अब तक के जितने ओपिनियन पोल आए हैं उसमें बिहार में नीतीश कुमार का ग्राफ गिरता दिख रहा है। जदयू के भाजपा से अलग हो जाने के बाद नीतीश और उनके साथियों ने भले जो भी सोचा हो पर अब कहीं न कहीं इस फैसले को लेकर उनकी मुखरता फीकी पड़ी है। अलबत्ता यह चुनाव नतीजे बताएंगे कि बिहार में कौन कितने पानी में है।
बहरहाल, इस सियासी जोड़-तोड़ से बाहर एक बात, जिस पर नीतीश इन दिनों खासा जोर दे रहे हैं। वे कहते हैं, गठबंधन राजनीति के दौर में किसी को यह कहने का हक नहीं है कि उसके पक्ष में हवा बह रही है। यह गठबंधन के दौर में प्रकट हुए समावेशी जनादेश की कहीं न कहीं अवमानना है। इस मुद्दे पर चर्चा महज इसलिए नहीं कि इसे बिहार के मुख्यमंत्री रेखांकित कर रहे हैं बल्कि इसलिए कि यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर वाकई विचार होना चाहिए। यही नहीं, इस विमर्श में राजनीति व समाज के सभी वर्गों-इकाइयों में शरीक होना चाहिए। इस विमर्श से जुड़े दो-तीन प्रमुख प्रस्थानबिंदु हैं या यह कह लें कि सवाल हैं। एक तो यही कि 1989 के बाद से देश में किसी एक दल के बहुमत की सरकार नहीं बनी है।
इसी दौर में कांग्रेस और भाजपा ने अपने को बहुमत के बजाय सबसे बड़े दल होने की एक-दूसरे से होड़ लेने लगे। ऐसे में कोई दल या नेता यह कैसे कह सकता है कि उसके पक्ष में पूरे देश में हवा है। इसी तरह सामाजिक न्याय से शुरू होकर अस्मितावादी राजनीति ने जिस तरह भारत के संघीय ढांचे में राज्य सरकारों की भूमिका नए सिरे से रेखांकित की है, वह काफी महत्वपूर्ण है। दिलचस्प है कि इसी दौरान देश में विकास का उदार चरित्र देखने को मिला। नव-विकास के आंध्र से लेकर गुजरात मॉडल तक इसी दौरान सामने आए। इससे पहले तो चर्चा होती थी बस पंजाब-हरियाणा की हरित क्रांति की या फिर केरल में आए एजुकेशनल रिवोल्यूशन की।
इस तथ्य के बाद कोई यह कैसे आरोप लगा सकता है कि गठबंधन की मजबूरियों या अस्थिरता से देश में विकास पटरी से उतर जाता है। पर आज अगर देश की दोनों पार्टियां जनता को इस बात का खौफ दिखा रही हैं कि त्रिशंकु संसद चुनी गई या उन्हें सबसे ज्यादा सीटें नहीं मिलीं तो देश विकास के रास्ते से दूर हो जाएगा तो यह जनता को गुनराह करना नहीं है तो और क्या है।
भारतीय लोकतंत्र की प्रशस्ति गाने में हम काफी आगे रहते हैं। सबसे बड़ा, सबसे प्राचीन, सबसे सघन और सबसे कारगर अगर हमारा गणतंत्र है तो महज इसलिए नहीं कि इतिहास
के कुछ सुलेख उसके नाम दर्ज हैं बल्कि इसलिए कि बीते तीन दशकों में जब पूरी दुनिया में 'उदारता’ की स्वीकृति ने सबको एक छाते में आने के लिए मजबूर कर दिया, हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में आज भी विकल्प और विरोध की गुंजाइश बची हुई है। यही नहीं, ऐसा करते हुए जनता और सरकार के बीच रिश्तों को बुनने वाले बुनकर और करघे दोनों दक्षता से लगे हैं। विकास के क्षेत्र में सर्व समावेशी के तकाजे को समझने के लिए अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अगर मजबूर होना पड़ा तो भी इसलिए कि देश में वर्ण, जाति और धर्म से शुरू होने वाली विविधता सोच और विचार के स्तर तक पहुंचती है।
