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सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

रामलीला 2015

बीते साल में दिल्ली में दो नई सरकारें आईं, एक केंद्र की तो दूसरी दिल्ली प्रदेश की। दोनों सरकारों ने बदलाव के बड़े-बड़े दावे किए। इन दावों की राजनीतिक व्याख्या और समीक्षा तो खैर मीडिया में हर दिन चल रही है पर सांस्कृतिक स्तर पर इसे देखें-समझें तो समय और समाज का ऐसा चित्र सामने आएगा, जिस पर हम कम से कम सीधे-सीधे तो नाज नहीं कर सकते। जाहिर है कि ये अफसोस से भर देनेवाला परिदृश्य है।
दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेता जेपी अग्रवाल को यह गंवारा नहीं था कि वे जिस रामलीला कमेटी के प्रमुख थे, वह कमेटी अपने आयोजन में प्रधानमंत्री को बुलाए। बस क्या था, उन्होंने रामलीला कमेटी को ही राम-राम कह दिया। दिल्ली की ही एक दूसरी घटना में रामलीला देखने गई दो साल की बच्ची के साथ बदमाशों ने दुष्कर्म किया। बात देश की राजधानी की चल ही रही है तो साथ में यह जोड़ते चलें कि इस बार चमक-दमक और ग्लैमर ने रामलीला का एक तरह उत्तर-आधुनिक कल्प ही रच दिया। टीवी कलाकार रामकथा के पात्र बनकर मंच पर उतरे तो मोनिका बेदी से लेकर बार डांसरों तक ने रामलीला के मंच पर ठुमके लगाए।

पुरस्कार वापसी की लीला

रामलीला की चर्चा से पूर्व यह प्रसंग इसलिए कि हमें उस देशकाल को समझने का अंदाजा हो जाता है कि जिसमें आस्था का निर्वाह और उसके साथ खिलवाड़ दोनों ही एक बराबर हैं। कमाल की बात है कि इस बीच, देशभर के कथित तौर पर प्रगतिशील खेमे के साहित्यकारों के बीच साहित्य अकादमी और पद्म पुरस्कारों को लौटाने की होड़ मची है। और यह सब हो रहा है दादरी कांड के बहाने असहिष्णुता और सांप्रदायिकता के नाम पर। सांस्कृतिक स्फीति की चिंता यहां उस तरह नहीं है, जिस तरह की चिंता कम से कम कला और साहित्य के क्षेत्र के लोगों के बीच होनी चाहिए।
वैसे यह पूरा न तो आखिरी है और न ही अंतिम। क्योंकि यही और महज इतना ही सच नहीं है। वैसे भी महज दिल्ली-मुंबई को देखकर इस देश के सांस्कृतिक चरित्र पर कोई अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती। लोक, आस्था और परंपराओं को हृदय से लगाकर रखने वाला हमारा देश विशिष्ट और महान इसलिए है कि यहां नए और पुराने के बीच अलगाव नहीं बल्कि एक समन्वयीय रेखा हमेशा से खींचती रही है। यह रेखा ही बहुलता और विविधता के इस देश को एकरंगता या एकरसता से नहीं भरने देती।
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी को नहीं लगता कि भारत में कोई सर्वधमã समभाव की स्थिति है। वे भारत में धर्म विशेष को लेकर भय की स्थिति की भी बात करते हैं। ये सारी बातें अमेरिका ही नहीं, देश के भीतर भी कही-सुनी जा रही हैं, खासतौर पर हाल के दादरी कांड के बाद। पर सांप्रदायिकता के नाम पर होने वाली राजनीति और अतिरेक से भरी बयानबाजी का ही असर है कि इस बार मीडिया ने कई ऐसी खबरें/स्टोरीज कीं, जिसमें देश-समाज का पारंपरिक सद्भाव बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के आज भी कायम है। यूपी के सहारनपुर से लेकर बिहार के बक्सर तक सद्भाव के अनेकानेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो सांस्कृतिक तौर पर खासे जीवंत और प्रेरक हैं।
दिलचस्प है कि यह सद्भाव सबसे ज्यादा रामलीला खेलने के मौके पर दिखाई देते हैं। कहीं लीला मंच पर सारे कलाकार मुस्लिम समुदाय के हैं, तो कहीं लीला आयोजन को नियामकीय स्तर पर संभालने वालों में गैरहिंदू समुदाय के लोग हैं। यह अलग बात है कि भारतीय संस्कृति की इस आंतरिक बलिष्ठता-श्रेष्ठता को न तो सियासी जमातें अपने लिए फलदायी पाती हैं और न ही संस्कृति के अलंबरदारों ने इस दिशा में अपनी तरफ से कुछ सोचा-किया।
बहरहाल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलवाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढेè चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिदु भी हो सकता है।

