बिहार आंदोलन के दिनों में जेपी ने आंदोलनकारियों के लिए पहला कार्यक्रम दिया था मौन जुलूस का। जेपी इस मौन जुलूस के जरिए अपने आंदोलन की अहिंसक लीक को तय करना चाहते थे। हुआ भी ऐसा ही। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के पुराने साथी बताते हैं कि मौन जुलूस से पहले रातभर इस बात के लिए छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी मशक्कत करते रहे कि कल जब लोग मुंह पर पट्टी बांधे सरकार के खिलाफ उतरेंगे तो उनका संदेश क्या होगा। आखिरकार दो नारे तय हुए। पहला, 'क्षुब्ध हृदय, बंद जुबान’ और दूसरा, 'हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा।’ अगले दिन मौन जुलूस में शामिल होने वालों ने इन्हीं नारों की तख्तियां हाथों में उठा रखी थीं।
दिलचस्प है कि जुलूस में सबको शामिल होने की इजाजत नहीं थी। इसके लिए एक फार्म भरना था, जिसके जरिए लोकतंत्र में अहिंसक संघर्ष के प्रति निष्ठा की घोषणा करनी थी।
तब इस मौन जुलूस को कवर करने आए बीबीसी के संवाददाता मार्क टुली अपने अनुभव को शेयर करते हुए बताते हैं कि उनके लिए मुश्किल यह थी कि उन्हें रेडियो के लिए रिपोर्ट करनी थी। इसलिए विजुअल सपोर्ट उनके लिए था नहीं और रही बात जुलूस की तो वह मौन थी इसलिए किसी आंदोलनकारी से भी बात नहीं कर सकते थे। इस जुलूस में साहित्यकारों से लेकर सर्वोदयी जमात के कई बड़े नाम शामिल थे। लिहाजा, उन्हें सड़कों पर सिर झुकाए और मुंह पर काली पट्टी बांधे कतारबद्धबढ़ते देख आसपास के लोग भी काफी शांत थे।
ऐसे में जुलूस की खबर रेडियो के श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए टुली ने अपना माइक आंदोलनकारियों के पांव के करीब किया। जुलूस इतना अनुशासित थी कि तकरीबन एक साथ उनके कदम उठ और गिर रहे थे। यह आवाज कैमरे ने कैच की और कहा गया कि विरोध का संकल्प इतना अहिंसक, अनुशासित और धैर्य से भरा था, इसका अनुभव भारत गांधी के स्वाधीनता संघर्ष के बाद पहली बार कर रहा है। बाद में इस आंदोलन को दूसरी आजादी का आंदोलन कहा भी गया।
कहने का कुल मतलब सिर्फ इतना कि विरोध और विकल्प की अहिसक राजनीति की बात करना आसान हो सकता है पर इस पर अमल खासा चुनौतीपूर्ण है। अण्णा के आंदोलन से निर्भया कांड तक देश की सड़कों पर जो गुस्सा फूटा उसमें नागरिक कार्रवाई के लोकतांत्रिक रास्तों के मुहाने नए सिरे से तो जरूर खोले पर साथ में कुछ सवाल भी खड़े किए। एक सवाल तो यही कि विचार और आचरण के साझे के बिना क्या कोई कार्रवाई विकल्प या बदलाव का आंदोलनकारी संकल्प बन सकती है।
पिछले महीनों में टीवी पर होने वाली 'विंडो विमर्श’में विचारधारा के सवाल भ्रष्टाचार के विरोध की दरकार के सामने खारिज होते जा रहे हैं। अलबत्ता आम आदमी पार्टी की सियासी जमात में शामिल कुछ नेता जरूर इस तरह की बात कहने के बजाय गांधी-लोहिया और जेपी की वैचारिक विरासत और सीख की बात कहते हैं। पर ये बातें अब तक इस नई नवेली पार्टी की वैचारिक मन:स्थिति को तय करने में असमर्थ रही है। यह कमी कार्यकताã प्रशिक्षण आदि के स्तर पर भी देखी जा सकती है।
किसी देश का लोकतंत्र अगर अपने शील-स्वभाव को लेकर ही दुविधा में हो तो यह कोई अच्छी स्थिति तो कतई नहीं है। ओपिनियन पोल से लेकर नेताओं के चुनावी दौरे में दस-दस लाख की भीड़ के जुटने की बातोंको लेकर जिरह करके हम देश के लोकतांत्रिक मानस को कोई सार्थक बनावट नहीं दे सकते।
