बाजार में आने से पहले ही भारतीय संसद में इसके विरोध में फूटे स्वर ने कंपनी को यह कहने को मजबूर कर दिया कि वह अब अपने उत्पाद को नए नाम से बाजार में उतारेगी। यहां मामला महज आस्था का नहीं है। क्योंकि यह आस्था इतनी ही महत्वपूर्ण होती तो फिर इसका जन प्रकटीकरण भी जरूर सामने आता। 
अमेरिका में गणेश, शिव और लक्ष्मी के चित्रों के अभद्र इस्तेमाल की सनक हम पहले भी दिख चुके हैं। यह वही सनक है जो क्रांतिकारी चे ग्वेरा के जीवन मूल्यों को नकारते हुए भी उनके प्रतीकों को बिकाऊ मानकर संभाले चलती है। पर इसका क्या कहेंगे कि हमारे अपने देश में भी ऐसा होता है और तब प्रतिक्रियावादियों का गुस्सा नहीं फूटता।
इस साल का ही मामला है कि पटना में वैश्विक बिहार सम्मेलन में ब्रिटीश अपर हाउस के सदस्य लॉर्ड करन बिलमोरिया यह कह गए कि आज उन्हें अगर गांधीजी भी मिल जाएं तो उनका स्वागत वे अपनी कोबरा ब्रांड  बीयर से करना चाहेंगे। बताना जरूरी है कि बिलमोरिया न सिर्फ एक उद्योगपति हैं बल्कि दुनियाभर में वह बीयर किंग के रूप में जाने जाते हैं। साफ है कि मूल्य और चेतना के सरोकारों पर जब अर्थ और विकास की दरकार हावी होगी तो इस तरह के नैतिक अवमूल्यन को रोकना मुश्किल होगा। हमारी प्रतिक्रिया और आपत्ति तब तक ईमानदार नहीं ठहराई जा सकती जब तक हम जीवन, समाज और राष्ट्र को लेकर एक सुस्पष्ट मू्ल्यबोध की जरूरत को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं होते हैं।

रविवार, 20 मई 2012

चीन है नया गोताखोर


वैश्विक अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने को लेकर अब तक भारत में चिंता ऊपरी थी पर रुपए के डॉलर के मुकाबले रिकार्ड स्तर तक गोता लगाने से चिंता यहां भी गहरा गई है। डॉलर से लेकर यूरोजोन तक की इकोनमी इसकी जद में पहले ही आ चुकीहैं। हां, चीन और भारत को लेकर एक उम्मीद यह जरूर जताई जा रही थी पर अब इन दोनों देशो के हालत भी पहले की तरह बेहतर नहीं रहे। रुपए के कमजोर होने और उससे पहले एस एंड पी और मूडीज की जो नई रेटिंग आई है, उसमें कहीं न कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने का खतरा जताया गया है।
जहां तक सवाल चीन का है तो जिस विदेश व्यापार के बूते वह अब तक एक सक्षम इकोनमी की मिसाल बना रहा है, उसे लेकर अब वहां चुनौतियां बढ़ गई हैं। हाल तक वहां की सरकार यही जता रही थी कि बीते महीनों में उसके लिए बढ़े संकट वैश्विक बाजार की बढ़ी चुनौतियों की देन हैं। पर नहीं लगता कि महज बाहर की गड़बडि़यों की वजह से ही चीनी अर्थव्यवस्था की जड़ें हिली हैं। दरअसल, चीन की शासन व्यवस्था के साथ उसकी अर्थव्यवस्था को लेकर विरोधाभासी राय शुरू से रही है। पूरी दुनिया को एक छतरी के नीचे ला देने वाले बाजारवादी दौर में जहां यह विरोधभास बढ़ा, वहीं इस दौरान चीनी अर्थव्यवस्था का एक नया रूप दुनिया को देखने को मिला।
पहले इलेक्ट्रानिक्स जैसे कुछेक क्षेत्रों में अपनी उत्पादकता और स्तरीयता के लिए जाना जानेवाला देश अचानक आम जरूरत की तमाम चीजों के सस्ते और उन्नत विकल्प मुहैया कराने वाला देश बन गया। फिर यह सब चीन ने बिल्कुल वैसे ही नहीं किया, जैसे उदारवादी अर्थव्यवस्था की पैरोकारी करने वाले दूसरे मुल्कों ने किया। बताया यही गया कि चीन में साम्यवादी शासन भले हो अधिनायकवादी चरित्र का और लोकतांत्रिक व मानवाधिकारवादी कसौटियों पर चाहे उसकी जितनी खिल्ली उड़ाई जाए, पर उसकी अर्थव्यवस्था केंद्रित न होकर विकेंद्रित जमीन पर ही फल-बढ़ रही है। यह प्रयोग वहां हाल तक सफल भी रहा है। वैश्विक मंदी के कारण 2009 में जहां पूरी दुनिया की जीडीपी का औसत नकारात्मक दिखा, उस दौरान भी चीन ने तकरीबन नौ फीसद का विकास दर हासिल किया।
पर अब यह आर्थिक मजबूती चीन में भी दरक रही है। वहां श्रम और कच्चे माल की लागत एकदम से बढ़ गई है। विदेशों से मांग न होने से भी उत्पादन पर असर पड़ा है। सरकार अपने स्तर पर इस स्थिति से उबड़ने के भरसक उपाय तो कर रही है पर स्थिति अब काबू होने की सूरत से ज्यादा बिगड़ चुकी है। स्थानीय स्तर पर छोटे-मध्यम श्रेणी के उद्योगों की तरफ से रियायती कर्ज की जो बड़ी मांग एकदम से उठी है, उसे पूरा करने में सरकार के हाथ-पांव फूल रहे हैं।
चीनी वाणिज्य मंत्रालय तक आज खुद ही यह मान रहा है कि जो स्थिति और चुनौतियां  हैं, वह खतरे की आशंका से बहुत ज्यादा बड़ी हैं। ऐसे में भारत और चीन में जो स्थितियां बन रही है वह अगर आगे भी जारी रहती है तो यह विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाली दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के ढहने का खामियाजा भी बड़ा होगा और वैश्विक भी।

