बीते तीन-चार दिनों के घटनाक्रम में देश की राजनीति ने अपने लिए नई व्याख्या और विमर्श की चौहद्दी को और बढ़ा दिया है। निराश वे लोग ज्यादा हैं जिन्हें अब भी लोकतंत्र की व्यवस्था 'इनक्लूसिव’ की जगह 'इंपोजिंग’ ही पसंद आ रही है। 21वीं सदी का दूसरा दशक देश में जिस तरह के लोकतांत्रिक तकाजे को बहस के केंद्र में लेकर आया है, उसकी बुनियादी दरकार ही यही है कि जनकल्याण का ढिंढ़ोरा पीटकर सियासी रोटियां सेंकने के दिन बीत गए। अब तो विकास का कोरा नारा भी व्यापक लोकमत के निर्माण में कारगर औजार साबित होगा, ऐसा कहना जोखिम भरा है। ये तमाम स्थितियां एक ही सवाल को बार-बार रेखांकित कर रही हैं कि जनता और सरकार का अस्तित्व एक दूसरे से जुदा या एक के ऊपर एक की बजाय साझा क्यों नहीं हो सकता? और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो फिर लोकतंत्र में लोक की उपस्थिति कहां है और किस भूमिका के साथ है?
जिन बीते तीन-चार दिनों की हम बात कर रहे हैं उसमें एक तरफ कांग्रेस पार्टी और उनके सबसे लोकप्रिय करार दिए जाने वाले नेता राहुल गांधी बार-बार ये समझाने में लगे रहे कि उनकी सरकार ने जनता को जितना अधिकार संपन्न बनाया है, उसके लिए जितने प्रत्यक्ष लाभाकरी कदम उनकी सरकार ने उठाए हैं, उतना किसी ने नहीं किया है। आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपनी इन उपलब्धियों के नाम पर जनता से वोट के रूप में अपने लिए श्रेय चाह रही है।
2००9 में जब कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए दोबारा सत्ता में आई थी तो सबने एक तरफ से कहा था कि मनरेगा का जादू काम कर गया। अब जबकि इस साल फिर चुनाव होने हैं तो मनरेगा जैसी मेगा योजना तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। यही नहीं इस दौरान यूपीए-एक और दो के कार्यकाल के कई बड़े घोटाले और वित्तीय अनियमितताओं के मामले भी इस दौरान सामने आए। सूचना के अधिकार कानून के तहत एक के बाद एक खुलासे हुए कि सरकार जिस तरह काम कर रही है, उसमें भ्रष्टाचार से चुनौती से निपटने का कोई कारगर मैकेनिज्म नहीं है। एकाधिक मामलों में सीएजी ने कहा कि फैसले लेने के तरीके में ही नहीं मंशा में भी गलतियां हुई हैं। ऐसे में 'पॉवर वैक्यूम’ से लेकर 'पॉलिसी पैरालाइज’ तक के तमगे सरकार को मिले। फिर इस बीच जिस तरह जनता महंगाई और विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार से जूझती रही, उससे कुल मिलाकर एक मोहभंग की स्थिति पैदा हुई।
दिलचस्प है कि राहुल गांधी इन स्थितियों के बावजूद चीजों को कामचलाऊ तरीके से समझना चाह रहे हैं। सुधार और परिवर्तन के नाम पर वे महज रफ्फूगिरी से काम चलाना चाहते हैं। अपनी गलतियों और असफलताओं को वे उपलब्धियां गिनाकर ढकना चाहते हैं। यह एक आत्मघाती सोच है। पहले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में जिस तरह पार्टी को मुंह की खानी पड़ी, उससे कांग्रेस उपाध्यक्ष की आंख अब तक खुल जानी चाहिए थी।
इस मोहभंग का भाजपा अपने तरीके से लाभ उठाना चाहती है। नरेंद्र मोदी के दबंग और सम्मोहक नेतृत्व को सामने लाकर पार्टी को लगता है कि केंद्र में दस साल की सत्ता की केंद्रित जड़ता को वह तोड़ देगी। मोदी अपनी तरह से विकास की बात करते हैं, देश के लोगों खासतौर पर युवाओं के पुरुषार्थ में भरोसा दिखलाते हैं, साथ भी बिजली, सड़क, पानी, उद्योग और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में गुजरात में किए गए अपने सफल प्रयोगों से लोगों में इस बार के चुनाव में परिवर्तन का विकल्प अपनी तरफ स्थिर करने का यत्न करते हैं। रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में जब वे बोलने के लिए खड़े हुए तो उनकी नजर में देश के नवनिर्माण का एक पूरा ब्लू प्रिंट था। उन्होंने लंबा भाषण ही नहीं दिया, तकरीबन सभी मुद्दों पर अपनी राय और सोच भी सबके सामने रखी।
पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एक बात में चूक कर रही है। वह चूक यह है कि जिस मतदाता के पास आखिरकार उन्हें जाना है, उसकी बदली सोच को रीड करने में दोनों से कहीं न कहीं भूल हो रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन के बाद मीडिया से लेकर देश में बहस के तमाम चौपालों पर अगर यह बात हो रही है कि देश वैकल्पिक राजनीति की तरफ बढ़ रहा है तो यह बात देश की दोनों बड़ी पार्टियों को न सिर्फ समझ में आनी चाहिए बल्कि इसका फर्क उनकी कार्यनीति और आचरण में भी आना चाहिए। सिर्फ यह कह देना कि प्रातिनिधिक की जगह प्रतिभाग के लोकतंत्र की तरफ हम कदम बढ़ाएंगे, काम नहीं चलेगा। देश की जनता के इस आंदोलनात्मक रुझान को पार्टियों को अपने विजन और एक्शन दोनों में ट्रांसलेट करके दिखाना होगा।
दोनों दलों को याद रखना पड़ेगा कि बीते तीन-चार सालों में जनता अगर एकाधिक बार भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ उतरी है तो यह कौल किसी पार्टी या नेता का नहीं था। देश की सिविल सोसाइटी ने अपने को आगे किया और देश में व्यवस्था परविर्तन की छटपटाहट को सड़क पर ला दिया। आम आदमी पार्टी इसी छटपटाहट का नतीजा है। यह पार्टी अपनी नीति और एजेंडे को लेकर आज जरूर कंफ्यूज्ड जरूर दिखाई पड़ती है पर उसके उन्नयन में कहीं न कहीं वैकल्पिक राजनीति की तलाश शामिल है।
आप से घबराए दलों के लिए शुक्र की बात यह है कि विचार और संगठन के स्तर पर उसकी लड़खड़ाहट साफ तौर पर जाहिर हो रही है। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद गवर्नेंस के स्तर पर उसे उम्दा प्रदर्शन करके मिसाल पेश करनी चाहिए थी पर वह अब एक अराजकतावादी राह पर है। आप दिल्ली विधानसभा चुनाव के रिफ्लेक्शन को लोकसभा चुनाव में भी देखना चाहती है। इसलिए वह और उसकी सरकार फिर से सड़क पर प्रतिरोधी तेवर के साथ दिखना चाह रही है। यह आप की रणनीति कम असफलता ज्यादा है। यह उस उम्मीद के साथ भी नाइंसाफी है, जो आप ने लोगों के मन में राजनीतिक बदलाव के नाम पर जगाई थी।
पर आप के भटकाव के बावजूद यह कहीं से साबित नहीं होता कि देश की राजनीति में विकल्प का खाली स्पेस भरने की दरकार ही खारिज हो गई। भारतीय जन-गण का नया मन परंपरावादी राजनीति से वाकई तंग आ चुका है। देश की राजनीति में एक नई ताजी बयार को महसूस करने की तड़प मुट्ठियां बांध चुकी हैं। इन बंधी मुट्ठियों की ताकत को समझना होगा। भाजपा और कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह एक ही तरह के पॉलिटिकल कल्चर में कहीं न कहीं ढ़ल चुकी हैं। नई स्थितियों में जनता के बीच, जनता के साथ और जनता के बल पर ये पार्टियां अगर अपनी ताकत को गुणित नहीं करती हैं तो वह अपने सामथ्र्य के साथ बेईमानी करेंगी। खासतौर पर यह उम्मीद भाजपा को लेकर ज्यादा है क्योंकि वह केंद्र में पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है। वह देश के नागरिक समाज के साथ बेहतर संवाद कर अपनी संभावना में जादुई पंख लगा सकती है।
एक बात और यह कि परिवर्तन का पेटेंटे किसी एक नेता या आदमी के नाम पर दर्ज नहीं होता है। इसलिए सिविल सोसायटी की सक्रियता और आप के उभार को लेकर घबड़ाई हुई प्रतिक्रिया वही लोग दे रहे हैं, जिन्हें लग रहा है कि जनता इस उभार के साथ बंधक की तरह साथ है। दरअसल, देश में जनतांत्रिक सशक्तिकरण एक सामयकि दरकार है और इस दरकार को अपने सारोकारों में शामिल कर जो भी दल या नेता आगे बढ़ेंगे जनता उसके साथ होगी।
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