यह अलग बात है कि प्रतिविचारों
और प्रतिधारणाओं के बीच सामंजस्य की ताकत का आज भी हम सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। अगर ऐसा होता तो फिर सियासी जमातों में सत्ता के वर्चस्व की ललक नहीं जगती बल्कि विरोध और अस्वीकार को जीवित रखने के लिए भी वे इतने ही संकल्पित दिखाई देते।
समकालीन राजनीति में इस जुमले को बार-बार उछाला जाता है कि राजनीति तो सत्ता को पाने के लिए ही होती है। जबकि यह सरासर गलत है। बात देश की लोकतांत्रिक विरासत की हम पहले कर चुके हैं, इसलिए इस मुद्दे पर कौटिल्य की एक सूत्रोक्ति का स्मरण जरूरी है। कौटिल्य कहते हैं विरोध की पतवार थामने वाले ही अपनी नाव को मनमुताबिक दिशा में मोड़ सकते हैं। चाणक्य ने ऐसा करके भी दिखाया। विरोध की रणनीति से ही चंद्रगुप्त मगध की सत्ता तक पहुंचा। यही नहीं, इस रणनीति में 'विरोधों का सामंजस्य’ किस तरह समर्थन की 'एकाधिकारवादी सत्ता’ के दंभ से टकराती है, उसे चकनाचूर करती है, इन बातों की गवाही इतिहास देता है।
इसी तरह संख्याबल को सत्ता का
औजार मानना लोकतंत्र की एक स्थिति में तो सही है पर इससे लोकतांत्रिक अवधारणा की दरकार को नहीं समझा जा सकता है। थोड़ा और पीछे लौटें तो महाभारत के कुछ सबक सामने आएंगे। एक पक्ष जिसके पास सामथ्र्य और सत्ता दोनों थी, वह सत्य के आग्रह
के सामने घुटने टेकता है। गांधीवादी मुहावरे
में कहें तो सत्य के लिए जरूरी नहीं कि वह सत्ता के शिविर में ही वास करे बल्कि सत्य तो वहां टिकता है जहां नीयत और इरादे कल्याणकारी होते हैं।
अब सोलहवीं लोकसभा के लिए प्रथम चरण का मतदान शुरू होगा। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस दौरान तमाम छोटे-बड़े मुद्दों को जनता के सामने रखा है। इस दौरान वादे-इरादे और नीयत की भी बात कही गई है। पर इस सबके बीच यह बात खटकती है कि विरोध और अस्वीकार के जोखिम के साथ कोई नहीं बढ़ना चाहता। सबने सत्ता का बीजमंत्र ही जपा है। ऐसे में यह जनता के विवेक पर है कि वे अपनी परंपरा और संस्कार से आए लोकतांत्रिक सबकों को कैसे अपने निर्णय में बदलती है। जाहिर है, गठबंधन के दौर की राजनीति की या तो एक और गांठ जनता इस बार खोलेगी या फिर वह देश की सियासी जमातों को कुछ अलग तरीके से आईना दिखाएगी। इस लिहाज से जब सोलहवीं लोकसभा बैठेगी तो उसका कंपोजिशन देखना होगा और तब समझ में यह बात आएगी कि
इस चुनाव से देश में लोकतंत्र की जड़ें पहले से और मजबूत हुई हैं या कमजोर।
आखिर में एक बात और यह कि सूचना क्रांति के प्रतापी दौर में लोकतंत्र का चुनावी भाष्य करने वाले पंडित आपको आज हर जगह बैठे मिल जाएंगे, टीवी चैनलों से अखबारों तक। पर इनमें से बहुत कम ऐसे हैं जो बहुमत-अल्पमत, पक्ष-विपक्ष और वोट शेयर से आगे की बात करते हैं। लोकतंत्र के महायज्ञ में जनता जिन संस्कारों की समिधा लेकर उतरती है, उसे ज्यादा धुली और आग्रहहीन आंखों से देखे जाने की जरूरत है।
जीत और हार के बीच एक तीसरी