मंगलवार, 1 मई 2012

सजा दो हमें कि हम हैं बच्चे तुम्हारे


राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने स्कूलों में शारीरिक दंड को लेकर जो विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट जारी की है, उसमें एक बार फिर देश में बच्चों के प्रति बढ़ रही असंवेदनशीलता की पुष्टि हुई है। यहां दिलचस्प यह है कि निजी स्कूलों में हालात सरकारी स्कूलों से भी बदतर है। निजी स्कूलों में 83.6 फीसद लड़कों और 84.8 फीसद लड़कियों को किसी न किसी तरह के मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। केंद्रीय विद्यालयों में यह आंकड़ा क्रमश: 70.5 और 72.6 फीसद है जबकि राज्य सरकारों द्वारा संचालित स्कूलों में 81.1 फीसद लड़कों और 79.7 फीसद लड़कियों को मानसिक रूप से प्रताडि़त करने वाले अपशब्दों को झेलने पड़ते हैं। 
रिपोर्ट में दर्ज टिप्पणी में भी कहा गया है कि आमतौर पर माना यही जाता है कि निजी तौर पर संचालित स्कूलों में योग्य शिक्षक-शिक्षिकाएं होती हैं। ऐसे में वहां बच्चों के साथ क्रूर सलूक की शिकायतें कम होनी चाहिए। पर ऐसा है नहीं और यह कहीं न कहीं स्कूली शिक्षा के निजीकरण की बढ़ी होड़ पर सवाल उठाता है। गौरतलब है कि निजी स्कूलों की शिक्षा न सिर्फ महंगी है बल्कि यहां दाखिला भी आसान नहीं है। पिछले दिनों चेन्नई के एक स्कूल में एक शिक्षिका के कठोर व्यवहार और उपेक्षा से खीझे बच्चे ने प्रतिक्रिया में चाकू से गोदकर शिक्षिका की स्कूल में ही हत्या कर दी थी। यह घटना भी एक बड़े निजी स्कूल में ही हुई थी। कहना नहीं होगा कि शिक्षकों की असंवेदनशीलता छात्रों की पढ़ाई को ही महज प्रभावित नहीं करती बल्कि उनकी मनोवृत्ति को भी खतरनाक रूप से विकृत कर देती है। 
वैसे यहां यह भी साफ होने का है कि देश में बचपन के साथ ऐसा क्रूर सलूक सिर्फ स्कूलों में ही नहीं बल्कि हर जगह बढ़ रहा है। पिछले साल एनसीआरबी के जो आंकड़े जारी हुए थे, उसमें कहा गया था कि 2009 के मुकाबले 2010 में आपराधिक मामलों में जहां करीब पांच फीसद की वृद्धि देखी गई, वहीं बच्चों के मामले में यह फीसद दोगुने से भी ज्यादा रही। यह दिखाता है कि परिवार और समाज के स्तर पर बच्चों के प्रति हमारे सरोकार निहायत ही लापरवाह होते चले जा रहे हैं। यह स्थिति ऐसी है जिस पर समय से ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाली पीढि़यों की सोच और समझ में इसके खतरानक बीज को हम पनपते हुए देखेंगे।
अपने देश में यह स्थिति तब है जब पूरी दुनिया में बच्चों के प्रति घर-परिवार से लेकर विद्यालय तक एक जिम्मेदार और संवेदनशील व्यवहार के प्रति चेतना और प्रयास कारगर शक्ल अख्तियार कर रहे हैं। अपने देश में भी पिछले वर्ष महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने एक कानूनी प्रस्ताव घर और विद्यालयों में बच्चों को शारीरिक दंड देने पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए तैयार किया था। पर इस बारे में आगे ज्यादा प्रयास नहीं हुए, नतीजतन आज भी यह महत्वपूर्ण कानून संसद से पारित होने की बाट जोह रहा है।

