बीते साल में दिल्ली में दो नई सरकारें आईं, एक केंद्र की तो दूसरी दिल्ली प्रदेश की। दोनों सरकारों ने बदलाव के बड़े-बड़े दावे किए। इन दावों की राजनीतिक व्याख्या और समीक्षा तो खैर मीडिया में हर दिन चल रही है पर सांस्कृतिक स्तर पर इसे देखें-समझें तो समय और समाज का ऐसा चित्र सामने आएगा, जिस पर हम कम से कम सीधे-सीधे तो नाज नहीं कर सकते। जाहिर है कि ये अफसोस से भर देनेवाला परिदृश्य है।
दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेता जेपी अग्रवाल को यह गंवारा नहीं था कि वे जिस रामलीला कमेटी के प्रमुख थे, वह कमेटी अपने आयोजन में प्रधानमंत्री को बुलाए। बस क्या था, उन्होंने रामलीला कमेटी को ही राम-राम कह दिया। दिल्ली की ही एक दूसरी घटना में रामलीला देखने गई दो साल की बच्ची के साथ बदमाशों ने दुष्कर्म किया। बात देश की राजधानी की चल ही रही है तो साथ में यह जोड़ते चलें कि इस बार चमक-दमक और ग्लैमर ने रामलीला का एक तरह उत्तर-आधुनिक कल्प ही रच दिया। टीवी कलाकार रामकथा के पात्र बनकर मंच पर उतरे तो मोनिका बेदी से लेकर बार डांसरों तक ने रामलीला के मंच पर ठुमके लगाए।
पुरस्कार वापसी की लीला
रामलीला की चर्चा से पूर्व यह प्रसंग इसलिए कि हमें उस देशकाल को समझने का अंदाजा हो जाता है कि जिसमें आस्था का निर्वाह और उसके साथ खिलवाड़ दोनों ही एक बराबर हैं। कमाल की बात है कि इस बीच, देशभर के कथित तौर पर प्रगतिशील खेमे के साहित्यकारों के बीच साहित्य अकादमी और पद्म पुरस्कारों को लौटाने की होड़ मची है। और यह सब हो रहा है दादरी कांड के बहाने असहिष्णुता और सांप्रदायिकता के नाम पर। सांस्कृतिक स्फीति की चिंता यहां उस तरह नहीं है, जिस तरह की चिंता कम से कम कला और साहित्य के क्षेत्र के लोगों के बीच होनी चाहिए।
वैसे यह पूरा न तो आखिरी है और न ही अंतिम। क्योंकि यही और महज इतना ही सच नहीं है। वैसे भी महज दिल्ली-मुंबई को देखकर इस देश के सांस्कृतिक चरित्र पर कोई अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती। लोक, आस्था और परंपराओं को हृदय से लगाकर रखने वाला हमारा देश विशिष्ट और महान इसलिए है कि यहां नए और पुराने के बीच अलगाव नहीं बल्कि एक समन्वयीय रेखा हमेशा से खींचती रही है। यह रेखा ही बहुलता और विविधता के इस देश को एकरंगता या एकरसता से नहीं भरने देती।
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी को नहीं लगता कि भारत में कोई सर्वधमã समभाव की स्थिति है। वे भारत में धर्म विशेष को लेकर भय की स्थिति की भी बात करते हैं। ये सारी बातें अमेरिका ही नहीं, देश के भीतर भी कही-सुनी जा रही हैं, खासतौर पर हाल के दादरी कांड के बाद। पर सांप्रदायिकता के नाम पर होने वाली राजनीति और अतिरेक से भरी बयानबाजी का ही असर है कि इस बार मीडिया ने कई ऐसी खबरें/स्टोरीज कीं, जिसमें देश-समाज का पारंपरिक सद्भाव बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के आज भी कायम है। यूपी के सहारनपुर से लेकर बिहार के बक्सर तक सद्भाव के अनेकानेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो सांस्कृतिक तौर पर खासे जीवंत और प्रेरक हैं।
दिलचस्प है कि यह सद्भाव सबसे ज्यादा रामलीला खेलने के मौके पर दिखाई देते हैं। कहीं लीला मंच पर सारे कलाकार मुस्लिम समुदाय के हैं, तो कहीं लीला आयोजन को नियामकीय स्तर पर संभालने वालों में गैरहिंदू समुदाय के लोग हैं। यह अलग बात है कि भारतीय संस्कृति की इस आंतरिक बलिष्ठता-श्रेष्ठता को न तो सियासी जमातें अपने लिए फलदायी पाती हैं और न ही संस्कृति के अलंबरदारों ने इस दिशा में अपनी तरफ से कुछ सोचा-किया।
बहरहाल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलवाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढेè चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिदु भी हो सकता है।
रामनगर की लीला
बनारस के रामनगर में पिछले करीब 18० सालों से रामलीला खेली जा रही है। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है।
'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है’, यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डॉ. इंदुजा अवस्थी का।
परंपरा ही हावी
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की बहुलता और अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 1०-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी हैं, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में »ृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर
रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है।
हर बोली-संस्कृति में राम
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्रजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बांहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानो सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। रामकथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरिशस, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपराएं हैं। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य की कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।
दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेता जेपी अग्रवाल को यह गंवारा नहीं था कि वे जिस रामलीला कमेटी के प्रमुख थे, वह कमेटी अपने आयोजन में प्रधानमंत्री को बुलाए। बस क्या था, उन्होंने रामलीला कमेटी को ही राम-राम कह दिया। दिल्ली की ही एक दूसरी घटना में रामलीला देखने गई दो साल की बच्ची के साथ बदमाशों ने दुष्कर्म किया। बात देश की राजधानी की चल ही रही है तो साथ में यह जोड़ते चलें कि इस बार चमक-दमक और ग्लैमर ने रामलीला का एक तरह उत्तर-आधुनिक कल्प ही रच दिया। टीवी कलाकार रामकथा के पात्र बनकर मंच पर उतरे तो मोनिका बेदी से लेकर बार डांसरों तक ने रामलीला के मंच पर ठुमके लगाए।
पुरस्कार वापसी की लीला
रामलीला की चर्चा से पूर्व यह प्रसंग इसलिए कि हमें उस देशकाल को समझने का अंदाजा हो जाता है कि जिसमें आस्था का निर्वाह और उसके साथ खिलवाड़ दोनों ही एक बराबर हैं। कमाल की बात है कि इस बीच, देशभर के कथित तौर पर प्रगतिशील खेमे के साहित्यकारों के बीच साहित्य अकादमी और पद्म पुरस्कारों को लौटाने की होड़ मची है। और यह सब हो रहा है दादरी कांड के बहाने असहिष्णुता और सांप्रदायिकता के नाम पर। सांस्कृतिक स्फीति की चिंता यहां उस तरह नहीं है, जिस तरह की चिंता कम से कम कला और साहित्य के क्षेत्र के लोगों के बीच होनी चाहिए।
वैसे यह पूरा न तो आखिरी है और न ही अंतिम। क्योंकि यही और महज इतना ही सच नहीं है। वैसे भी महज दिल्ली-मुंबई को देखकर इस देश के सांस्कृतिक चरित्र पर कोई अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती। लोक, आस्था और परंपराओं को हृदय से लगाकर रखने वाला हमारा देश विशिष्ट और महान इसलिए है कि यहां नए और पुराने के बीच अलगाव नहीं बल्कि एक समन्वयीय रेखा हमेशा से खींचती रही है। यह रेखा ही बहुलता और विविधता के इस देश को एकरंगता या एकरसता से नहीं भरने देती।
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी को नहीं लगता कि भारत में कोई सर्वधमã समभाव की स्थिति है। वे भारत में धर्म विशेष को लेकर भय की स्थिति की भी बात करते हैं। ये सारी बातें अमेरिका ही नहीं, देश के भीतर भी कही-सुनी जा रही हैं, खासतौर पर हाल के दादरी कांड के बाद। पर सांप्रदायिकता के नाम पर होने वाली राजनीति और अतिरेक से भरी बयानबाजी का ही असर है कि इस बार मीडिया ने कई ऐसी खबरें/स्टोरीज कीं, जिसमें देश-समाज का पारंपरिक सद्भाव बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के आज भी कायम है। यूपी के सहारनपुर से लेकर बिहार के बक्सर तक सद्भाव के अनेकानेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो सांस्कृतिक तौर पर खासे जीवंत और प्रेरक हैं।
दिलचस्प है कि यह सद्भाव सबसे ज्यादा रामलीला खेलने के मौके पर दिखाई देते हैं। कहीं लीला मंच पर सारे कलाकार मुस्लिम समुदाय के हैं, तो कहीं लीला आयोजन को नियामकीय स्तर पर संभालने वालों में गैरहिंदू समुदाय के लोग हैं। यह अलग बात है कि भारतीय संस्कृति की इस आंतरिक बलिष्ठता-श्रेष्ठता को न तो सियासी जमातें अपने लिए फलदायी पाती हैं और न ही संस्कृति के अलंबरदारों ने इस दिशा में अपनी तरफ से कुछ सोचा-किया।
बहरहाल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलवाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढेè चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिदु भी हो सकता है।
रामनगर की लीला
बनारस के रामनगर में पिछले करीब 18० सालों से रामलीला खेली जा रही है। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है।
'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है’, यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डॉ. इंदुजा अवस्थी का।
परंपरा ही हावी
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की बहुलता और अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 1०-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी हैं, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में »ृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर
हर बोली-संस्कृति में राम
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्रजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बांहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानो सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। रामकथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरिशस, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपराएं हैं। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य की कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।