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शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

एनइपी से संस्कृति और सफलता दोनों से जुड़ रहे हैं छात्र : शोभा


गाजियाबाद, 28 जुलाई। नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 ने छात्रों को मातृभाषा के साथ अपनी संस्कृति और संस्कारों के साथ गहरे तौर पर जोड़ा है। साथ ही इससे वैश्विक स्तर पर छात्रों को बड़ी सफलता भी मिल रही है। ये बातें केंद्रीय विद्यालय क्रमांक-1, वायुसेना स्थल, हिंडन में नई शिक्षा नीति 2020 के क्रियान्वयन की तीसरी वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम में विद्यालय की प्राचार्या शोभा शर्मा ने कहीं। उन्होंने कहा कि एनइपी 2020 से छात्रों की रचनात्मकता का विकास हुआ है। छात्र अब अध्ययन के साथ कौशल विकास और अपनी रचनात्मक अभिरुचियों में उत्साह के साथ हिस्सा ले रहे हैं। 

इस कार्यक्रम में डीएवी स्कूल के प्राचार्य मनोज ठाकुर और डीआईओएस रुचि ने भी हिस्सा लिया। इस मौके पर कई शिक्षाविदों और शिक्षकों की उपस्थिति में छात्रों ने एनइपी को लेकर अपने अनुभव सुनाए। इस अवसर पर शोभा शर्मा ने कहा कि नई शिक्षा नीति ने भारत में शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता को नई ऊंचाई दी है। इसमें तकनीकी शिक्षा पर बल देने के साथ-साथ भारत की सांस्कृतिक विरासत और धरोहर से बच्चों को जोड़ने की बात की गई है। उन्होंने नई शिक्षा नीति से बच्चों में रचनात्मकता के विकास को एक बड़ी उपलब्धि बताया। 


केंद्रीय विद्यालय क्रमांक-1, वायु सेना स्थल हिंडन की प्राचार्या ने कहा कि उनका विद्यालय एनइपी से जुड़े मानदंडों और सुझावों को अपने शिक्षण से मौलिक तौर पर जोड़ने में अग्रणी रहा है। इस कारण विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर प्रशस्ति भी हुई है। 

मुख्य अतिथि के रूप में कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मनोज ठाकुर ने बताया कि एनइपी में रटने के बजाय अनुभवात्मक शिक्षा पर बल दिया गया है, जो विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी है। कार्यक्रम की विशिष्ट अतिथि श्रीमती रुचि ने कहा कि उत्तर प्रदेश के सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अनुपालन के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि ‘निपुण’ जैसे कार्यक्रमों को प्रदेश में विधिवत रूप से संचालित किया जा रहा है। 

इस अवसर पर उपस्थित मीडियाकर्मियों ने छात्रों और शिक्षकों के साथ बातचीत और परिसर का भ्रमण कर एनइपी के क्रियान्वयन से जुड़े विविध कार्यों और गतिविधियों को देखा। सबने विद्यालय के शिक्षण और उससे जुड़े क्रियाकलाप की सराहना की

सोमवार, 16 जनवरी 2023

 जाना हिंदी के एक और मैनेजर का

- प्रेम प्रकाश

आपातकाल का अंधेरा तब थोड़ा दूर था, पर नेहरू युग जरूर किताब के पन्नों में प्रगतिशील आलोचकीय निकष पर आ चुका था। अगर नहीं थकी और झुकी थी तो हिंदी पत्रकारिता की वह असाधारण कलम, जिसने आजादी के आंदोलन के दौरान हासिल यशस्विता को इस दौरान भी विचार और लोकतंत्र की हिमायत में बहाल रखा। श्री कृष्ण किशोर पांडेय जी अब हमारे बीच नहीं रहे। हिंदी के घर-परिवार और संस्कार के बीच प्रखर आलोचक मैनेजर पांडेय के बाद शोक की यह दूसरी बड़ी खबर है। यह खबर और इससे जुड़ा संयोग और इस विदाई का पूरा समकाल नई चिंताओं और सवालों को जन्म देता है। यह हिंदी विमर्श और अभिव्यक्ति के एक और मैनेजर का जाना है, सर्द थपेड़ों के बीच एक और अलाव का ठंडा पड़ना है।

स्वर्णीय केके पांडेय का जीवन एक ऐसे प्रतिबद्ध हिंदी पत्रकार का सफरनामा है, जो 1968 से 2005 तक भरपूर सक्रियता के साथ अखबार के उस कक्ष को प्रतिष्ठा देता रहा, जिसे संपादकीय कक्ष कहा जाता है। मेरे जैसे पत्रकार के लिए उनकी स्मृति को नमन ऐसे विशाल वटवृक्ष के नीचे खड़ा होना है, जहां प्रशांत ऊर्जा की शालीन अनुभूति एक अक्षर मनोदशा को रचती है। उनके निधन पर सोशल मीडिया पर जिस तरह के संस्मरण लिखे जा रहे हैं, उन्हें लोग जिस लगाव और कचोट के साथ याद कर रहे हैं, वे ये जाहिर करते हैं कि पत्रकारिता की कम से कम दो पीढ़ी उनसे गहरे तौर पर जुड़ी रही। यह जुड़ाव पत्रकारिता के बदलते दौर में छपे शब्दों की अस्मिता को बहाल रखने के प्रशिक्षण के साथ हिंदी की अभिव्यक्ति और उसके सामर्थ्य को नए समकाल में ढालने की ईमानदार कोशिश थी।

