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मंगलवार, 25 मार्च 2014

कहां खो गए समर्थन और विरोध के तकाजे


भारतीय गणतंत्र के जब पचास साल पूरे हुए थे तो देशभर में इसको लेकर कई कार्यक्रम हुए थे। ऐसे मौकों को एक पवित्रवादी आग्रह के साथ मनाने की भारतीय परंपरा काफी पुरानी है। गांधी जयंती से लेकर हिंदी दिवस तक ऐसे कई उदाहरण हैं। अलबत्ता ये उदारहरण अपने प्रदेयों और उपोयिगता को लेकर कितने बहुमूल्य हैं, यह भी हम जानते हैं। गणतंत्र के स्वर्णिम सर्ग में दर्ज होने के लिए संसद भी अलग से बैठी। तत्कालीन सांसदों ने लंबी-लंबी तकरीरें कीं। कुछ ने नए संकल्प लिए तो कुछ ने पुराने सबक दोहाराए।
यह अलग बात है कि माननीयों को न तो सबक भूलने में देर लगी और न संकल्प। उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर भारतबाला प्रोडक्शन ने एक छोटा सा एडनुमा कार्यक्रम बनाया था, बमुश्किल 3० सेकेंड का। इसमें टीवी स्क्रीन पर एक-एक शब्द करके एक वाक्य उभरता है- चलो हम इस बात पर सहमत हैं कि हम एक दूसरे से असहमत हैं। इसके थोड़े अंतराल के बाद दूसरा वाक्य- असहमति पर सहमति लोकतंत्र की नींव है। अब जबकि 16वीं लोकसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है तो इन दो पुराने उल्लेखों से कुछ बातें नए सिरे से समझी जा सकती हैं।
हिंदी साहित्य के प्रखर आलोचक और इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता में विरोधों के सामंजस्य की बात करते थे। कविता संवेदनाओं का लोकतंत्र है। इसलिए विरोधों के सामंजस्य की दरकार को एक लोकतांत्रिक दरकार ठहराया जा सकता है। पक्ष और विपक्ष के बीच तटस्थ जैसी स्थिति को न तो महाभारत में कृष्ण ने स्वीकार किया और न ही आधुनिक लोकतंत्र में इस स्टैंड को राइट एप्रोच माना
गया। अलबत्ता देश में अस्मितावादी राजनीति के दौर-दौरे के बीच विरोध से ज्यादा अंतर्विरोध की राजनीतिक ध्वनियों ने लोकतांत्रिक स्पेस को भरा।
बहरहाल, लोकसभा चुनावों में उतरने की पार्टियों और उनके नेताओं की तैयारियों को देखें तो कुछ बातें अभी से साफ हो गई हैं। भले लोकतंत्र के सुलेखवादी विमर्श में हम लाख बातें कहें-समझें पर सत्ता की राजनीति ने समर्थन और विरोध के बीच की लक्ष्मणरेखा को कब का अमान्य कर दिया है। यह सब हो रहा है जीत और सत्तारोहण के गणित के नाम पर। बाजार ने हमें बीते दो दशकों में सिखाया कि जेब में जिसके पैसा है, उसके लिए ही दुनिया है और अब राजनीति हमें सीखा रही है कि जो जीते वही सिकंदर। यानी विरोध का मतलब
अगर हार है तो ऐसा विरोध त्याज्य है। इसी
तरह समर्थन का अर्थ सत्ता नहीं तो फिर ऐसे समर्थन की दरकार और सरोकार दोनों ही बेमानी हैं।
दिल्ली की एक लोकसभा सीट से इस बार आम आदमी पार्टी की तरफ से राजमोहन गांधी चुनाव लड़ रहे हैं। वे काफी विनम्र और विज्ञजन हैं। पर राजनीति तो शुरू ही मजबूरी से होती है। आम आदमी पार्टी में शामिल होने से पहले उनका गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर एक बयान आया था। तब मोदी को भाजपा ने अपना पीएम कैंडिडेट नहीं बनाया था। राजमोहन ने मोदी का बहुत नामोल्लेख तो नहीं किया पर दुनिया की सबसे ऊंची सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा बनाने के उनके अभियान पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि इस अभियान से एक वर्टिकल होड़ शुरू होगी अपने-अपने नेताओं और प्रतीक पुरुषों की भव्य प्रतिमा स्थापित करने की।