यहां एक और बात समझने की है कि सूचना का दौर दरअसल प्रचार का दौर है। प्रचार का सच अकसर 'बड़ा धोखा’ होता है। ओपिनियन पोल से लेकर वर्चुअल वर्ल्ड की दोस्ती और प्यार तक इस धोखे के आज हजारों अफसाने आपको मिल जाएंगे। धोखे के इस खेल में एक बड़ा रोल अदा किया है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने। तस्वीर और आवाज के मेल से जो चौबीसों घंटे हमारे जेहन में उतरता है, उससे ही हमारी सोच-समझ, हमारी मन:स्थिति आज कहीं न कहीं तय होने लगी है। ऐसे में सब कुछ एक दिशा में बढ़ता, एक रंग में रंगा अगर दिखने लगे तो फिर विकल्प, विरोध या बदलाव के लिए गुंजाइश कहां रह जाती है।
हिंदी के एक बड़े साहित्यकार हैं। वे खूब टीवी देखते हैं और ज्यादातर हॉलीवुड की क्लासिक फिल्में। पर इस दौरान म्यूट का बटन दबाए रखते हैं। पूछने पर उन्होंने कहा कि ऐसा वह इसलिए करते हैं ताकि घटना को अपनी कल्पना और संवेदना के शब्द दे सकें। असल में यह टीवी के वायरल इफेक्ट को कम करने का प्रयोग तो है ही, अपनी सोच-समझ और कल्पना की स्वायत्तता को बहाल रखने की कोशिश भी। पर यह अवेयर एक्शन कितनों के वश की बात है। आमतौर पर तो लोग इस वायरल इफेक्ट से पीड़ित होकर ही खुश हैं। इस बार के आम चुनाव की 'लहर’ और 'डर’ के जरिए जो वायरल इमेज टीवी मीडिया के द्बारा खड़ी की जा रही है, वह वाकई काफी खतरनाक है। यह देश और समाज को सूचना और प्रचार के नाम पर वास्तविकता से काटने जैसा अपराध है। इस आपराधिक स्वीकृति के बाद जो इबारत तारीख के पन्नों पर दर्ज होगी, दरअसल वही इस चुनाव का हासिल होगा। एक बात और यह कि समर्थन को विरोध पर भारी बताना और बहुमत के आगे अल्पमत की दास जैसी स्थिति न तो लोकतंत्र का सही भाष्य है और न ही उसका अभ्यास। एक व्यवस्था को चलाने की दरकार के लिए बहुमत को जरूर नियामक संस्था या सरकार के गठन का अधिकार दिया गया है, पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि इस संस्था की जवाबदेहियों के रकबे से विरोधी बाहर रहेंगे। दरअसल, लोकतंत्र में बहुमत का मतलब आगे बढ़कर सबको साथ लेकर चलने की पहल का नाम है, न कि जो छूट गए उन्हें यह एहसास दिलाने का कि विरोध का खामियाजा तो उठाना ही पड़ेगा। यों भी कह सकते हैं कोई व्यवस्था तब तक तानाशाही ही मानी जाती है,जब तक एक हांक पर सब कुछ चलता है। हांक के खिलाफ हुंकार भरने के जज्बे का नाम ही लोकशाही है। इसीलिए पश्चिमी अवधारणा में जहां डेमोक्रेसी की कार्यकारी बनावट को पिरामिड की शक्ल में दिखाया गया है, वहीं गांधी ने इसके लिए ओसएनिक सर्किल की बात कही। यानी हर लहर अगली लहर को जन्म दे और इस तरह व्यक्ति से समष्टि की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया न सिर्फ संवेदनशील हो बल्कि बिंदु से लेकर सिंधु तक सभी इसमें अपने को महत्वपूर्ण मानें।
बहरहाल, आज की विद्रूपताओं को देखते हुए ये तो काफी दूर की बातें हो गईं, अभी तो इम्तिहान सिर्फ इस बात का है कि मेल जोल व गठबंधन के दौर की भारतीय राजनीति और उससे शक्ल लेने वाला लोकतंत्र महज एक हांक से चलेगा या ललकारी हुंकार से।
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