गौरतलब है कि श्री कृष्ण किशोर पांडेय जब ‘हिंदुस्तान’ जैसे शीर्षस्थ अखबार के संपादकीय पृष्ठ को विचार और विमर्श के केंद्र में ला रहे थे, तब हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पूरे लय में थी तो साथ ही खोजी पत्रकारिता की जमीन तेजी से पक रही थी। पत्र-पत्रिकाओं पर ताले झूलने का शोक तब किसी आशंका के गर्भ में भी नहीं था। हां, कई दूरद्रष्टा जरूर काल के क्षितिज पर छाते धुंधलके की बात कहने लगे थे। यह दौर अपने पूरे विस्तार में कुलदीप नैयर, बीजी वर्गीज, राजेंद्र माथुर, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, प्रभाष जोशी और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसी शख्सियतों की पत्रकारिता की लाजवाब पारी का साक्षी रहा।

इस दौरान दूरदर्शन ने जहां आंखें खोलीं, एशियाड दूसरी बार भारत लौटा, वहीं आगे चलकर श्रीमति इंदिरा गांधी के करिश्माई दौर का पटाक्षेप भारतीय राजनीति का सबसे दिलचस्प घटनाक्रम साबित हुआ। इतने सारे बदलावों और आगाजों के बीच कलम उठाना और अखबारी विमर्श का कंपास स्थिर करना आसान नहीं था। भाषाई संस्कार और हिंदी की अपनी धज और परंपरा के मुताबिक यह चुनौती कितनी बड़ी होगी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हिंदी सिनेमा का महानायक तब तक ‘पुष्पा के आंसू’ पर शोकाकुल होने के बजाय जमाने की नाइंसाफियों के खिलाफ सुलगते लावे की तरह एंग्री यंग मैन बन चुका था। बदलाव का दूसरा सिरा साहित्य को छू रहा था। हिंदी की किस्सागोई नई कहानी और कविताई नई कविता की शिनाख्त के साथ अपने होने को नई प्रतिबद्धता के सांचे में ढाल रही थी, नई चुनौतियों के बीच संवेदनशील सरोकारों को रच रही थी। कुल मिलाकर रचनात्मकता की दुनिया की हलचल हिंदी को नए प्रस्थान की ओर ले जा रही थी।

जिन लोगों ने भी उन्नत गौर ललाट और तिलकित भाल से सुशोभित पांडेय जी के साथ काम किया, उनके लिखने-पढ़ने की समझ और शैली को नजदीक से देखते-समझते रहे, वे ये बताते हैं कि उन्होंने भारतीय समाज और राजनीति के उत्तरायण और दक्षिणायन के बजाय उसके मध्याह्न को ज्यादा अहम माना। इसलिए विचार के तीखे कोणों के बजाए उन्होंने विमर्श और विरासत की दोमट मिट्टी पर अक्षर फूल खिलाए, नए समकोण खड़े किए।

इस अक्षर वाटिका की बड़ी बात यह रही कि इसमें नए चटख रंग और तासीर के फूलों ने हिंदी और हिंदुस्तान दोनों को एक साथ महकाया। नए कलम उठाने वालों ने लिखने के जोखिम और दायित्व को समझा। और इस तरह तैयार हुई नए लेखकों और पत्रकारों की एक पूरी खेंप। यह वह खेंप है जो भाषा से खिलवाड़, दो-तीन जीबी डेटा और अफवाह के दोस्ताने के बीच लिखने की मर्यादा को बचाए रखने के लिए अंतिम लश्कर के तौर पर आज भी कार्य कर रही है। 

इसके बाद हिंदी की बिंदी और मान को बचाए रखने के लिए न तो कोई लश्कर बचेगा और न ही बचेगा कोई संघर्ष। केके पांडेय की स्मृति और प्रेरणा को नमन के साथ यह बड़ा संकट बिल्कुल सामने दिख रहा है। बड़ी बात होगी कि इस संकट और अंधकार के बीच कहीं से एक नया कृष्ण किशोर होने की संभावना प्रकट हो। यह संभावना और इसके लिए बची-खुची उम्मीद हिंदी के पुराने कंगूरों और नए चबूतरों पर दीयों के बलने की अंतिम उम्मीद है। यह उम्मीद फलीभूत हो और इससे जुड़ा बोध चिरायु हो, ऐसी कामना है।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