रामनगर की लीला

 बनारस के रामनगर में पिछले करीब 18० सालों से रामलीला खेली जा रही है। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है।
'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है’, यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डॉ. इंदुजा अवस्थी का।

परंपरा ही हावी

लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की बहुलता और अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 1०-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी हैं, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में »ृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर
रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है।

हर बोली-संस्कृति में राम

तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्रजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बांहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानो सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। रामकथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरिशस, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपराएं हैं। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य की कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हांडी में अनशन और देह दर्शन

 कृष्ण जन्माष्टमी का हर्षोल्लास इस बार भी बीते बरसों की तरह ही दिखा। मंदिरों-पांडालों में कृष्ण जन्मोत्सव की भव्य तैयारियां और दही-हांडी फोड़ने को लेकर होने वाले आयोजनों की गिनती और बढ़ गई। मीडिया में भी जन्माष्टमी का क्रेज लगता बढ़ता जा रहा है। पर्व और परंपरा के मेल को निभाने या मनाने से ज्यादा उसे देखने-दिखाने की होड़ हर जगह दिखी। जब होड़ तगड़ी हो तो उसमें शामिल होने वालों की ललक कैसे छलकती है, वह इस बार खास तौर पर दिखा। दिलचस्प है कि कृष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि लीला पुरुषोत्तम हैं, उनकी यह लोक छवि अब तक कवियों-कलाकारों को उनके आख्यान गढ़ने में मदद करती रही है। अब यही छूट बाजार उठा रहा है।      
हमारे लोकपर्व अब हमारे कितने रहे, उस पर हमारी परंपराओं का रंग कितना चढ़ा या बचा हुआ है और इन सब के साथ उसके संपूर्ण आयोजन का लोक तर्क किस तरह बदल रहा है, ये सवाल चरम भोग के दौर में भले बड़े न जान पड़ें पर हैं ये बहुत जरूरी। मेरे एक सोशल एक्टिविस्ट साथी अंशु ने ईमेल के जरिए सूचना दी कि उन्हें  कृष्णाष्टमी पर नए तरह की ई-ग्रीटिंग मिली। उन्हें किसी रिती देसाई का मेल मिला। मेल में जन्माष्टमी की शुभकामनाएं हैं और साथ में है उसकी एस्कार्ट कंपनी का विज्ञापन, जिसमें एक खास रकम के बदले दिल्ली, मुंबई और गुजरात में कार्लगर्ल की मनमाफिक सेवाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। मेल के साथ मोबाइल नंबर भी है वेब एड्रेस भी। मित्र को जितना मेल ने हैरान नहीं किया उससे ज्यादा देहधंधा के इस हाईटेक खेल के तरीके ने परेशान किया।
