अरब बसंत की सफलता-विफलता से अलग है भारत में सोशल मीडिया का विस्तार और इस्तेमाल। कुछ साइबर पंडितों की नजर में भारत में ई-क्रांति का संदर्भ ज्यादा मौलिक और भरोसेमंद है। तहरीर चौक की क्रांति की मशाल अभी बुझी भी नहींं कि प्रतिक्रांति की लपट ने पिछली सारी इबारतें उलट दीं।
अभी उत्तराखंड में जो विपदा आई, उसमें देश के किसी नेता या दल से ज्यादा जवाबदेह भूमिका रही सोशल मीडिया की। इसने न सिर्फ आपदाग्रस्त इलाके की खबर दी बल्कि घर-परिवार से बिछड़े लोगों को मिलवाने में भी बड़ी भूमिका अदा की। खुद उत्तराखंड के लोग सामने आए और उन्होंने फेसबुक पेज और ब्लॉग संपर्क के जरिए लोगों की मदद के लिए राशि जुटाई।
इसके अलावा पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद सोशल मीडिया यानी अभिव्यक्ति की उन्मुक्त आजादी ने सरकार के घुटने टिकवा दिए। उसने महिला सुरक्षा को लेकर सरकार को सख्त कानूनी पहल करने के लिए बाध्य किया।
दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के बाद दलित लेखक कंवल भारती की सरकार विरोधी टिप्पणी पर उनकी गिरफ्तारी का मामला हो या बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद दो लड़कियों की टिप्पणी पर उनके खिलाफ भड़का सरकारी आक्रोश, सत्ता और सियासत को ये ई-मुखरता रास नहीं आती। केंद्र सरकार तक के स्तर पर सोशल मीडिया की मुखरता पर पहरे बैठाने की कोशिशें अगर चलती रही हैं, तो उसकी भी यही वजह है। पर स्वतंत्रता के इस पर्व पर ई-आजादी से आ रहे बदलाव को भी सलाम करना चाहिए।
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