गजल और जल


- प्रेम प्रकाश

गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला, निदा फाजली की इस गजल को कई गायकों ने गाया है। पर किसी ने भी इसे चढ़े स्वर में नहीं गाया। सबने इसे प्रार्थना की तरह गाया, अजान की तरह तान भरी। दिलचस्प है कि कोस-कोस पर पानी और बोली का फर्क भांपने वाले देश में पानी कभी ऐसा मसला नहीं रहा, जिसकी चर्चा अलग से हो या उसे लेकर खूब सिर धुना जाए। पानी का जिक्र करते हुए हर तरह की तल्खी से बचने वाले भारतीय समाज के लिए जल हमेशा से एक सांस्कृतिक मसला रहा है। अच्छी बात यह है कि समाज और परंपरा के हिस्से लंबे समय से दर्ज यह समझ अब सरकारों के भी काम आ रही है। भारत जैसे देश में स्वच्छता और पानी का मुद्दा आज योजना से आगे मिशन की शक्ल ले रहा है तो इसलिए कि विकास की नीति और पहल हर लिहाज से समावेशी और संवेदनशील होने की दरकार से लैस हो, इस समझ पर खरा होने की चुनौती लगातार महसूस की जा रही है। यह भी कि खासतौर पर हवा और पानी के मुद्दे अब हमारे रोज के जीवन का हिस्सा हैं। सेंसेक्स का ऊपर या नीचे जाना हमें उतना नहीं प्रभावित करता जितना हवा-पानी की शुद्धता और उपलब्धता से जुड़े सूचकांक। अकेले पानी की बात करें तो हम दो मुल्कों की चर्चा के साथ पिछले तीन दशक में इस मुद्दे को देखने-समझने की दृष्टि में आए फर्क को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। पानी को मुद्दा या मसला से आगे मिशन तक पहुंचने के सफरनामे के एक छोर पर खड़ा है सिंगापुर तो दूसरी छोर पर भारत। एक खासा छोटा देश और दूसरा बड़ी आबादी और भौगोलिक विविधता वाला मुल्क।     

बात पहले सिंगापुर की, फिर भारत की। दुनियाभर में सैर-सपाटे के लिए सबसे पसंदीदा ठिकाने और ‘बिजनेस डेस्टिनेशन’ के रूप में सिंगापुर का नाम पूरी दुनिया में है। तीन दशक पहले जब पूरी दुनिया में ‘डिजिटिलाइजेशन’ का जोर बढ़ा तो दुनिया भर की कंपनियों ने अपने उत्पाद को यहीं से पूरी दुनिया में भेजना और प्रचारित करना सबसे बेहतर माना। पर जैसा कि आज वहां के युवाओं को भी लगता है कि सिंगापुर की एक दूसरी पहचान भी है, जो ज्यादा प्रेरक है, ज्यादा मौजू है। एक ऐसे दौर में जब जल प्रबंधन को लेकर पूरी दुनिया में तमाम तरह के उपायों की बात हो रही हैं उसमें सिंगापुर की चर्चा खासतौर पर होती है। विश्व में जल प्रबंधन के जितने भी मॉडल हैं, उसमें सिंगापुर का मॉडल अव्वल माना जाता है। आने वाले चार दशकों के लिए आज सिंगापुर के पास पानी के प्रबंधन को लेकर ऐसा ब्लूप्रिंट है, जिसमें जल संरक्षण से जल शोधन तक पानी की किफायत और उसके बचाव को लेकर तमाम उपाय शामिल हैं। सिंगापुर की खास बात यह भी है कि उसका जल प्रबंधन शहरी क्षेत्रों के लिए खास तौर पर मुफीद है। ग्रामीण आबादी वाले इलाकों में सिंगापुर का मॉडल शायद ही ज्यादा कारगर हो।  

बहरहाल, सिंगापुर के सामने लंबे समय तक यह सवाल रहा कि एक शहर-राष्ट्र जिसके पास न तो कोई प्राकृतिक जल इकाई है, न ही पर्याप्त भूजल भंडार है, जिसके पास इतनी भूमि भी नहीं कि वह बरसात के पानी का भंडारण कर सके, आखिर वह अपनी 50 लाख से ऊपर की आबादी की प्यास को कैसे बुझाए। दक्षिण पूर्वी एशियाई देश सिंगापुर का जोहार नदी (अब मलेशिया का हिस्सा) से जुड़ा 50 वर्ष पुराना अनुबंध समाप्त हो चुका है। गौरतलब है कि सिंगापुर अपनी कुल जल आपूर्ति का 40 फीसद पड़ोसी देश मलेशिया से आयात करता है। आयातित पानी का मूल्य बहुत ही कम है, क्योंकि मलेशिया ने पिछले पांच दशकों में पानी के दाम ही नहीं बढ़ाए। 