कुल मिलाकर सम्मान के नाम पर शुरू होने वाली इस प्रतियोगिता में क्षेत्र और समुदायों के बीच एक ऐसी हिंसक भिड़ंत होगी जो देश और समाज के लिए सर्वथा अनिष्टकारी होगी। राजमोहन के इस बयान की सराहना में भले बहुत हाथ तब नहीं उठे पर उनके विरोध में भी शायद ही कोई बयान आया। पर अब राजमोहन आप के नेता हैं। एक-दो महीने तक उनके विचारों का चरित्र जितना मुक्त था, अब शायद नहीं। तभी तो आप को लेकर और उसके नेता अरविंद केजरीवाल के उतावलेपन को लेकर वह कोई सीधी टिप्पणी करने से बचते हैं यानी उन्होंने जानबूझकर एक चुप्पी ओढ़ रखी है। यानी राजमोहन भी समझते हैं कि अभी जनता से वोट लेने की बारी है। सो अभी नापतौल कर बोलना होगा। समर्थन और विरोध की मुद्रा एकदम से तटस्थ हो गई है।
यह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा विरोधाभासी सच है जो गणतंत्र के लिए समर्थन और विरोध की जरूरी दरकार को ही खारिज करते हैं। राजमोहन गांधी का नाम इसलिए नहीं कि वे इसके कोई बहुत बड़े कसूरवार हैं बल्कि इसलिए कि उनके जैसा समझदार और चारित्रिक सुदृढ़ता वाला व्यक्ति भी भारतीय गणतंत्र के इस अंतरविरोध को चुनौती
देने में संकोच करता है। उन्हें छोड़ दें फिर तो राहुल गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक और दिग्विजय सिंह से लेकर जगदंबिका पाल तक, सभी समर्थन और विरोध के अपने एजेंडे को जब जैसे चाहें बदल देते हैं, रद्द कर देते हैं। सामान्य समझ में यही तो है मौकापरस्ती की राजनीति।
इस बार के चुनावों को लेकर कहा जा रहा था कि ये देश में कुछ मुद्दों को लेकर राजनीतिक जमीन को इतनी ठोस कर देंगे कि अगले कुछ दशकों की देश की राजनीति इसी जमीन पर होगी। इसमें सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार को माना जा रहा था। जनता से राजनीतिक विमर्श करने वाले सभी लोग इस बात को अपने-अपने तरीके से मान रहे थे। यहां तक कि हाल तक के ओपिनियन पोल में भी भ्रष्टाचार को बड़ा चुनावी मुद्दा माना गया।
पर अगर दलों के टिकट वितरण के आधारों को देखें या फिर दल छोड़ने व नए दल
में शामिल होने के कारणों को देखें तो कम से कम भ्रष्टाचार कहीं से कोई मुद्दा नहीं है। इसी के साथ भ्रष्टाचार के समर्थन और विरोध को लेकर अंतिम रूप से लकीर खींचने की संभावना भी क्षीण हो गई, जिसे लेकर काफी उम्मीदें थीं।
अब ऐसी स्थिति में चुनावी राजनीति से इतर मौकों पर राजनेताओं की उन तकरीरों का क्या, जिसमें देश की लोकतांत्रिक महानता को बनाए और बचाए रखने के लिए खूब सारी बातें होती हैं, शपथें होती हैं। इसी तरह लोकतंत्र की अवधारणा को साफ करने वाली उन बुनियादी बातों का भी क्या जिसमें समर्थन और विरोध के बीच दुराव के बजाय समन्वय की तो बात होती है पर किसी मुद्दे को लेकर तटस्थतावादी घालमेल की कोई गुंजाइश नहीं। मुद्दा भ्रष्टाचार का हो, महंगाई का हो, चुनाव सुधार का हो या फिर विकास का, नहीं लगता कि जनता इस चुनाव में यह निर्णय ले पाएगी कि वह किस मुद्दे पर किसके साथ जाए और किसके विरोध में। जनता की यह मुश्किल ही आज भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसी स्थिति में इस बार के चुनावों में तारीख के हर्फ कितने बदलेंगे, कहना मुश्किल नहीं।
 

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