सरदार वल्लभ भाई पटेल जब देसी रियासतों का विलय भारत राज्य में कराने में लगे थे तो उन दिनों वह एक महत्वपूर्ण बात अकसर कहा करते थे। वह कहते थे कि देश के विभिन्न प्रांतों-क्षेत्रों, वर्गों-भाषा-भाषियों को भारत राज्य से जोड़ना इसलिए जरूरी है कि इससे ही भारतीयता की शिनाख्त पूरी होगी। ऐसा कहते हुए वे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की इस विलक्षणता को रेखांकित करना नहीं भूलते थे कि देश अगर स्वतंत्र है तो इसलिए कि इसमें सभी मजहब और सूबों के लोगों ने शिरकत की है, कुर्बानियां दी हैं। इन सबका जुड़ाव जैसा संघर्ष के दिनों में था, वैसा ही बाद में भी दिखना चाहिए। एकजुटता की यह ताकत ही भारत
की ताकत है।
अभी देश में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। दिलचस्प है कि चुनावी चर्चाओं के बीच सरदार का नाम भी लिया जा रहा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने तो गुजरात में उनकी दुनिया की सबसे भव्य प्रतिमा बनाने की मुहिम ही छेड़ रखी है। यह अलग बात है कि उनकी इस मुहिम के सियासी निहितार्थ निकालने वाले भी कम नहीं हैं। हाल में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात पहुंचे तो उन्होंने सरदार और मोदी के विरोधाभासों को रेखांकित करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि ऐसा करते हुए वह मौजूदा कांग्रेस पार्टी और उसके स्वर्णिम इतिहास के बीच बढ़ते विरोधाभास पर कुछ नहीं बोले।
दरअसल, आज जिन दलीलों और हवालों से चुनावी मैदान मारने में पार्टियां और उनके नेता लगे हैं, उनमें वैसे तत्वों का खासतौर पर अभाव है जो भारतीय गणतंत्र की तारीखी खासियत रही है। विकास, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता का मुद्दा मजबूत जरूर है पर इससे भी मजबूत भारतीय समाज की लोकतांत्रिक आस्था है।
इस आस्था के साथ आज किस कदर खिलवाड़ हो रहा है, इसे आप यों समझ सकते हैं- बिहार में लोकसभा की 4० सीटें हैं और वहां सबसे बड़ा मुद्दा विशेष राज्य का दर्जा है। एकजुट होकर भले न सही पर तकरीबन पार्टियां वहां इस मुद्दे का समर्थन कर रही हैं। फर्क बस यही है कि वे इस मुद्दे पर संघर्ष
का श्रेय बांटना नहीं चाहतीं। यह इस मुद्दे को लेकर बरती जाने वाली एक ऐसी सियासी बेईमानी है, जिसे जनता भी जरूर समझ
रही होगी।
ऐसा इसलिए भी कि पार्टियां अपने बीच की दूरियां जाहिर करने के लिए अत्यंत अगंभीर नाटकीय तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। मसलन, केंद्र से विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर जब जदयू ने बिहार बंद का कॉल दिया तो उससे एक दिन पहले भाजपा ने रेल रोको आंदोलन की तिथि तय कर मुद्दे को हथियाने की कोशिश की। इससे पहले दिल्ली में जब इसी मुद्दे पर जदयू ने दिल्ली में रैली की तो उसमें भाजपा को साथ नहीं लिया, जबकि तब सरकार में वह उसके साथ थी। बात बिहार की निकली है तो यहां एक बात का जिक्र जरूरी है। जब से बिहार को लोगों को परप्रांतीय विरोध के नाम पर दिल्ली से लेकर मुंबई तक गालियां-लाठियां खानी पड़ रही हैं, तब से बिहार अस्मिता का सवाल एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हो गया है। इसके पीछे कहीं न कहीं वोटबैंक की राजनीति भी है। बिहार में लोकसभा की 4० सीटें हैं। यूपी में सीटों की संख्या 8० है। दोनों सूबों की सीटों की गिनती मिला दें तो यह केंद्रीय सत्ता की दावेदारी को मजबूत करने वाली स्थिति है किसी भी पार्टी के लिए। आज अगर वाराणसी से नरेंद्र मोदी को भाजपा चुनावी मैदान में उतार रही है तो उसके पीछे सीधा गणित यही है कि यूपी और बिहार की 12० सीटों पर इसका सकारात्मक असर भाजपा को फायदा पहुंचाएगा।