रविवार, 29 अप्रैल 2012

अग्नि मिसाइल और नीलाम गांधी

यह न सिर्फ एक विडंबना है बल्कि एक विरोधाभासी विडंबना है। जहां गांधी से जुड़ी कुछ चीजों की नीलामी पर कुछ लोगों का ह्मदय भर आ रहा है तो वहीं अपने सैन्य बेड़े में शामिल होने जा रही अग्नि-5 मिसाइल की मारक क्षमता का विस्तार जानकर देशवासियों का सीना फख्रसे चौड़ा हो रहा है। एक तरफ हमारा मोह और हमारी आस्था उस अहिंसक मूल्यों की विरासत के प्रति है, जिसके प्रतीकों तक का अगर अनादर हो तो असहज हो उठते हैं, वहीं दूसरी तरफ आवेग, उन्माद, उत्तेजना और भय पैदा करने वाली ताकतों के और सबल होने को हम सीधे देशभक्ति के जज्बे से जोड़ते हैं।
दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास के महात्मा बनने की परिस्थतियों पर औपन्यासिक कृति 'पहला गिरमिटिया' लिखने वाले गिरिराज किशोर को तो लंदन में गांधी से संबंधित कुछ चीजों की नीलामी इतनी नागवार गुजरी कि वह नीलामी रोकने में सरकारी नाकामी पर अपना पद्मश्री सम्मान राष्ट्रपति को लौटाने पर आमादा हो उठे। गिरिराज के आहत होने को समझा जा सकता है पर यह आहत प्रतिक्रिया जिस तरह फूट रही है, वह कहीं से गले नहीं उतरती। गांधी के गुजरात में नए टूरिज्म सर्किट को गांधी के नाम से जोड़ा गया। गुजरात पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अमिताभ बच्चन के जो विज्ञापन इन दिनों टीवी पर चल रहे हैं, उनमें बच्चन के हाथ में चरखा तक पकड़ाई गई है, उन्हें साबरमती आश्रम के बारे में बताते हुए दिखाया गया है।
मुझे नहीं लगता कि अब तक किसी को यह विज्ञापन, इसका मकसद और इसके प्रस्तोता को लेकर कोई बड़ी शिकायत रही है। जबकि सचाई यह है कि बच्चों के लिए कैडबरी के मिल्क चॉकलेट को लेकर जब शिकायतें आईं तो बच्चन ने कुछेक दिनों-महीनों की खामोशी के बाद चॉकलेट कंपनी की दलीलों के साथ जाना पसंद किया आैर विज्ञापन में पप्पू के पास होने की मीठी खुशी मनाते रहे। बात गुजरात की निकली है तो जान लें कि वहां शराब पर पाबंदी है और यह पाबंदी भी गांधी के नाम पर ही मन-बेमन से ढोई-निभाई जा रही है। पर्यटक अगर चाहें तो उन्हें शराब मिल सकती है। बहुत आसानी से गुजरात की समुद्री सीमा के पार जाकर वैधानिक चेतावनी सीमा से पार पा लिया जाता है। यह सब वहां सरकार की आंख के नीचे ही नहीं बल्कि उसकी पूरी जानकारी आैर व्यवस्था में चल रहा है।     
यह भी एक संयोग ही है कि विदेश में नीलामी की खबर के बाद देश में ही गांधी भवन के नीलाम होने की खबर आनी शुरू हो गई है। कोलकाता के बेलियाघाट में हैदरी मंजिल गांधी भवन के नाम से मशहूर है। 1947 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान गांधी ने यहीं उपवास रखा था। यह ऐतिहासिक भवन पिछले 50 सालों से एक बैंक के पास गिरबी है आैर वह अब इसकी नीलामी करने जा रहा है। यह नीलामी रूक भी सकती है क्योंकि पश्चिम बंगाल विरासत आयोग के साथ कोलकाता नगर निगम ने इस भवन की हिफाजत का फैसला किया है।
एक ऐसे दौर में जब भौतिक प्रतिस्पर्धा जैसे आत्मघाती हिंसक मूल्यों को हम जीवनचर्या का हिस्सा आैर विकास का द्योतक मान चुके हैं, यह हास्यास्पद ही लगता है कि हम गांधी को लेकर अपनी भावुक चिंता प्रकट करें। अभी एक बच्चे ने आरटीआई के जरिए सरकार से यह पूछ डाला कि ऐतिहासिक रूप से गांधी को कब राष्ट्रपिता माना गया। सरकार के पास इस सवाल का कोई दस्तावेजी जवाब नहीं था। कल को भारत अपने लोगों के जीवन में अहिंसक चेतना के कोई लक्षण दिखा पाने में अगर असमर्थ दिखे, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। 
साफ है कि यहां बड़ा मुद्दा यह नहीं कि हमारा देश अपने राष्ट्रपिता को लेकर कितना संवेदनशील है। बड़ा सवाल यह है कि महत्व किसका ज्यादा है- गांधी विचार का,उनके अहिंसक जवन दर्शन का, उनके पढ़ाए रचनात्मक विकास के पाठ का या या सिर्फ उनके स्मृतिचिह्नों का। गांधी एक युगपुरुष हैं और उन्होंने अपने जीवन को इतने कामों में लगाया, इतनी जगहों पर बिताया, इतने लोगों के साथ जुड़े कि उसका कोई अंतिम लेखाजोखा तैयार ही नहीं किया जा सकता। 20वीं सदी का यह महात्मा 21वीं सदी में एक किंवदंति बन चुका है। यही कारण है हरेक की चेतना पर एक मानवीय दस्तक देने वाले गांधी का सामना करने को आज कोई तैयार नहीं है। क्योंकि किंवदंतियां जीवन और समाज की चर्चा में तो जीवित रहती हैं पर उनके किसी काम की नहीं होतीं। गांधी विचार तो बाजारू नहीं हो सकता पर उसके समर्थन और विरोध का आज एक बड़ा बाजार है। बाजारवादी दौर में यह बाजार भी खूब फल-फूल रहा है। और इस बाजार में एक से एक गिरिराज और किशोर अपनी सुविधा, अपना मुनाफा तलाश रहे हैं।   

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

खुदकुशी की वर्दी


फौजी जीवन के प्रति हम सम्मान तो खूब जता देते हैं पर उनके भीतर के संघर्ष और मानसिक दबाव को नहीं समझते हैं। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि हम यह मानकर चलते कि सैनिकों की जानें सिर्फ सरहद पर दुश्मन की गोलियों से या फिर नक्सली-आतंकी भिड़ंत में ही जाती हैं। पिछले साल आतंकी घटनाओं में 65 जवान शहीद हुए जबकि इसी दौरान 99 जवानों ने खुद अपनी जीवनलीला समाप्त की और ऐसा करने वालों में महज 23 अशांत इलाकों में तैनात थे। 76 जवानों ने तो शांतिपूर्ण इलाकों में तैनाती के बावजूद आत्महत्या का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया।
सैनिकों में खुदकुशी की प्रवृत्ति हाल के सालों में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 2007 में जहां मात्र 42 जवानों ने आत्महत्या की, वहीं उसके बाद के सालों में क्रमश: 150, 110, 115 और 99 ने यह दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया। साफ है कि जवानों की कार्यस्थिति और मनोदबावों के बारे में गंभीरता से विचार करने की दरकार है। क्योंकि कहीं न कहीं यह समस्या सुरक्षा प्रहरियों के गिरते आत्मबल का भी है। फिर इस गिरावट के साथ अगर हमारे जवान अपने फर्ज को अंजाम दे रहे हैं तो न सिर्फ सुरक्षा की दृष्टि से बल्कि मानवीय आधार पर भी यह एक खतरनाक स्थिति है।
एक तो हाल के सालों में खासतौर पर सरकारी स्तर पर यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि वह हर चुनौतिपूर्ण स्थिति से निपटने का आसान तरीका सेना की तैनाती है। ऐसे में जवानों पर कार्य दबाव जहां असामान्य तौर पर बढ़ा है। आलम तो यह है कि कानून व्यवस्था की स्थिति संभालने के लिए पूरे देश में सघन पुलिस तंत्र है पर भरोसे के अभाव में हर जोखिम भरी स्थिति में सेना की तैनाती को आसान विकल्प मान लिया गया है। यह सैनिकों की कार्यक्षमता और
कुशलता का यंत्रनापूर्ण दोहन है।
इस बारे में नीतिगत रूप में सरकार को फैसला लेना चाहिए कि आंतरिक
और वाह्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों के अलावा मात्र प्राकृतिक आपदा की स्थिति में ही सैन्य तैनाती के विकल्प पर विचार किया जाएगा। इसके अलावा सैनिकों के पारिवारिक जीवन को भी पर्याप्त महत्व दिया जाए ताकि तैनाती के दौरान उन पर कोई अतिरिक्त मानसिक दबाव न हो।
रक्षा मंत्रालय जरूर ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए सैनिकों के लिए मनोचिकित्सीय परामर्श
और योग प्रशिक्षण जैसे  कार्यक्रमों पर जोर जरूर दे रहा है पर इससे आगे और भी बहुत कुछ करने की दरकार है। यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्यादातर जवान अपने बीवी-बच्चों से महीनों अलग रहने के कारण भीतर ही भीतर घुटन और निराशा से भरने लगते हैं और अंत में हारकर आत्महत्या जैसा फैसला लेने को मजबूर हो जाते हैं।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