इस बीच, सिंगापुर की राष्ट्रीय जल एजंसी ‘पब्लिक यूटिलिटी बोर्ड’ (पीयूबी) 2060 तक पानी की मांग की स्वयं पूर्ति कर पाने के लिए चौबीसों घंटे कार्य कर रही है। इसका लक्ष्य है कि वह सिंगापुर की मलेशिया पर पानी की निर्भरता को सिर्फ कम ही न करे, बल्कि उसे समाप्त भी कर दे। इसके लिए उसने जल प्राप्ति की तीन पद्धतियों पर कार्य करने का निश्चय किया है। ये हैं- गंदे पानी का पुन: शुद्धिकरण, समुद्री जल का खारापन कम करना और वर्षा जल का अधिकतम संग्रहण। 

सिंगापुर से भारत सीख तो सकता है पर इस देश की आबादी और भूगोल ज्यादा मिश्रित और व्यापक है। फिर हमारे यहां पानी के अभाव से ज्यादा बड़ा सवाल उसके संग्रहण और वितरण का है। किसी भी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता का यह कतई मतलब नहीं कि आसापास के घरों में भी पानी पहुंच रहा हो। लिहाजा पानी को लेकर भारतीय दरकार और सरोकार सिंगापुर से खासे भिन्न हैं। अलबत्ता इसे भारतीय राजनीति में प्रकट हुए साकारात्मक बदलाव के साथ सरकारी स्तर पर आई नई योजनागत समझ भी कह सकते हैं कि अब स्वच्छता और घर-घर नल से जल की पहुंच जैसा मुद्दा साल के एक या दो दिनों नारों-पोस्टरों में जाहिर होने वाली कामना और सद्भावना से आगे सरकार की घोषित प्राथमिकता है। 

इस संदर्भ में आगे चर्चा से पहले यह देखना-समझना भी जरूरी है कि आधुनिक भारत की गाथा हमें स्वाधीनता बाद के 75 सालों की यात्रा नहीं कराती बल्कि यह हमें उस दौर में ले जाती है जब देश में स्वाधीनता की ललक के साथ वह ‘नवजागरण’ भी अंगड़ाई ले रहा था, जो जीवन और प्रकृति के प्रति समझ और आचरण का एक जिम्मेदार और प्रतिबद्ध मानस रच रहा था। नवजागरण का यह मानस आज भी हमारी पंरपराओं और प्रेरणाओं में जीवंत है। इसे बुद्धिमानी ही कहेंगे कि 2014 में लाल किले से तिरंगा फहराते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी का स्मरण किया और स्वच्छता के मुद्दे को सरकार और समाज दोनों के एजंडे में शामिल कराने में बड़ी कामयाबी हासिल की। यह देश में राजनीति के उस बदले आधार और सूचकांक का भी संकेत था, जिसमें आगे यह साफ-साफ तय हुआ कि सुशासन का मुद्दा महज सरकारी दफ्तरों में फाइलों के तेजी से आगे बढ़ने और योजनागत खर्चों में शून्य की गिनती बढ़ते जाने का नाम भर नहीं है। स्वच्छता के बाद जिस तरह पानी के मुद्दे को 2019 में भारत सरकार जल जीवन मिशन के तौर पर लेकर सामने आई, वह यह दिखाता है विकास का रंग हरा या धूसर के साथ साथ नीला भी होना चाहिए। 

सिंगापुर का जिक्र हम पहले कर चुके हैं। खासतौर पर पानी के मुद्दे को वहां जिस तरह बेहतर संग्रहण और वितरण के साथ तय किया गया, उससे यह भी जाहिर हुआ कि बाजार और विकास से उत्तर-आधुनिक दरकारों पर खरा उतरने के लिए हवा-पानी जैसे मुद्दे पर एक दीर्घकालिक समझ और नीति के साथ सामने आना होगा। बीसवीं सदी के आखिरी दशक से शुरू हुआ वैश्वीकरण का जोर भारत में भी पहले गुरुग्राम, नोएडा, बंगलुरु और हैदराबाद जैसे नए-पुराने शहरों में बिजनस हब के निर्माण और वैश्विक कारोबारी मॉडल के तौर पर सामने आया। पर यह सिलसिला लंबा नहीं चला। एक तरफ शहर और गांव की दूरी बढ़ी, वहीं लोकतांत्रिक आकांक्षा के तहत देश के ग्रामीण इलाके से यह आवाज उठनी शुरू हुई कि उन्हें पहले तो विकास के बुनियादी सरोकारों के साथ जोड़ा जाए ताकि तालीम और रोजगार के क्षेत्र में उभर रही नई संभावनाओं का वे भी बराबरी के साथ हिस्सा बन सकें। इस लिहाज से जल जीवन मिशन के मकसद और उससे जुड़ी चुनौतियों की चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि यह दिखाता है कि शासन और राजनीति के सूर्य को आज हम उत्तरायण और दक्षिणायन बताकर अपनी सियासी समझ पर चाहे जितना इतरा लें, हम उस सच्चाई और बदलाव को समझने से दूर रहेंगे जिसने इस दौरान तारीखी इबारत लिखी है। इस मिशन के तहत 15 अगस्त 2019 से 19 अप्रैल 2022 तक अगर देश के ग्रामीण इलाकों में लगभग साढ़े नौ करोड़ पानी के नए कनेक्शन दिए गए हैं, राज्य सरकारों के बीच 2024 से पहले सफलता के शत-फीसद  लक्ष्य को हासिल करने को लेकर एक स्वस्थ होड़ छिड़ी है, तो यह देश में राजनीति और शासन का भी वह बदला चेहरा है, जिसे देखने के लिए नए और धुले चश्मे की दरकार है। दलगत राजनीति और धर्म-संप्रदाय को देखने-पहचानने में माहिरों को अगर यह बदलाव नहीं दिख रहा तो यह बदलती दुनिया के साथ बदलते भारत को देखने का एक तंग नजरिया ही कहलाएगा। वह दिन दूर नहीं जब भारत के नक्शे में बच्चे जब रंग भरें तो वे हरित भारत की पारंपरिक छवि के साथ स्वच्छ-सजल भारत के सपने को साकार होते देख नीले रंग का भी खुशी-खुशी इस्तेमाल करें।


बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

हिंदी की नामवरी ठाठ

अक्षर स्मृति
डॉ. नामवर सिंह (1927-2019)

- प्रेम प्रकाश
एक ऐसे दौर में जब किसी भी तरह के विमर्श और प्रतिरोध को नासमझ वाचालता और असभ्य प्रतिक्रियाओं का फौरी आखेट चुनौती दे रहा है, हिंदी के आलोचकीय विवेक को लोकिप्रियता और स्वीकृति के सबसे ऊंचे आसन तक ले जाने वाले नामवर सिंह का न होना महज एक खबर नहीं है। दरअसल, स्वाधीन भारत की हिंदी चेतना को लोक और परंपरा के साझे के साथ समझने की चुनौती बड़ी रही है। इस बड़ी चुनौती का महत्व आज की तारीख में तब ज्यादा समझा सकता है, जब भाषा, कला और संस्कृति के पूरे विवेक को ही आवारा पूंजी की ताकत गौरजरूरी करार देने पर तुली है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य के रचनात्मक विकास के साथ इस भाषा से जुड़ी संपूर्ण सांस्कृतिक निर्मिति को नामवर जी ने जो आलोचकीय धार दी, वह अद्वीतीय है। 
नामवर सिंह का जन्म 1927 में हुआ था। उनकी तरुणाई और देश की स्वाधीनता को अगर एक साथ देखें तो उस स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है, जब देश के साथ एक प्रखर युवा मन अपनी भाषा, संस्कृति और इतिहास की गोद में अपनी नई शिनाख्त की छटपटाहट से जूझ रहा होगा। गौरतलब है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ 1929 में लिख चुके थे। यानी देश की स्वाधीनता के साथ देश की सबसे प्रमुख भाषा के साहित्य और इतिहास का आलोचकीय निकष गढ़ा जा चुका था। यही नहीं ‘लोकमंगल’ और ‘परंपरा’ जैसे बीज शब्दों के साथ हिंदी रचनात्मकता को देखने-परखने के उपकरण सामने आ चुके थे। आगे अगर कोई चुनौती थी तो इन आलोचकीय उपकरणों के साथ हिंदी की रचनात्मक अस्मिता को और गहरे पहचानने की, उसे नए संदर्भों और नए मुहावरों से लैस करने की।
बड़ी बात यह भी है कि रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा के यहां हिंदी साहित्य की जो आलोचना भक्तिकाल, छायावाद और राष्ट्रीय भावधारा तक आते-आते ठहर जाती है। जाहिर है कि आजादी के बाद के भारतीय समाज के विरोधाभासी यथार्थों के बीच रचे गए नए साहित्य को लेकर आलोचकीय समझ बनाने की चुनौती बड़ी थी। नामवर जी अपने जिन आलोचकीय प्रतिमानों के कारण लोकिप्रय रहे और हिंदी आलोचना के शिखर आलोचक होने तक की स्वीकृति अपने जीते-जी पा गए, उन प्रतिमानों का एक सिरा अगर लोक और परंपरा के मस्तूलों से बंधा है, तो वहीं उसमें समाकालीन जीवन संदर्भों के बीच प्रगतिशील संवेदनात्मक तत्वों को पहचाने का आलोचकीय विवेक भी है।   
हिंदी साहित्य के साथ पूरे हिंदी समाज के लिए यह वाकई बड़े शोक की घड़ी है। हमारे दौर के महत्वपूर्ण कवियों में शामिल मंगलेश डबराल ने कहा भी कि यह हिंदी के प्रतिमानों की विदाई का त्रासद समय है। सोलह महीनों के छोटे से अंतराल में कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, कृष्णा सोबती और अब नामवर सिंह के निधन से जो जगहें खाली हुई हैं वे हमेशा खाली ही रहेंगी।
बनारसे के एक छोटे से गांव जायतपुर में जन्मे नामवर सिंह की चर्चा के साथ दो बातें हमेशा जुड़ी रहेंगी। एक तो उनकी भाषा से लेकर पूरे व्यक्तित्व को अपने गहन में लेनेवाला बनारसीपन और दूसरा अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिली आलोचकीय सीख को अमिट और अपराजेय बनाए रखने की उनकी जीवट जद्दोजहद। उनके व्यक्तित्व के ये दोनों रंग खासे ठेठ हैं। यहां तक कि नामवर जी खुद अपने जीवन संघर्षों के बीच भी इस ठेठ ठसक के साथ ही जीवट बने रहे।
आज पूरे देश में विश्वविद्यालयों में हिंदी विभागों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। नामवर सिंह को भुलाया इसिलए भी नहीं जा सकता क्योंकि उन्होंने स्वाधीन भारत में हिंदी आलोचना और विमर्श के केंद्र में विश्वविद्यालयों को लाने की दरकार को सबसे पहले समझा था। नए दौर में उच्च शिक्षा केंद्रों में हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाए बगैर हिंदी ज्ञान परंपरा का विकास असंभव है, वे इस बात को समझते थे। देश के सबसे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय में अपनी अगुआई में भारतीय भाषा केंद्र की स्थापना कराने और फिर उसे आकादमिक स्वीकृति दिलाने में उनका अध्यापकीय योगदान ऐतिहासिक है।
‘नई कविता’ और ‘नई कहानी’ को लेकर हिंदी आलोचना का जो नया प्रतिमान लेकर नामवर सिंह लेकर आए, वह नए भारतीय समाज और संस्कार के लिए भी एक मार्गदर्शक सिद्धांत की तरह है। यह सिद्धांत हमें लगातार इस बात के लिए आगाह करता रहेगा कि लोक, परंपरा और आधुनिकता हमारी संस्कृति के आलग-आलग टापू नहीं बल्कि एक ऐसी साझी विरासत हैं, जिसमें से एक का भी अलगाव हमें भाषा, समाज और संस्कृति के मजबूत साझेपन से अलग-थलग कर देगा। यह भी कि बात सैद्धांतिक प्रतिबद्धता की हो कि सामाजिक सुधार के आंदोलनात्मक तकाजों की, इनके लिए हमें कहीं और ताकने-निहारने की जरूरत नहीं बल्कि इनके बीज संस्कार हमारी परंपराओं में पहले से हैं।
आज जब नामवर जी हमारे बीच नहीं हैं, तो जो एक बात हमें सबसे ज्यादा सालेगी वह यह कि भाषा को सारस्वत रूप से धन्य करने वाली ऐसी नामवरी प्रतिभा अब हमारे बीच नहीं होगी, जिसने विमर्श और आलोचना को लेखन और पठन-पाठन के साथ वाचिक रूप से लगातार सशक्त बनाए रखा, उसे लगातार नई धार और तेवर देता रहा। 
‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘कहानी नई कहानी’ जैसे लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक के साथ हमारे समय में हिंदी की अस्मिता को गरिमा और स्वीकृति की सबसे समादृत पहचान को खोना, हिंदी भाषा से आगे पूरी हिंदी संस्कृति के लिए एक बड़ा आघात है। यह आघात इसलिए भी बड़ा है क्योंकि हमारे दौर का लोकतांत्रिक सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श आज गहरे संकट में है। संकट की इस घड़ी में नामवर जी के लिखे-कहे की ताकत हमारी चेतना और विवेक के हौसले को हारने नहीं देगी, इस उम्मीद के साथ डॉ. नामवर सिंह को असंख्य हिंदी जनों का साझा नमन।