लगे हाथ जन्माष्टमी पर इस साल दिखी एक और छटा का जिक्र। एक तरफ जहां गोविंदाओं की टोलियों ने अन्ना मार्का टोपी पहनकर भ्रष्टाचार की हांडी फोड़ी। अन्ना का अनशन दिल्ली के रामलीला मैदान में जनक्रांति का जो त्योहारी-मेला संस्करण दिखा वह मुंबई तक पहुंचते-पहुंचते प्रोटेस्ट का फैशनेबल ब्रांड बन गया। यही नहीं बार बालाओं से एलानिया मुक्ति पा चुकी मायानगरी मुंबई से पिछले साल की तरह इस बार भी खबर आई कि चौक-चारौहों पर होने वाले दही-हांडी उत्सव अब पब्स और क्लब्स तक पहुंच चुके हैं। देह का भक्ति दर्शन एक पारंपरिक उत्सव को जिस तरह अपने रंग में रंगता जा रहा है, वह हाल के सालों में गरबा के बाद यह दूसरा बड़ा मामला है, जब किसी लोकोत्सव पर बाजार ने मनचाहे तरीके से डोरे डाले हैं। ऐसा भला हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज भक्ति का बाजार सबसे बड़ा है और इसी के साथ डैने फैला रहा है भक्तिमय मस्ती का सुरूर। मामला मस्ती का हो और देह प्रसंग न खुले ऐसा तो संभव ही नहीं है।   
बात कृष्णाष्टमी की चली है तो यह जान लेना जरूरी है कि देश में अब तक कई शोध हो चुके हैं जो कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की संगति की पड़ताल करते हैं। महाभारत में न तो गोपियां हैं और न राधा। इन दोनों का प्रादुर्भाव भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में हुआ। रवींद्र जैन की मशहूर पंक्तियां हैं- 'सुना है न कोई थी राधिका/ कृष्ण की कल्पना राधिका बन गई/ ऐसी प्रीत निभाई इन प्रेमी दिलों ने/ प्रेमियों के लिए भूमिका बन गई।' दरअसल राम और कृष्ण लोक आस्था के सबसे बड़े आलंबन हैं। पर राम के साथ माधुर्य और प्रेम की बजाय आदर्श और मर्यादा का साहचर्य ज्यादा स्वाभाविक दिखता है। इसके लिए गुंजाइश कृष्ण में ज्यादा है। वे हैं भी लीलाधारी, जितना लीक पर उतना ही लीक से उतरे हुए भी। सो कवियों-कलाकारों ने उनके व्यक्तित्व के इस लोच का भरसक फायदा उठाया। लोक इच्छा भी कहीं न कहीं ऐसी ही थी।
नतीजतन किस्से-कहानियों और ललित पदों के साथ तस्वीरों की ऐसी अनंत परंपरा शुरू हुई, जिसमें राधा-कृष्ण के साथ के न जाने कितने सम्मोहक रूप रच डाले गए। आज जबकि प्रेम की चर्चा बगैर देह प्रसंग के पूरी ही नहीं होती तो यह कैसे संभव है कि प्रेम के सबसे बड़े लोकनायक का जन्मोत्सव 'बोल्ड' न हो। इसलिए भाई अंशु की चिंता हो या मीडिया में जन्माष्टमी के बोल्ड होते चलन पर दिखावे का शोर-शराबा। इतना तो समझ ही लेना होगा  कि भक्ति अगर सनसनाए नहीं और प्रेम मस्ती न दे, तो सेक्स और सेंसेक्स के दौर में इनका टिक पाना नामुमकिन है।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