गरीब हम हैं इसलिए कि तुम अमीर हो गए


भारत की गिनती जरूर आज दुनिया में चीन के बाद सबसे ज्यादा सुरक्षित और संभावनाओं से भरे इकोनमी के रूप में होती है पर देश के भीतर विकास को लेकर वर्गीय अंतर खतरनाक तरीके से बढ़ गया है। तभी अपने देश में अब सीधे विकास को लेकर बात नहीं हो रही बल्कि इसके समावेशी आयाम पर सर्वाधिक बल दिया जा रहा है। आर्थिक सोच में आया यह फर्क अकारण नहीं है।
वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा ने संसद में ग्लोबल वेल्थ इंटेलीजेंस फर्म के हालिया सर्वे की चर्चा में बताया कि देश के चोटी के सर्वाधिक 8200 अमीर लोगों के पास करीब 945 अमेरिकी डॉलर की दौलत है, जो देश की अर्थव्यवस्था का तकरीबन 70 फीसद हिस्सा है। साफ है कि धन और साधन के असमान वितरण की चुनौती एक खतरनाक स्थिति की ओर इशारा कर रही है।
कुछ महीने पहले आए 'हंगामा' रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि देश में 14 करोड़ नौनिहालों का बचपन महज इस कारण असुरक्षित और बीमार है क्योंकि वे कुपोषित हैं। अभी कुछ ही दिन हुए हैं, जब योजना आयोग की तरफ से आए निर्धनता तय करने के अतार्किक पैमाने पर संसद से लेकर सड़क तक शोर मचा। आयोग ने अपनी रपट में शहरी क्षेत्रों में रोजाना 28.65 और देहाती इलाकों में 22.42 रुपए खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना है। कहने की जरूरत नहीं कि यह आमजन के प्रति एक तंग नजरिया है।
भूले नहीं हैं लोग आज भी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की उस चर्चित रपोर्ट को जिसमें दावा किया गया था कि देश की 77 फीसद आबादी 20 रुपए रोजाना से कम पर अब जीवन गुजारने को विवश है। आज जब वित्तमंत्री कड़े फैसले लेने की दरकार पर जोर देते हैं तो इसमें यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कड़े फैसले का मतलब अब भी कर ढांचा और आयात-निर्यात नीति आदि में बदलाव मात्र हैं तो यह विकास की असमानता को तो दूर करने वाली अर्थनीति तो साबित होने से रही।
समावेशी अर्थ विकास का दर्शन अगर आज भी सरकारी जुमलेबाजी का हिस्सा भर है तो आगे देश में गरीबी-अमीरी की खाई और बढ़ेगी ही। पिछले कुछ महीनों में भारत सहित दुनिया भर में आर्थिक मोर्चे पर चिंताएं सघन हुई हैं। चार साल पहले की विश्व मंदी एक बार फिर से सिर उठा रही है और इस बार इसकी चपेट में डॉलर से लेकर यूरोजोन तक की इकोनमी के आने का अंदेशा है। ऐसे में भारत को अपने आर्थिक विकास को वर्टिकल से हॉरिजेंटल ग्रोथ की तरफ फोकस करना होगा।

रविवार, 8 अप्रैल 2012

समृद्धि के इकहरेपन के कारण

1991 से ग्लोबल विकास की दौड़ में शामिल भारत भले आज एक दमदार अर्थव्यवस्था के रूप में पूरी दुनिया में देखा जाता हो पर देश के अंदरूनी हालात अब भी खासे विरोधाभासी हैं। सुपर इकोनोमिक पावर होने की हसरत रखने वाले देश की आधी आबादी आज भी खुले में शौच को मजबूर है। इसके उलट 63.2 फीसद आबादी ऐसी है, जो मोबाइल फोन का इस्तेमाल करती है। साफ है कि विकास के नए आग्रहों ने जहां जनजीवन में स्थान बनाया है, वहीं गरीबी और पिछड़ेपन की चंगुल से अब भी लोग पूरी तरह निकल नहीं पाए हैं। गनीमत है कि गुजरे 20 सालों में विकास के इस गाढ़े होते विरोधाभास और वर्गीय अंतर को अब हमारी सरकार भी कबूलती है। समावेशी विकास की सरकारी हिमायत के पीछे कहीं न कहीं यह कबूलनामा ही है।
जनगणना-2011 के आंकड़ों के विश्लेषण में कहीं न कहीं यह तथ्य भी रेखांकित हुआ है कि देश में एक तरफ सुविधाओं के अधिकतम उपभोग की होड़ पैदा हुई है, वहीं कई ऐसे इलाके और तबके भी हैं, जहां लोगबाग आज भी विकास के बुनियादी सरोकार तक से कटे हुए हैं। देश के 49 फीसद घरों में अगर आज भी खाना पकाने के लिए सूखी लकडि़यों का इस्तेमाल होता है और नल से पेयजल की पहुंच मात्र 43 फीसद लोगों तक है, तो साफ है कि हमारी विकास नीति देश की तकरीबन आधी आबादी की जिंदगी का अंधेरा दूर करने में विफल रही है। जनगणना आंकड़ों के विश्लेषण में यह बात साफ झलकती है कि पानी-बिजली-सड़क जैसे आधाराभूत क्षेत्रों में अब भी हम काफी पीछे हैं।
मसलन, 2005 में बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की शुरुआत हुई थी। योजना का लक्ष्य 87 फीसद बगैर बिजली की सुविधा वाले घरों तक बिजली पहुंचाने की थी पर आलम यह है कि अब भी सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां तक या तो यह योजना नहीं पहुंची है या फिर काम अधूरा है। पेयजल उपलब्धता आैर सफाई-स्वच्छता से संबंधित कार्यक्रमों की भी यही हालत है। दरअसल, यह स्थिति इसलिए भी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में सरकार का ध्यान विकेंद्रित के बजाय केंद्रित विकास की तरफ ज्यादा रहा है।
नतीजा यह कि एक तरफ देशभर में अरबपतियों की गिनती लगातार बढ़ती जा रही है, वहीं कम से कम 14 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो कुपोषण का शिकार हैं। यह विरोधाभासी अंतर हमारे विकास और समृद्धि के इकहरेपन के कारण है। सरकार अब वर्ष 2020 को लक्ष्य करके देश को समावेशी विकास लक्ष्य की ओर ले जाने की तैयारी कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले कुछ सालों में विकास का उजाला सबके हिस्से में आएगा।        