शनिवार, 26 जनवरी 2019

जिद्दी प्रतिरोध की अक्षर दुनिया


- प्रेम प्रकाश

भारत में महिला लेखन के जरिए स्त्री संघर्ष, चेतना और अस्मिता की जो अक्षर दुनिया पिछले कुछ दशकों में आबाद हुई है, उस दुनिया में रचनात्मक हस्तक्षेप की जो सबसे बड़ी धुरी है, उसे चिन्हित करने में कृष्णा सोबती का बड़ा योगदान रहा है। कृष्णा जी ने महिलावादी आंदोलन की वैश्विकता के बीच स्त्री, समाज और परंपरा को अपने तरीके से एक सीध में रखकर देखा। 1950 में कहानी ‘लामा’ से साहित्यिक सफर शुरू करने वाली इस महान लेखिका ने महिला पक्ष के साथ अपने समय के हस्तक्षेप को भी काफी निर्भीक तरीके से लिखा और बोला। इसलिए उनके लेखन और जीवन की रचनात्मक चौहद्दी को बांधना आसान नहीं है।

उनके लेखन में अगर किसी पहाड़ी नदी की तरह आधी दुनिया की हहराती संवेदना है तो समय और समाज की उस चिंता से भी वह हरसंभव मुठभेड़ करती हैं, जिसके लिए कलम को सीधे-सीधे आंदोलन और प्रतिरोध का हथियार बनना पड़ता है।