50 लाख पन्नों पर लिखी दोस्ती


प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहतीं थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं। फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में अगस्त के पहले रविवार से शुरू होगा उसके पीछे का अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से भी परदा उठाता है।
फ्रेंडशिप डे या मैत्री दिवस को मनाने का ऐतिहासिक सिलसिला 1935 में तब शुरू हुआ जब यूएस कांग्रेस ने दोस्तों के सम्मान में इस खास दिन को मनाने का फैसला किया। इस फैसले तक पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी वजह प्रथम विश्वयुद्ध के वे शर्मनाक अनुभव बनी जिसने देशों के साथ समाज के भीतर संबंधों के सारे सरोकारों को तार-तार कर दिया। इस त्रासद अनुभव को सबने मिलकर अनुभव किया। तभी बगैर किसी हील-हुज्जत के यह सर्वसम्मत राय बनने लगी कि अगर हम संबंधों के निभाने के प्रति समय रहते संवेदनशील जज्बे के साथ सामने नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं जब मानव इतिहास का कोई भी हासिल बचा नहीं रख पाएंगे। आलम यह है कि पिछले कई दशकों से  दुनिया के सबसे ताकतवर देश का तमगा हासिल करने वाले देश से मैत्री को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा आज पूरी दुनिया के कैलेंडर की एक खास तारीख है। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े इस जरूरत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी 1997 में एक अहम फैसला लिया। उसने लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती का राजदूत घोषित किया।
पिछले दस सालों में दोस्ती का यह पर्व उसी तरह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ है जिस तरह वेंलेंटाइन डे। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है। लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते हैं- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।' जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते हैं।
फेंड और फ्रेंडशिप का जिक्र हो रहा हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती के महापर्व की हो तो इन युवाओं को कैसे भूला जा सकता है। हाल में टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे "इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।' इस  वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
स्थिति शायद उतनी निराशाजनक नहीं जितनी ऊपर से दिखती है। गूगल सर्च इंजन पर फ्रेंडशिप डे के दो शब्द जो 50 लाख से ज्यादा पन्ने हमारे सामने खोलता है उसमें कई सामाजिक संस्थाओं और दोस्तों के ऐसे समूहों के क्रिया-कलापों का बखान भी बखान भी है जो मानवीय संबंधों को हर तरह की त्रासदी से उबाड़ने में लगे हैं। खुशी की बात यह कि ऐसी पहलों का ज्यादातर हिस्सा युवाओं के हिस्से है। बहरहाल, पूरी दुनिया के साथ भारत भी मैत्री दिवस को मनाने के लिए तैयार है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधों और वचनों के मान के लिए सब कुछ दाव पर लगा देने वाले देश में लोक और परंपरा के साथ आधुनिकता के बीच दोस्ती के नए संकल्प पूरे होंगे।  