दो साला हार और शिक्षा का अधिकार

 दो साल हो गए शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए । यहां से पलटकर देखने पर रास्ता भले बहुत लंबा न दिखे पर अब तक के अनुभव कई बातें जरूर साफ करती हैं। मनरेगा जैसा ही हश्र इस कानून का भी होता दिख रहा है। प्रथम संस्था द्वारा तैयार की गई प्राथमिक शिक्षा की सालाना स्थिति पर तैयार 'असर' रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों में नामांकन दर तो 96.7 फीसद तक पहुंच गई है पर उपस्थिति के मामले में यह बढ़त नहीं दिखती है। 2007 की स्थिति से तुलना करें तो स्कूलों में पढ़ने पहुंचने वाले बच्चों का फीसद 2011 में 73.4 से खिसक कर 70.9 पर आ गया है। यही नहीं मुफ्त खाने का प्रलोभन परोसकर प्राथमिक शिक्षा का स्तर सुधारने का दावा करने वाली सरकारी समझ का नतीजा यह है कि न तो बच्चों को ढंग से भोजन मिल रहा है
और न ही अच्छी शिक्षा। ग्रामीण इलाकों में हालत यह है कि तीसरी जमात में पढ़ने वाले हर दस में से बमुश्किल एक या दो बच्चे ऐसे हैं, जो अक्षर पहचानत हैं। 27 फीसद ऐसे हैं जो ढंग से गिनती नहीं जानते हैं। 60 फीसद को अंकों का तो कुछ ज्ञान जरूर है पर जोड़-घटाव में उनके हाथ तंग हैं।
उत्तर भारत के कई राज्यों में खासतौर पर इस तरह की शिकायतें दर्ज की गई  और बताया गया कि कागजी खानापूर्ति के दबाव में बच्चों को कक्षाएं फलांगने की छूट जरूर दे दी जा रही हैं पर तमाम ऐसे बच्चे हैं जो पांचवीं जमात में पहुंचकर भी कक्षा दो की किताबें ढंग से नहीं पढ़ पाते। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल लगातार शिक्षा के विस्तार और तरीके में सुधार के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। धरातल पर जो सचाई है उसका भी पता मंत्री महोदय को है पर इस नाकामी के कारणों में जाने के बजाय वे आगे की योजनाओं की गिनती बढ़ाने में व्यस्त हैं। अब जब वह यह कहते हैं कि उनका सारा जोर रटंत तालीम की जगह रचनात्मक दक्षता उन्नयन पर है तो यह समझना मुश्किल है कि वे इस लक्ष्य को आखिर हासिल कैसे करेंगे।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों का नेटवर्क ठप पड़ता जा रहा है। देश के 25 फीसद बच्चे अभी ही प्राइवेट स्कूलों का रुख कर चुके हैं आगे यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी ही। केरल और मणिपुर में यह आंकड़ा अभी ही साठ फीसद के ऊपर पहुंच चुका है। लिहाजा सरकारी स्तर पर यह योजनागत सफाई जरूरी है कि वह सर्व शिक्षा का लक्ष्य अपने भरोसे पूरा करना चाहते हैं या निजी स्कूलों से। क्योंकि यह एक और खतरनाक स्थिति गांव से लेकर बड़े शहरों तक पिछले कुछ सालों में बनी है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मानक ही प्राइवेट स्कूल हो गए हैं। जबकि सचाई यह है कि यह सिर्फ प्रचारात्मक तथ्य है। अगर दसवीं और बारहवीं के सीबीएसई नतीजे को एक पैमाना मानें तो साफ दिखेगा कि सरकारी ही अब भी तालीम के मामले में असरकारी है। लिहाजा सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार के बगैर देश में शिक्षा का कोई बड़ा लक्ष्य हासिल कर पाना नामुमकिन है।  और इस नामुमकिन को बदलने के लिए हर मुमकिन कोशिश होनी ही चाहिए।