यह नहीं कि आज जब कृष्णा सोबती हमारे बीच नहीं हैं, तो उनके लेखन और जीवन को लेकर हम भावनात्मक रूप से अतिरिक्त रूप से विवश या सम्मोहन का शिकार हुए जा रहे हैं, बल्कि यह तो उनके जीते-जी ही हो गया था कि समकालीन भारतीय साहित्य की कोई भी कतार बगैर उनके नाम के पूरी नहीं होती है। उनकी नाक पर चढ़े बड़े ऐनक में हम सब अपनी दुनिया को आलोचकीय विवेक के साथ देखने-समझने के आदी बहुत पहले हो गए हैं।

उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए हम अगर उस दौर की स्थितियों को देखें-समझें, जब वो अपनी स्वीकृति और उभार के लिए संघर्ष कर रही थीं तो साफ दिखता है कि नई कहानी आंदोलन के भीष्म साहनी और कमलेश्वर से लेकर राजेंद्र यादव जैसे नामवर सितारों के बीच एक लेखिका कैसे अपने जिद्दी महिला किरदारों के साथ कथा और जीवन का एक नया साझा रचने का जोखिम उठाती है। हिंदी संवेदना की अक्षर दुनिया में यह एक बड़ा मोड़ ही नहीं, एक साहसी हस्तक्षेप भी था। मृदुला गर्ग से लेकर ममता कालिया, नासिरा शर्मा और उनके बाद की कथाकारों तक यह दुनिया अगर लागातार आबाद और सघन होती चली गई तो इसलिए क्योंकि इस विस्तार को कृष्णा जी पाठकों के बीच बड़ी स्वीकृति दिला चुकी थीं। हिंदी आलोचना ने इस रचनात्मक स्वीकृति के दमखम को भले देर-सबेर पहचाना हो पर स्त्री विमर्श का समकालीन सर्ग आज अगर एक बड़ी आलोचकीय दरकार का नाम है तो इसलिए क्योंकि इसने जीवन और लेखन के पुरुषवादी मिथ को निणार्यक रूप से तोड़ दिया है।

कृष्णा जी को पिछले साल ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। इससे पहले उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के लिए उन्हें वर्ष 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फेलोशिप से भी नवाजा गया था। इसके अलावा पद्मभूषण, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान जैसे अलंकरण उनकी यशस्विता को बढ़ाते हैं। उन्होंने अपने लेखन से हिंदी की कम से कम दो पीढ़ियों को रचनात्मक संवेदना से जोड़ा है। उनके कालजयी उपन्यासों में ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘जिंदगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय सरगम’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘हम हशमत’, ‘बादलों के घेरे’ ने कथा साहित्य को अप्रतिम ताजगी और स्फूर्ति प्रदान की है।

उनकी रचनात्मक सक्रियता के आखिरी दिनों में आई ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ जैसी पुस्तकें ये दिखाती हैं कि वह मौजूदा देशकाल और परिस्थिति को देखते-समझते हुए किस तरह अपने रचनात्मक शिल्प और कथ्य को लगातार विचार और लोकतंत्र की हिफाजत के औजार के तौर पर मांज रही थीं।

18 फरवरी 1924 को गुजरात (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मीं कृष्णा सोबती हमेशा साहसपूर्ण रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती रहेंगी। निजी जिंदगी से लेकर अपने शब्दों की दुनिया को वे लगातार इस काबिल बनाए रखने में सफल रहीं, जिस कारण उनके प्रति सम्मान रखने वालों का समाज हर तरह के इकहरेपन का अतिक्रमण करता है। दिलचस्प है कि यह अतिक्रमण खुद उनके जीवन और लेखन का भी हिस्सा रहा है। 94 साल का जीवन जिस दुनिया में उन्होंने जिया, उसमें जब-जब कोई महिला आजादख्याली की बात करेगी, जब-जब लेखकों-बौद्धिकों की जमात अभिव्यक्ति की निर्भीक आजादी की बात करेगी, तब-तब उनकी स्मृति हमें रचनात्मक ऊर्जा से समृद्ध करती रहेगी।

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

बापू तो रहे याद भूल गए बा को!

- प्रेम प्रकाश


बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी

दो अक्टूबर 2019 को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती को लेकर सरकार और समाज दोनों उत्साहित हैं। खासतौर पर पीएम मोदी ने बापू की150वीं जयंती को राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के लक्ष्य के साथ जोड़कर इसे 2014 से ही चर्चा में ला दिया है। पर यह देश और सरकार दोनों भूल यह गई कि अगले वर्ष बापू के साथ बापू की भी 150वीं जयंती है। यही नहीं, कस्तूरबा (11 अप्रैल 1869 - 22 फरवरी 1942) चूंकि गांधी से 6 माह बड़ी थीं, इसलिए बा की जयंती दो अक्टूबर से पहले 11 अप्रैल को ही मनाई जाएगी।

कस्तूरबा और गांधी आधुनिक विश्व में दांपत्य की सबसे सफल मिसाल हैं। बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। तारीखी अनुभव के तौर पर भी देखें तो बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने न सिर्फ हर कदम पर अपने पति का साथ दिया, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का फैसला किया। यहां तक गांंधी के अहिंसक संघर्ष की राह में वे गांदी से पहले जेल भी गईं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी। उन्होंने नई तालीम को लेकर गांधी के प्रयोग को सबसे पहले अमल में लाई।