रेखा भी जनता हर चुनाव में खींचती है, जिससे पक्ष और विपक्ष दोनों को एक ही अनुशासन में बांधा जा सके। कहने की जरूरत नहीं कि यह अनुशासन व्यापक जनहित का है, लोककल्याण का है।
बहरहाल, इस सियासी जोड़-तोड़ से बाहर एक बात, जिस पर नीतीश इन दिनों खासा जोर दे रहे हैं। वे कहते हैं, गठबंधन राजनीति के दौर में किसी को यह कहने का हक नहीं है कि उसके पक्ष में हवा बह रही है। यह गठबंधन के दौर में प्रकट हुए समावेशी जनादेश की कहीं न कहीं अवमानना है। इस मुद्दे पर चर्चा महज इसलिए नहीं कि इसे बिहार के मुख्यमंत्री रेखांकित कर रहे हैं बल्कि इसलिए कि यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर वाकई विचार होना चाहिए। यही नहीं, इस विमर्श में राजनीति व समाज के सभी वर्गों-इकाइयों में शरीक होना चाहिए। इस विमर्श से जुड़े दो-तीन प्रमुख प्रस्थानबिंदु हैं या यह कह लें कि सवाल हैं। एक तो यही कि 1989 के बाद से देश में किसी एक दल के बहुमत की सरकार नहीं बनी है।
इसी दौर में कांग्रेस और भाजपा ने अपने को बहुमत के बजाय सबसे बड़े दल होने की एक-दूसरे से होड़ लेने लगे। ऐसे में कोई दल या नेता यह कैसे कह सकता है कि उसके पक्ष में पूरे देश में हवा है। इसी तरह सामाजिक न्याय से शुरू होकर अस्मितावादी राजनीति ने जिस तरह भारत के संघीय ढांचे में राज्य सरकारों की भूमिका नए सिरे से रेखांकित की है, वह काफी महत्वपूर्ण है। दिलचस्प है कि इसी दौरान देश में विकास का उदार चरित्र देखने को मिला। नव-विकास के आंध्र से लेकर गुजरात मॉडल तक इसी दौरान सामने आए। इससे पहले तो चर्चा होती थी बस पंजाब-हरियाणा की हरित क्रांति की या फिर केरल में आए एजुकेशनल रिवोल्यूशन की।
इस तथ्य के बाद कोई यह कैसे आरोप लगा सकता है कि गठबंधन की मजबूरियों या अस्थिरता से देश में विकास पटरी से उतर जाता है। पर आज अगर देश की दोनों पार्टियां जनता को इस बात का खौफ दिखा रही हैं कि त्रिशंकु संसद चुनी गई या उन्हें सबसे ज्यादा सीटें नहीं मिलीं तो देश विकास के रास्ते से दूर हो जाएगा तो यह जनता को गुनराह करना नहीं है तो और क्या है।
भारतीय लोकतंत्र की प्रशस्ति गाने में हम काफी आगे रहते हैं। सबसे बड़ा, सबसे प्राचीन, सबसे सघन और सबसे कारगर अगर हमारा गणतंत्र है तो महज इसलिए नहीं कि इतिहास
के कुछ सुलेख उसके नाम दर्ज हैं बल्कि इसलिए कि बीते तीन दशकों में जब पूरी दुनिया में 'उदारता’ की स्वीकृति ने सबको एक छाते में आने के लिए मजबूर कर दिया, हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में आज भी विकल्प और विरोध की गुंजाइश बची हुई है। यही नहीं, ऐसा करते हुए जनता और सरकार के बीच रिश्तों को बुनने वाले बुनकर और करघे दोनों दक्षता से लगे हैं। विकास के क्षेत्र में सर्व समावेशी के तकाजे को समझने के लिए अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अगर मजबूर होना पड़ा तो भी इसलिए कि देश में वर्ण, जाति और धर्म से शुरू होने वाली विविधता सोच और विचार के स्तर तक पहुंचती है।
यह अलग बात है कि प्रतिविचारों