रविवार, 25 मार्च 2012

सौ साल का बिहार

बिहार अपनी राज्य स्थापना के सौ साल जिस सरकारी-असरकारी तौर पर मना रहा है, उसमें सिर्फ हर्ष या गौरवबोध शामिल नहीं है। दरअसल, यह एक ऐसा मौका है, जब यह प्रदेश अपनी शिनाख्त को नए सिरे से गढ़ना चाहता है। पिछले दो-तीन दशकों में बिहारी होना जिस तरह गरीब, अशिक्षित, असभ्य और पिछड़े होने की लांछना में तब्दील हुआ है, उसने इस प्रदेश को लेकर नए सांस्कृतिक विमर्श की दराकर पैदा की है। यह विमर्श अब बौद्धिक के साथ राजनीतिक चेतना की भी शक्ल ले रहा है। आलम यह है कि अब बिहार में हर स्तर पर विकास और समृद्धि का अपवाद होने के बजाय इसका उदाहरण बनने की भूख है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश की राजधानी में जब राज्य स्थापना के शताब्दी समारोह के शुभारंभ के मौके पर यह कहा कि अगर बिहारी दिल्ली में एक दिन काम बंद कर दें तो यह महानगर ठहर जाएगा, कहीं न कहीं उस लांछना का ही राजनीतिक शैली में दिया गया जवाब था, जो पिछले वर्षों में दिल्ली और मुंबई में बिहारी अस्मिता को चोटिल करने के लिए लगाए गए थे। इस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ परंपरा भले न ठहराया जाए पर इसके पीछे की वजहों को खारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। आज जबकि भारतीय संघ में शामिल एक महत्वपूर्ण प्रदेश अपनी अस्मिता पर रोशनाई को रौशन पहलू में बदलने को ललक रहा है तो कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
सबसे पहली बात तो यह कि बिहार में राजनीति से लेकर शिक्षा और कारोबार के क्षेत्र में एक बेहतर शुरुआत की अभी भूमिका भर तैयार हुई है। यह भूमिका भी जरूरी है इसलिए पिछले पांच-सात साल अगर इसमें लगे हैं तो वे फिजूल नहीं गए हैं। पर अब यहां से इस प्रदेश को आगे के लिए कदम बढ़ाने शुरू करने होंगे, साथ ही इस यात्रा में एक सातत्य भी जरूरी है। कई बार इतिहास और परंपरा का मोह मौजूदा चुनौतियों से मुंह ढांपने का बहाना भी बनता है। यह खतरा नया बिहार का सपना आंज रही सरकार के साथ उन तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के आगे भी है, जिनमें आज गजब का उत्साह देखने को मिल रहा है।
दूसरी बात यह कि बिहार में पिछले दो विधानसभा चुनावों के नतीजे ने जो नया और आशावादी सत्ता समीकरण पैदा किया है, वह आगे भी सशक्त और कारगर रहे इसके लिए जरूरी है कि इसके नतीजे प्रदेश की जनता को देखने को मिलें। अभी गरीबी को लेकर एक आंकड़ा योजना आयोग ने पेश किया है, इसमें बिहार सबसे नीचले पायदान पर है। विकास दर के आंकड़े और सत्ता के वर्ष गिनाने से बिहार के हिस्से आई परेशानी दूर नहीं हो सकती। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार को अपने शताब्दी वर्ष में जितना इतिहास से सीखने का मौका मिलेगा, उतना ही भविष्य को भी सुंदर और सुफल बनाने का भी।      

रविवार, 11 मार्च 2012

लोकतंत्र का पंचनामा


अपने यहां आलोचना की नामवरी परंपरा में भी एक बात अकसर दुहराई जाती है कि क्या दिखता है से ज्यादा जरूरी है कि हम देखते क्या हैं। छह दशक के गणतंत्रीय अनुभव में ऐसे कई मौके आए जब हमने कुछ बहुत जरूरी बहसों और सरोकारों को महज इसलिए नजरअंदाज कर दिया क्योंकि हमारी समझदारी के आग्रह कहीं और से बन-बिगड़ रहे थे। रचना और विकास के केंद्रित ढांचे को विकेंद्रित विकल्प पर तरजीह देने का फैसला ऐसा ही एक उदाहरण है।
केंद्रित सत्ता के आग्रह में योजना और विकास को कुछ हाथों से बहुत हाथों में कभी बंटने ही नहीं दिया। बाद में जब लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण का दबाव बढ़ा भी तो पंचायतीराज के रूप में एक आधे-अधूरे और अधिकारविहीन ढांचे को निचले स्तर पर तैयार कर लिया गया। दिलचस्प है कि भारत का लोकतंत्र पूरी दुनिया में इस मामले में सबसे भिन्न और आगे है कि हमारे यहां प्रातिनिधिक के साथ प्रतिभागिता का तंत्र है, जो जनता का और जनता के लिए तो है पर जनता द्वारा नहीं है।
चूंकि लोकतंत्र एक जीवंत और लगातार अपने अनुभवों से समृद्ध होने वाली व्यवस्था है, लिहाजा एकबारगी फिर यह बहस सतह पर आ गई है कि हम लोकतांत्रिक प्रतिनिधत्व को महत्व दें कि लोक सहभाग को। जाहिर है लोक सहभाग के अभाव में ही लोक प्रतिनिधित्व का महत्व है। ऐसे में लोकसभा-राज्यसभा और विधानसभा के मुकाबले ग्रामसभा की सर्वोपरिता पर सवाल उठाने का कम से कम कोई सैद्धांतिक कारण तो नहीं ही है।
प्रतिनिधित्व को समग्र लोक भागीदारी में बदलने के इसी आग्रह को एक बार फिर से स्वर दिया है समाजसेवी अन्ना हजारे ने। पिछले एक साल में जबसे उनके कार्य और विचार पर लोगों का ध्यान ज्यादा गया है, वे ग्रामसभा के बहाने पंचायतराज और ग्राम स्वराज की बात बार-बार करते रहे हैं। पर भ्रष्टाचार और जनलोकपाल जैसे ज्यादा दिलचस्पी के मुद्दों और फिर उन पर पक्ष-विरोध की बयानबाजी में यह जरूरी मुद्दा कहीं पीछे छूटता रहा है। देश के 63वें गणतंत्र दिवस के मौके पर हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने संघर्ष के अनुभव से कहा कि चुनाव के बाद चुने गए प्रतिनिधि जनता के सेवक की तरह नहीं बल्कि मालिक की तरह सलूक करते हैं। यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। लिहाजा, ग्रामसभाओं को अधिक अधिकार संपन्न बनाकर उसकी भूमिका को ज्यादा निर्णायक बनाने के साथ पंचायतराज संस्था के सशक्तिकरण की दरकार समय की मांग है। 
सोमवार से संसद का बजट सत्र शुरू हुआ है। इस मौके पर राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संस्थापक केएन गोविंदाचार्य ने पंचायतों के सशिक्तकरण के मुद्दे को एक नई तार्किक दरकार के साथ उठाया है। उनकी मांग है कि सरकार केंद्रीय बजट का कम से कम सात फीसद हिस्सा सीधे पंचायतों को दे। ऐसा करने से न सिर्फ लोकतंत्र का यह उपेक्षित ढांचा सशक्त होगा बल्कि राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेंद्रीकरण का मार्ग भी प्रशस्त होगा। शहरीकरण की बढ़ती होड़ के बावजूद आज भी देश में पांच लाख से ज्यादा गांव हैं और करीब 70 फीसद आबादी इन्हीं गांवों में रहती है। गांव और कृषि की अवहेलना करके हम एक सशक्त और विकसित भारत की कल्पना नहीं कर सकते हैं। पिछले 20 सालों में यह मांग बार- बार उठी है कि सरकार पंचायती राज संस्था को अपनी विकास योजनाओं को तय करने का अधिकार दे और इसके लिए उसे आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बनाया जाए ताकि योजनाएं दिल्ली से चलकर गांवों तक न पहुंचे बल्कि इनका निर्धारण स्थानीय स्तर पर स्थानीय लोगों द्वारा हो। गोविंदाचार्य नए सिरे से इस मुद्दे पर दबाव बनाना चाह रहे हैं। आगे यह देखना होगा कि जो चिंता अब तक नागरिक समाज के स्तर पर है, उसके साथ सरकार कब तक और कितना जुड़ पाती है। 