गुरुवार, 10 मार्च 2011

डबल मीनिंग वाली होली


मि बुरा न मानो होली है। मस्ती की इस टेर पर होली की मस्ती ने जाने कितनी चुहल और कितनी शरारतों ने मन से अंगराइयां भरी हैं। मस्ती के इतने सारे रंगों को किसी एक रंग में रंगा दिखना हो तो भारत के महान लोकपर्व होली की परंपरा का अवगाहन कोई भी कर सकता है। होली संबंधों से लेकर स्वादिष्ट पकवानों तक अनेक रूपों और अर्थों में हमारी लोक परंपरा का हिस्सा रहा है। पर पिछले कुछ सालों-दशकों में होली बदरंग हुआ है। इस लोकपर्व की सबसे बड़ी थाती उसके गीत रहे हैं, जो आज भी तकरीबन सभी लोक और शास्त्रीय घरानों की पहचान में शुमार है।
दुर्भाग्य से होली के ये पारंपरिक गीत आधुनिक बयार में या तो बदल रहे हैं या फिर अपने को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नतीजतन जिन होली गीतों में स्त्री-पुरुष और पारिवारिक संबंधों को लेकर मर्यादित विनोद और हंसी-ठिठोली के रंगारंग आयोजन होते थे, वहां सतहीपन और अश्लीलता इतना बढ़ी है कि अर्थ की पिचकारी की जगह द्विअर्थी तीर सीधे कानों को बेधते हैं। दिल्ली की एक संस्था ने कुछ साल पहले कुछ ऐसे भाषाई कैसेटों-एलबमों का अध्ययन किया था, जिनकी बिक्री बाजार में लोकगीत-संगीत के नाम पर होती है। इनके कवर पर छपी तस्वीरों और  टाइटल से कोई सहज ही इनके स्तर और कांटेंट का पता कर सकता है।
लोक के विलोप का खतरा बाजार के दौर में बढ़ा तो जरूर है पर इसका निपटना इतना आसान भी नहीं है। लिहाजा लोक छटा को बाजार अपनी तश्तरी में सजाकर मन-माफिक तरीके से बेच रहा है। लिहाजा लोक की विरासत कायम तो जरूर है पर यह इतनी विषाक्त जरूर हो जा रही है कि लोकगंगा के लिए अलग से सफाई अभियान की दरकार है।
पिछले साल रिलीज एक होली एलबम की बानगी देखिए- "का करता है तू सब रे। इ रंग लगा लगा रहा है कि लैकी के गाल पर पीडब्ल्यूडी का रोलर चला रहा है।' इस देशज डॉयलाग के बाद शुरू होता है होली गीत। गीत के बोल ऐसे जैसे लड़की को रंग लगाने का नहीं बल्कि सीधे बिस्तर पर आने का आमंत्रण दिया जा रहा हो। वैसे यह तो कम है, कई गीत तो अपनी मंशा से ज्यादा अपनी शब्दावली में ही इतने भोंडे होते हैं कि आप उन पर कोई चर्चा तक नहीं कर सकते। लोक गायिका मालिनी अवस्थी मानती हैं कि इन फूहड़ गीतों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। श्रोता और दर्शक थोड़े कम दोषी इसलिए हैं क्योंकि उनके पास चुनाव अब अच्छे-बुरे के बीच रहा ही नहीं। लिहाजा, कान उन कंपनियों का ऐंठना चाहिए जो होली के रंग-बिरंगे आयोजन को बदरंग कर रहे हैं। निशाने पर लोक परंपरा तो है ही, उनसे ज्यादा महिलाएं हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा फब्तियां और ओछी हरकतें उन्हें ही सहनी-उठानी पड़ती हैं। अगर यह लगाम  जल्द ही कसी नहीं गई तो इस महान लोकपर्व को महिला विरोधी करार दिए जाने का खतरा है।

