इन दिनों भारतीय राजनीति को कई चीजें एक साथ मथ रही हैं। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक सुखद लक्षण भी है क्योंकि एक तरफ जागरूक लोकतंत्र अपनी केंद्रीय उपस्थिति के लिए मचल रहा है तो वहीं परंपरागत की जगह नई राजनीतिक परंपरा की भी बात हो रही है। अगले कुछ महीनों में लोकसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में भारतीय जन गण के नए मन के साथ करवट बदलती देश की राजनीति पर प्रेम प्रकाश की कवर स्टोरी
भारतीय जन-गण का नया मन बदलाव और संभावनाओं के साझे से बना है। देशकाल से जुड़े तमाम सरोकारों के साथ अहिंसा और आंदोलनों का नया मेल भारतीय गणतंत्र में कोई नया अध्याय जोड़े या न जोड़े पर इसने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर कुछ सामयिक दरकारों को जरूर रेखांकित कर दिया है। दरअसल, 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिंसक प्रयोगों को आजमाया गया तो इस बदले सूरते हाल को एक क्रांतिकारी संभावना के तौर पर हर तरफ देखा गया। मीडिया में तो खासतौर पर इसकी चर्चा रही। अमेरिका और यूरोप से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिंग लगीं कि भारत में फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं।
दिलचस्प है कि सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकर्ताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के बाद इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
सवालों-सरोकारों की नई जमीन
गौरतलब है कि देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण का जो दौर शुरू हुआ है, उसमें कुछ सवाल और मुद्दे बार-बार उठाए जा रहे हैं। क्या लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा
रहा है?
ये तमाम वे मुद्दे और सवाल हैं, जो बीते कुछ सालों में जनता के बीच उभरे, खुली बहस का हिस्सा बने। जनता के मूड को देखते हुए या तो ज्यादातर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने इनका समर्थन किया या फिर विरोध की जगह एक चालाक चुप्पी साध ली।
पारदर्शी सरकारी कामकाज और उस पर निगरानी के लिए अधिकार संपन्न लोकपाल की नियुक्ति जैसे सवालों पर तो संसद तक ने अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। चुनाव सुधार के मुद्दे पर भी तकरीबन एक सहमति हर तरफ दिखी। पर अब जबकि लोकसभा चुनाव होने हैं तो इनमें से शायद ही कोई मुद्दा हो, जो किसी राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडे में शुमार हो। इस बार भी चुनावी वादे के नाम पर कच्ची-पक्की सड़कों के या तो किलोमीटर गिनाए जाएंगे या फिर मुफ्त अनाज या लैपटॉप बांटने के लालची वादे।
अण्णा आंदोलन से छिटक कर बनी आम आदमी पार्टी जरूर इनमें से कुछ मुद्दों को लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरी है, पर उनकी महत्वाकांक्षा और जल्दबाजी से उनके आदर्शवादी कदमों की व्यावहारिकता पर सवाल उठते हैं। दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अरविंद केजरीवाल जिस तरह अपनी पूरी कैबिनेट के साथ धरने पर बैठ गए, वह आम आदमी का नाम लेकर बनी पार्टी और उसके नेताओं के अराजकतावादी इरादों को साफ करता है।
परिवर्तन फैशनेबल चीज नहीं
गौरतलब है कि जिन सवालों, सरोकारों और मुद्दों के सामयिक जनतांत्रिक तकाजों से देश की परंपरागत सियासी जमातें ठीक से कनेक्ट नहीं कर पा रही हैं, उसकी वजह एक ही है। यह वजह है 'परिवर्तन’ को लेकर समझ। दरअसल, परिवर्तन कोई फैशनेबल चीज नहीं, जिसे जब चाहे प्रचलन में ला दिया और जब चाहे प्रयोग से बाहर कर दिया। फिर यह टू मिनट नूडल्स भी नहीं कि बस कुछ ही समय में बस जो चाहा हासिल कर लिया। इसलिए जिस राजनीतिक व्यवस्था ने पिछले छह दशकों से ज्यादा के समय में अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है, उसकी बाहें मरोड़ना कोई आसान बात नहीं। बात करें 'आप’ की तो वह इनमें से कुछ मुद्दों को उठाती जरूर है पर इसे लेकर उसका कंसर्न भी बहुत जेनुइन नहीं जान पड़ता। वैसे इस पार्टी को बने अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, लिहाजा अभी से उसके बारे में एक निराशावादी राय बना लेना भी ठीक नहीं होगा।
सेमीफाइनल तो देखा अब फाइनल देखिए