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चिंतन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए क्योंकि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा है। पर तथ्य और सत्य भी यहीं आकर ठहरता है, ऐसा नहीं है। दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा है। और ऐसा हो भी भला क्यों नहीं क्योंकि इसमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सब को भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि इंडिया शाइनिंग का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई जो सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है।
तकरीबन तीन साल पहले अभी के महीने में ही 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉमिंग वर्ल्ड  : एटीट¬ूड्स एंड परसेप्शन'  नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमर्जिंग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उनकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं।   
साफ है कि पिछले दो दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करियर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है, कामयाब रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
आज पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई और यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढ़ाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमर्जिंग इकोनमी पॉवर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा ले रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खाने में विदेशी मुद्रा का वजन जरूर बढ़ सकता है पर यह सब देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे जाएंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले अमेरिका जैसे देश एक बार फिर संरक्षणवादी आर्थिक हितों को अमल में लाने लगे हैं।
आखिर में एक बात और देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से। रूढि़यां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्जा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम इंडिया से भारत की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिंदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है।




सौजन्य : राष्ट्रीय सहारा  

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

ओबामा बने प्रेसीडेंट तो अपने सैम बढई

अमेरिका  में जब बराक ओबामा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने में सफल हुए थे, तो वहां की और भारत की स्थितियों को राजनैतिक और बौद्धिक जमात के बीच कई तुलनात्मक नजरिए सामने आए। बार-बार अमेरिका के उदाहरण को सामने रखकर यह समझने की कोशिश की गई कि भारत उस उदार और विकसित राजनीतिक-सामाजिक स्थिति तक पहुंचने से कितनी दूर है, जब हम भी अपने यहां एक दलित को या एक मुसलमान को प्रधानमंत्री पद पर बैठा देखेंगे। जो बात ज्यादा भरोसे से और तार्किक तरीके से समझ में आई वह यही कि विकास और संपन्नता मध्यकालीन और जातीय बेडि़यों को तोड़ने का सबसे मुफीद औजार है। अमेरिका में ये औजार सबसे ज्यादा तेजी से काम कर रहे हैं। इसलिए वहां चेंज को अलग से चेज करने की जरूरत अब नहीं है। पर क्या भारत भी अपनी विकासयात्रा में उन्हीं सोपानों पर पहुंच रहा है, जहां चेंज कोई चैलेंज न होकर एक स्वभाविक स्थिति बन जाती है। अगर आपका उत्तर है तो आपको अपने सैद्धांतिक आधारों पर एक बार फिर विचार करना होगा? दरअसल, यह दरकार कहीं और से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के हालात के बीच से आए हैं। 2014 के आम चुनाव में यूपी के चुनावी गणित कितने काम आएंगे, पता नहीं। पर सभी सियासी पार्टियां इसे दिल्ली की सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर ही लड़ रही हैं। आरक्षण का खुर्शीदी-बेनी खेल पहले ही बोतल से बाहर आ गया है। रही सही कसर जातीय राजनीति को लेकर खेले गए नंगे खेल ने पूरा कर दिया है। क्षेत्रीय प्रभाव रखने वाले दलों की मजबूरी तो छोड़ दें, कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय प्रभाव और विस्तार वाले दलों ने भी विकास व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को छोड़कर क्षेत्र और जाति की राजनीति पर अपना यकीन ज्यादा दिखाया। बाबूसिंह कुशवाहा मामले में भाजपा ने जहां आंतरिक विरोध तक को सुनना गंवारा नहीं किया, वहीं रियल और  फेयर पॉलिटिक्स के हिमायती राहुल गांधी ने चुनावी सभा में सैम पित्रोदा को विश्वकर्मा जाति का बताकर केंद्र में अपने पिता राजीव गांधी के कार्यकाल के आईटी विकास को जातीय तर्कों पर उतारने को मजबूर हुए। 
विकास को सामाजिक न्याय की समावेशी संगति पर खरा उतारना तो समझ में आता है पर इसे सीधे-सीधे जातीयता की जमीन पर ला पटकना खतरनाक है। इस लिहाज से कांग्रेस पार्टी की इस हिमाकत को सबसे बड़ा मर्यादा उल्लंघन ठहराया जा सकता है, जब उसने देश में आईटी क्रांति के प्रणेता रहे सैम पित्रोदा को जातीय राजनीति के चौसर पर पासे की तरह फेंका। यह गलती नहीं बल्कि कांग्रेस की एक सोची-समझी चुनावी रणनीति है, यह तब ज्यादा जाहिर हुआ जब पार्टी ने यूपी में अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए सैम को मीडिया से मुखातिब कराया। 
सैम अगर सबके सामने कैलकुलेटेड ढिठाई से यह कहते कि 'मैं बढ़ई का बेटा हूं और अपनी जाति पर मुझे फख्र है', तो कांग्रेस का उनको लेकर खेला गया चुनावी खेल तो समझ में आता है पर सैम को क्या पड़ी थी कि वह खुद को इस खेल में इस्तेमाल हो जाने दे रहे हैं। क्या सैम की यह बढ़ईगिरी विकास को भी जातिगत शिनाख्त देने की दरकार को खतरनाक अंजामों तक नहीं ले जाएगी। राजीव गांधी के जमाने का आईटी 21वीं सदी के एक दशक बीतते-बीतते कहां पहुंच गई, आप समझ सकते हैं।