बुधवार, 9 मार्च 2011

देखो कुंअर जी दूंगी गारी


होली पर्व प्रह्लाद और होलिका के पौराणिक प्रसंग से भले जुड़ता हो पर इसका असली रंग तो घर-परिवार और सामाज में ही देखने को मिलता है। भले अब होली का रंग थोड़ा बदरंग हो गया हो और खास तौर पर महिलाएं इसे मनाने से बचने लगी हैं। पर अब भी देश के ज्यादातर हिस्सों और परिवारों में होली उत्साह, मस्ती और आनंद का सौगात लेकर आता है। एक लोकपर्व के रूप में इस अनूठे त्योहार की लोकप्रियता पूरी दुनिया में इस कदर फैली है कि बिल Ïक्लटिंन की बेटी तक फगुनाहट की मस्ती में सराबोर होने के लिए राजस्थान पहुंचती है।
वैसे तो होली पूरे देश में मनाई जाती है पर अलग-अलग सांस्कृतिक अंचलों की होली की अपनी खासियत है। हां, एक बात जो सभी जगहों की होली में सामान्य है, वह है महिलाओं और पुरुषों के बीच रंग खेलने के बहाने अनूठे विनोदपूर्ण और शरारत से भरे प्रसंग। ये प्रसंग शुरू से होली की पहचान से जुड़े रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इस मस्ती में नहाने वाले कोई एक धर्म या संप्रदाय के लोग हों। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की लिखी होली आज भी लोग गाते हैं- 'क्यों मोपे मारे रंग की पिचकारी, देखो कुंअर जी दूंगी गारी।' फिल्मों के गीत याद करें तो चुहल और ठिठोली के कई बोल जेहन में एक के बाद एक आने लगते हैं। 'मदर इंडिया' के गीत 'होली आई रे कन्हाई रंग बरसे...सुना दे जरा बांसुरी' से लेकर "वक्त' फिल्म का माडर्न होली सांग 'गिव मी ए फेवर लेट्स प्ले होली...' तक फिल्मी होली गीतों की ऐसी पूरी श्रृंखला है, जहां होली के रंगों के बीच हीरो-हीरोइन के बीच दिलचस्प छेड़छाड़ चलती है। बात पूरबिया होली की करें तो यहां होली का रंग सबसे ठेठ और मस्ती से सराबोर है। यहां की होली का मस्ताना रंग यहां के पारंपरिक लोकगीतों में बी बखूबी मुखरित हुआ है। 'बंगला पे उड़ेला गुलाल...' से लेकर 'अंखिया लाले लाल...' तक कई ऐसे पारंपरिक गीत हैं जो आज भी गाए जाते हैं। दुखद है कि पारंपरिकता के इस अनमोल रंग में कुछ म्यूजिक कंपनियां और लोक गायक फूहड़ता और अश्लीलता का मिलावट कर रहे हैं, जिससे लोकरंग बदरंग हो रहा है। लोकगायिका मालिनी अवस्थी के मुताबिक, 'पारंपरिक होली गीतों की विरासत काफी समृद्ध और विविधता भरी है। बाजार के दौर में लोकगायकी को थोड़ा मिलावटी रंग जरूर दिया है पर आज भी पारंपरिक होली गीतों के कद्रदान ही ज्यादा हैं।'
इतिहासकार डॉ. शालिग्राम सिंह कहते हैं कि राधा-कृष्ण से लेकर जोधा-अकबर तक के विनोद पूर्ण होली प्रसंग देश में होली की परंपरा को रेखांकित करते हैं। आज भी होली में महिलाएं ही सबसे ज्यादा निशाने पर होती हैं और यह आलम घर-दफ्तर से लेकर स्कूल-कॉलेज तक सब जगह एक जैसी है। हाल के कुछ सालों में होली पर खुलकर नशा करने का प्रचलन बढ़ा है, जिससे अभद्रता से लेकर मारपीट तक की घटनाएं बढ़ गई हैं। दिल्ली के पालम इलाके में रहने वाली अमृता शर्मा बताती है कि वह होली पहले काफी उत्साह से मनाती थी क्योंकि उसे रंग बहुत पसंद हैं। पर अब वह घर से बाहर होली मनाने नहीं जाती क्योंकि इस दिन लड़कियों पर रंग भरे बैलून से लेकर कीचड़ तक फेंके जाते हैं, यही नहीं लड़के रंग लगाने के बहाने उनके साथ ओछी हरकत तक करने से बाज नहीं आते।
नोएडा निवासी सुमन भंडारी बताती हैं कि उनकी शादी दो साल पहले हुई है। होली के दिन उनके पति के दोस्त और देवर व उनके साथी होली करने की जिद करते हैं। सुमन बताती हैं कि ऐसे मौकों पर कई बार लोग नशे में भी रहते हैं और ऐसे में उन्हें अपनी सीमा का ख्याल नहीं रहता। इन अनुभवों से उलट आगरा की इंजीनियरिंग छात्रा नियति है, जिसे होली का इंतजार पूरे साल रहता है और वह अपनी सहेलियों के साथ इस दिन खूब मस्ती और हुड़दंग मचाती हैं। नियति कहती है कि होली रंग और उत्साह का त्योहार है और उसे अच्छा लगता है कि इस मौके पर वह अपनी सहेलियों के साथ खूब मस्ती करती हैं। वैसे नियति भी मानती है कि खास तौर पर होली पर युवतियों-महिलाओं का बाहर निकलना अब सहज नहीं रहा।
इस साल होली को शालीन, सभ्य और पारंपरिक तरीके से मनाने के लिए कई सामाजिक संगठनों मे पहल की है। होली मिलन की शक्ल में सामूहिक होली खेलकर सामाजिकता और पारिवारिकता के टूटते धागों को बांधने से लेकर बगैर पानी के होली खेलने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। उम्मीद है इस बार हाथ में पिचकारी लिए अमृता और सुमन जैसी लड़कियां बगैर किसी डर के होली  का आनंद उठाएंगी तो नियति जैसी किशोरियों की होली की मस्ती इस बार और बढ़ जाएगी।