देश का नया जनमानस क्या सोच रहा है और उसकी पसंद-नापसंद क्या है, इसका अंदाजा हाल में दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे को देखकर लगाया जा सकता है। हालांकि इन राज्यों के साथ पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम के भी चुनाव हुए थे पर उसकी चर्चा यहां हम नहीं कर रहे हैं। उत्तर और मध्य भारत के चार सूबों के चुनावी नतीजे को देखकर कहा जा सकता है कि जनता को अब 'ठग प्रवृत्ति’ की राजनीति के जाल में आसानी से नहीं फंसाया जा सकता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को यह भरम हो चला था कि जिस तरह वह केंद्र में मनरेगा जैसी मेगा लोक कल्याणकारी योजना के बूते वह दोबारा सत्ता में आई, वह जादू वह राज्यों में भी चला पाएगी। मुफ्त अनाज बांटने की उसकी अफरातफरी में लाई गई योजना अगर जनता के बीच बेअसर साबित हुई तो इसलिए क्योंकि भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर सरकार के पास कहने के लिए कुछ नहीं था।
नरेंद्र मोदी इस मामले में अपने तमाम सियासी प्रतिद्बंद्बियों पर इसलिए भी भारी पड़े क्योंकि उनके पास विकास और सुशासन का गुजरात मॉडल है। इसलिए वह जब जनता के बीच जाते हैं तो करके दिखाएंगे के साथ करके दिखाया वाले भरोसे से बोलते हैं। जेल में बंद नेताओं को चुनाव लड़ने का हक दिलाने वाले सरकारी बिल को फाड़कर रद्दी की टोकड़ी में फेंकने की बात करने वाले कांग्रेस के युवराज तमककर भले लाख बड़ी बातें करें पर उनकी कथनी का सपोर्ट न तो केंद्र में उनकी पार्टी की अगुवाई वाली सरकार करती है और न ही राज्यों में उनकी सरकारें।
दिल्ली चूंकि पिछले कम से कम तीन सालों में भ्रष्टाचार और निर्भया कांड के विरोध में सड़कों पर उतरी सिविल सोसायटी के गुस्से का चश्मदीद भी रही, इसलिए यहां के चुनाव परिणाम में एक अलग रेखांकित करने वाली बात दिखी। दिल्ली में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई और आप ने अपने प्रदर्शन से सबको चौंकाया। भूला नहीं है देश वह दृश्य जब निर्भया की मौत के बाद जंतर मंतर पर उसकी तस्वीर के आगे मोमबत्ती जलाने आईं तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जनता के गुस्से का इस तरह सामना करना पड़ा कि सुरक्षाकर्मियों को उन्हें वहां से काफी मशक्कत से सुरक्षित बाहर निकालना पड़ा। दिल्ली में भाजपा की चूक यह रही कि वह इस जनाक्रोश को उस तरह अपने पक्ष में इनकैश नहीं करा सकी, जैसी सिविल सोसाइटी के बीच से निकली एक नई पार्टी ने।
बात करें मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तो यहां कांग्रेस विपक्ष में थी। वह चाहती तो अपने को एक साफ-सुथरे विकल्प के रूप में जनता के सामने ला सकती थी। पर जनता ने परिवर्तन का रास्ता शायद इसलिए नहीं चुना क्योंकि उसनेनए सपनों और वादों-इरादों की बजाय कर्मठ सरकारों का हाथ मजबूती से थामे रखना जरूरी समझा।
लोकप्रिय ही नहीं तत्पर भी
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी आज हर दूसरे दिन देश के किसी हिस्से में वहां के लोगों को संबोधित कर रहे हैं। उन्हें सुनने न सिर्फ उनके समर्थक बल्कि स्थानीय लोग भी बड़ी तादाद में आ रहे हैं। कई जगहों पर तो लोग शुल्क देकर उन्हें सुनने आ रहे हैं। भारतीय राजनीति में किसी नेता को लेकर इस तरह का आकर्षण काफी समय बाद देखने को मिल रहा है।
हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों के दौरान मोदी चुनावी राज्यों के अलावा यूपी, बिहार, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर भी गए। ऐसा वे इसलिए भी कर रहे हैं क्योंकि लोकसभा चुनाव को लेकर एजेंडे को वह अपनी तरफ से समय से पहले ही शक्ल दे देना चाहते हैं। यह जोखिम नहीं बल्कि एक साहसिक पहल है। अगर खुद को आप देश के मुकम्मल नेता की तरह जनता के बीच ला रहे हैं तो फिर आपका मानस और आपकी तैयारी भी मुकम्मल होनी ही चाहिए। पिछले दिनों दिल्ली में जब वे भाजपा कार्यकर्ताओं की रैली में बोले तो बिजली, सड़क, पानी से लेकर उद्योग, पर्यटन और अर्थव्यवस्था तक पर अपनी सोच और चाह को रखा।
यही नहीं उन्होंने भारतीय जन-गण के नए मन तक भी पहुंचने की भरसक कोशिश की। कहा कि सरकार की योजनाएं और कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक उसमें जन भागीदारी न हो। अपनी यह बात कहते हुए वे प्रातिनिधिक की बजाय प्रतिभागी लोकतांत्रिक ढांचे की दरकार को भी कबूला। साफ है कि वे चुनावी राजनीति के परंपरावादी खांचे से खुद भी बाहर निकलने को तत्पर हैं। उनकी यह तत्परता लोकसभा चुनाव में उनकी रणनीतिक कुशलता भी साबित हो सकती है।
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