और प्रतिधारणाओं के बीच सामंजस्य की ताकत का आज भी हम सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। अगर ऐसा होता तो फिर सियासी जमातों में सत्ता के वर्चस्व की ललक नहीं जगती बल्कि विरोध और अस्वीकार को जीवित रखने के लिए भी वे इतने ही संकल्पित दिखाई देते।
समकालीन राजनीति में इस जुमले को बार-बार उछाला जाता है कि राजनीति तो सत्ता को पाने के लिए ही होती है। जबकि यह सरासर गलत है। बात देश की लोकतांत्रिक विरासत की हम पहले कर चुके हैं, इसलिए इस मुद्दे पर कौटिल्य की एक सूत्रोक्ति का स्मरण जरूरी है। कौटिल्य कहते हैं विरोध की पतवार थामने वाले ही अपनी नाव को मनमुताबिक दिशा में मोड़ सकते हैं। चाणक्य ने ऐसा करके भी दिखाया। विरोध की रणनीति से ही चंद्रगुप्त मगध की सत्ता तक पहुंचा। यही नहीं, इस रणनीति में 'विरोधों का सामंजस्य’ किस तरह समर्थन की 'एकाधिकारवादी सत्ता’ के दंभ से टकराती है, उसे चकनाचूर करती है, इन बातों की गवाही इतिहास देता है।
इसी तरह संख्याबल को सत्ता का
औजार मानना लोकतंत्र की एक स्थिति में तो सही है पर इससे लोकतांत्रिक अवधारणा की दरकार को नहीं समझा जा सकता है। थोड़ा और पीछे लौटें तो महाभारत के कुछ सबक सामने आएंगे। एक पक्ष जिसके पास सामथ्र्य और सत्ता दोनों थी, वह सत्य के आग्रह
के सामने घुटने टेकता है। गांधीवादी मुहावरे
में कहें तो सत्य के लिए जरूरी नहीं कि वह सत्ता के शिविर में ही वास करे बल्कि सत्य तो वहां टिकता है जहां नीयत और इरादे कल्याणकारी होते हैं।
अब सोलहवीं लोकसभा के लिए प्रथम चरण का मतदान शुरू होगा। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस दौरान तमाम छोटे-बड़े मुद्दों को जनता के सामने रखा है। इस दौरान वादे-इरादे और नीयत की भी बात कही गई है। पर इस सबके बीच यह बात खटकती है कि विरोध और अस्वीकार के जोखिम के साथ कोई नहीं बढ़ना चाहता। सबने सत्ता का बीजमंत्र ही जपा है। ऐसे में यह जनता के विवेक पर है कि वे अपनी परंपरा और संस्कार से आए लोकतांत्रिक सबकों को कैसे अपने निर्णय में बदलती है। जाहिर है, गठबंधन के दौर की राजनीति की या तो एक और गांठ जनता इस बार खोलेगी या फिर वह देश की सियासी जमातों को कुछ अलग तरीके से आईना दिखाएगी। इस लिहाज से जब सोलहवीं लोकसभा बैठेगी तो उसका कंपोजिशन देखना होगा और तब समझ में यह बात आएगी कि
इस चुनाव से देश में लोकतंत्र की जड़ें पहले से और मजबूत हुई हैं या कमजोर।
आखिर में एक बात और यह कि सूचना क्रांति के प्रतापी दौर में लोकतंत्र का चुनावी भाष्य करने वाले पंडित आपको आज हर जगह बैठे मिल जाएंगे, टीवी चैनलों से अखबारों तक। पर इनमें से बहुत कम ऐसे हैं जो बहुमत-अल्पमत, पक्ष-विपक्ष और वोट शेयर से आगे की बात करते हैं। लोकतंत्र के महायज्ञ में जनता जिन संस्कारों की समिधा लेकर उतरती है, उसे ज्यादा धुली और आग्रहहीन आंखों से देखे जाने की जरूरत है।
जीत और हार के बीच एक तीसरी
रेखा भी जनता हर चुनाव में खींचती है, जिससे पक्ष और विपक्ष दोनों को एक ही अनुशासन में बांधा जा सके। कहने की जरूरत नहीं कि यह अनुशासन व्यापक जनहित का है, लोककल्याण का है।
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