इसी तरह चरखा और स्वच्छता को लेकर गांधी के प्रयोग को मॉडल की शक्ल देने वाली कोई और नहीं, बल्कि कस्तूरबा ही थीं। इसको लेकर कई प्रसंगों की चर्चा खुद गांधी ने भी की है। कहना हो तो कह सकते हैं कि शिक्षा, अनुशासन और स्वास्थ्य से जुड़े गांधी के कई बुनियादी सबक के साथ स्वाधीनता संघर्ष तक कस्तूरबा का जीवन रचनात्मक दृढ़ता की बड़ी मिसाल है।

धन्यवाद के पात्र हैं गांधी की लीक पर चले रहे वे कुछ सर्वोदयी, जिन्होंने बा और बापू की प्रेरणा को साझी विरासत के तौर पर जिंदा रखा। इस मौके पर ‘बा-बापू 150’ के नाम से जहां गांधी के इन अनुयायियों ने देशव्यापी यात्रा काफी पहले शुरू कर दी है, वहीं इस अभियान के तहत कुछ और कार्यक्रम भी हो रहे हैं। पर जहां तक रही सरकार और समाज की मुख्यधारा की बात तो शायद उनकी स्मृति से बा की विदायी हो चुकी है। 

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

दलित मुद्दे पर भाजपा का इनकाउंटर

- प्रेम प्रकाश





एस-एसटी एक्ट को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पैदा हुआ असंतोष अब पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है

जिन राजनीति और समाज विज्ञानियों को यह लगता था कि मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल है, उनके लिए दो अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम नींद से जगाने वाला है। एससी-एसटी एक्ट के संबंध में बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों की तरफ से आयोजित भारत बंद का व्यापक असर हुआ। बंद के दौरान हिंसा भी हुई। खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में हिंसा और आगजनी की कई घटनाएं हुई। दिलचस्प है कि एक्ट पर फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है। केंद्र सरकार ने तो इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। फिर भी बंद और विरोध के निशाने पर केंद्र सरकार रही। उसी के खिलाफ नारे लगे और उसी की नीतियों और मंशा को लेकर सवाल उठे, सड़कों पर असंतोष दिखा।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की थी। यह सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई थी। ये गाइडलाइंस फौरन लागू हो गई थी। इसके तहत अब शिकायत के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत से होगी और अगर आरोपी सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी। यही नहीं, इस मामले में अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत मंजूर या नामंजूर करेंगे। इस अदालती फैसले का आधार कहीं न कहीं यह है कि एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 शिकायतें दर्ज हुईं। जांच में 935 झूठी पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित संगठनों को लगता है कि कहीं न कहीं सरकार उसे मिले न्यायिक सुविधा या अधिकार के कटौती के पक्ष में है। जबकि जिस मामले में सर्वोच्च अदालत ने नया फैसला सुनाया है, उसमें सरकार कहीं से भी पार्टी नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी एक्ट के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका दायर की। पर कोर्ट ने सोमवार यानी भारत बंद के एलान के दिन इस पर फौरन सुनवाई से मना कर दिया।
दरअसल, यह पूर मामला अब कहीं न कहीं राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है। इस सियासी वार-प्रतिवार के पीछे एक बड़ी वजह 2019 का लोकसभा चुनाव है। यही वजह है कि महज 13 दिन के भीतर इस मामले पर तकरीबन सारा विपक्ष एक सुर में बोलता दिखा।
गैरतलब है कि देश में एससी-एसटी की आबादी 20 करोड़ और लोकसभा में इस वर्ग से 131 सांसद आते हैं। जाहिर है कि इस वर्ग के साथ हर दल के हित जुड़े हैं। यहां तक कि भाजपा के भी सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से हैं। साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बड़ा गणित कहीं न कहीं दलित और पिछड़ों की राजनीति का है। भाजपा का कसूर सिर्फ इतना है उनके और संघ परिवार के कुछ नेताओं ने जिस तरह आरक्षण और जाति के मुद्दे पर जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे विपक्ष को दलितों-पिछड़ों को यह कहने-समझाने में मदद मिली है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आरक्षण सहित इस वर्ग के कई संवैधानिक सम्मत अधिकारों पर कैंची चलाने की मंशा रखती है। अलबत्ता इस धारणा का खंडन खुद प्रधानमंत्री तक ने कई बार किया। पर खासतौर पर जिस तरह से भाजपा के त्रिपुरा में सत्तारूढ़ होने के बाद बिहार, प. बंगाल, यूपी, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर केरल तक देश का राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम बदला है, उसने भाजपा विरोध का एक नया मंच खड़ा कर दिया है। यह मंच दलित राजनीति का है, मंडलवादी राजनीति के आक्रामक और हिंसक एक्सटेंशन का है।