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

शेक्सपियर के नाटक और स्टीफेंस का बयान

ब्रह्मांड का रहस्य जटिल तो है पर अबूझ नहीं। इस रहस्यमयता का भेदन रोमांटिक तो हो सकता है पर डरावना कतई नहीं। इसलिए यह मानने का भी कतई कोई कारण नहीं है कि इस सृष्टि का स्रष्टा ईश्वर है। स्टीफन विलियम हॉकिंग जब यह कहते हैं तो उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की सूक्ष्मता और उपलब्धि देखकर कोई भी कायल हो जाए। ब्राह्मांड की रचना को समझने और इसके रहस्य को आम आदमी की दिलचस्पी का विषय बनाने वाले हॉकिंग जितने बड़े भौतिकविज्ञानी हैं, उतने ही लोकप्रिय विचारक भी। उनकी शारीरिक विवशता उनकी जीवटता से लगातार हारी है। इस लिहाज से वे मानवीय संघर्ष क्षमता के भी जीवंत उदाहरण हैं।  
पर यहां इस महान प्रतिभा की आभा से बाहर निकलकर कुछ और बातें समझने की दरकार है। ज्ञान जब विज्ञान की  खड़ाऊं पहन ले तो अज्ञान की धुंध जितनी नहीं छंटती, उससे ज्यादा छंटता है वह स्पेस- जहां हमारी संवेदना, हमारा मन, हमारा प्रेम और उससे भी आगे हमारा जीवन अपनी स्वाभाविकता को प्राप्त करता है। मानवीय चेतना की विलक्षणता ही यही है कि वह दिल और दिमाग को कंपार्टमेंटली बिलगाती नहीं है बल्कि एक साथ बाएं और दाएं हाथ की तरह काम करती है। न तो साझीदारी का कोई आनुपातिक सिद्धांत और न ही एक-दूसरे के खिलाफ जाने और दिखने का कोई आग्रह।
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. नगेंद्र की छायावाद को लेकर प्रसिद्ध उक्ति है कि यह 'स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह' है। दिलचस्प है कि यहां जिस सूक्ष्मता को रेखांकित किया गया है, वह हॉकिंग जैसे वैज्ञानिकों को महान बनाने वाली सूक्ष्मता से सर्वथा भिन्न है, विपरीत है। अपने जीवन के 70 वसंत पूरा करते हुए हॉकिंग ने सूक्ष्मता के अनंत को तलाशते हुए अचानक उस संवेदना और प्रेम के रहस्यवादी जाले में फंस गए, जिसे कलम और कूची थामने वालों ने सबसे ज्यादा धैर्य और दिलचस्पी के साथ समझने की कोशिश की है। रचना और कला क्षेत्र का यह धैर्य कोई समाधानकारी छोर को भले न छू पाए हों पर इसमें सवाल और जवाब के टकराव को ठहराव के चिंतन में बदलने की संवेदनशील कोशित तो दिखती ही है। हां, यह जरूर है कि यह ठहराव यहां भी कुछ दुराग्रहियों और पूर्वाग्रहियों के यहां सिरे से गायब है।  
हॉकिंग का यह कहना कि महिलाएं एक ऐसी रहस्य हैं, जिन्हें समझना नामुमकिन है। उनके वैज्ञानिक होने की कसौटी को नए सिरे से परिभाषित कर गया। विज्ञान और कला को प्रतिलोमी देखने की समझदारी नई नहीं है। विरोध के इस पूर्वाग्रह को पूरकता में देखने का समाधान काफी सुकूनदेह है। पर विज्ञान और कला में एक दूसरे की पूरकता तलाशने का समाधान कम से कम हॉकिंग के यहां तो उनके नए विवादास्पद बयान से नहीं दिखता है। आइंस्टीन की सापेक्षता से टकराने और एक हद तक उसे आगे ले जाने वाले हमारे समय की सबसे विलक्षण प्रतिभा हॉकिंग कम से कम मानवीय विमर्श में अपने पूर्वज को पीछे नहीं छोड़ पाए हैं। अपने जीवन के बाद के दिनों में आइंस्टीन की जिज्ञासाएं महात्मा गांधी की प्रार्थना और सत्य, अहिंसा और करुणा के दर्शन में अपना समाधान देखती थी। विज्ञान की सूक्ष्मता उन्हें मानवीय तरलता के आगे स्थूल और अपरिहार्य मालूम पड़ती थी।
कई सफल सिद्धांतों के जनक स्टीफेंस हॉकिंग के सत्तर साला जीवन में दो असफल शादियों के दुखद वृतांत दर्ज हैं। महिलाओं को अबूझ कहने की उनकी दलील उन हिंसक पात्रों की याद दिलाती है, जो शेक्सपियर के नाटकों में ऐसी ही जबान में अपने संवाद बोलते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि महिलाओं को 'सभ्यता की भुक्तभोगिनी' की नियति देने वाला पुरुष आग्रह आज भी महिलाओं की छवि को कहीं न कहीं नकारात्मक और गैरभरोसेमंद बताने से बाज नहीं आता। कात्यायनी के शब्दों में इस आधुनिक 'पौरुषपूर्ण समय' में स्त्री अस्मिता का संकट ज्यादा जटिल, ज्यादा भयावह है। खतरनाक यह भी कम नहीं कि हमारे समय का सबसे ज्यादा तेज-तर्रार वैज्ञानिक दिमाग भी महिला मुद्दे पर खासा हिला दिखता है।