पर इस फायदे-नुकसान में बिहारी अस्मिता का सवाल कहीं पीछे छूटता मालूम पड़ता है। चुनावी मैदान में भाजपा को इस सवाल का जवाब देना पड़ सकता है कि बिहारियों को मारने-पीटने और खदेड़ने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से उसकी बढ़ी नजदीकी का क्या मतलब है? क्या यह अपने सूबे से बाहर काम-धंधा करने वाले बिहारियों के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है। और अगर ऐसा है तो फिर भाजपा को बिहारी अस्मिता से खिलवाड़ का कसूरवार क्यों न ठहराया जाए।
गौरतलब है कि यह राजनीतिक दुर्दशा उस राज्य की है, जिसकी देश के लोकतांत्रिक इतिहास में भूमिका खासी उल्लेखनीय रही है। अशोक मेहता, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव में से कोई बिहारी नहीं हैं। पर बिहार की जनता ने देश की समाजवादी आंदोलन के इन दिग्गजों को संसद तक पहुंचाया।
यह इस राज्य की राजनीतिक या लोकतांत्रिक समझ की एक ऐसी मिसाल है जो आज इस सूबे की पहचान से जुड़े कई पूर्वाग्रहों को न सिर्फ खंडित करते हैं बल्कि एक नई बोधदृष्टि से उसे देखने की दरकार पेश करती है। इस लिहाज से देखें तो बिहार देश के लोकतांत्रिक नक्शे पर पहले से विशेष राज्य है। यह अलग बात है कि विशेषता की यह चमक अकेले बिहार के साथ नहीं है। बल्कि बिहार उसी तरह विशेष है जैसे गुजरात विशेष है, महाराष्ट्र विशेष है या फिर ओडिशा, तमिलनाडु या आंध्र विशेष है। इन बातों को तार्किक रूप से समझने में अगर कोई कठिनाई हो तो एक बार फिर से सरदार की बातों का स्मरण करें।
देश में फिर से चुनावी उत्सव चल रहा है। ऐसे में दल और नेता एक-दूसरे के खिलाफ भले ही हमलावर बोल बोलें, लेकिन उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों की ऐतिहासकिता को भी एक सातत्य प्रदान करने का दायित्व निभाना चाहिए, जिससे देश के लोकतंत्र के मंदिर में हर क्षेत्र का कम से कम एक दीपक तो जरूर जले।
साठ साल से भी लंबा देश का लोकतांत्रिक सफरनामा महज धिक्कार से भरने के लिए नहीं है बल्कि इसमें गौरव और यश के भी तमाम अनुभव शामिल हैं।
इन अनुभवों का सिलसिले को अगर हम जारी रखने में यकीन नहीं रखते तो इसका मतलब यही है कि न तो हमें अपने लोकतंत्र को लेकर न तो कोई फL है और न ही इसकी क्षमता को लेकर कोई भरोसा। अविश्वास का यह भाव खतरनाक है।
सत्ता की राजनीति के लिए दावों-प्रतिदावों, आरोपों-प्रत्यारोपों और वादों-इरादों से आगे कुछ सकारात्मकता की भी बात जरूर होनी चाहिए। यह देश के जागरूक मतदाताओं के लिए भी एक सम्मान की बात होगी क्योंकि इससे उसके दायित्वपूर्ण विवेक को तो मान मिलेगा ही, ऐसे ही जवाबदेह तरीके से लोकतांत्रिक दायित्व के पालन के लिए प्रोत्साहन भी मिलेगा। क्या इस सामयिक दरकार को देश की सियासी जमातें समझेंगी?
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