मीडिया और नियमन। बहस का यह मुद्दा पिछले कुछ सालों में देश में जिस तरह उठा है, उसके एक नहीं बल्कि कई निहितार्थ हैं। सरकार का एक बड़बोला मंत्री जब यह कहता है कि बार काउंसिल के लाइसेंस की तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने से पहले पत्रकारों को लाइसेंसशुदा होना जरूरी होना चाहिए तो समझ में यही बात आती है कि यह सुझाव से ज्यादा चिढ़ है देश की मीडिया के प्रति। यह चिढ़ पूर्वाग्रहग्रस्त भी है।
दरअसल, 21वीं सदी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए कई नई चुनौती लेकर आई है। इस सदी के दूसरे दशक से तो इन चुनौतियों ने सड़कों पर अपने तेवर एकाधिक बार दिखाए। मुद्दा भ्रष्टाचार का हो कि संसद और जनता के बीच सर्वोच्चता को लेकर छिड़ी बहस, इन तमाम सवालों पर जनता घरों से बाहर निकली। और वह भी बिना किसी राजनीतिक छतरी के नीचे आए। जो सूरत बनी उसमें लोकतांत्रिक सशक्तिकरण की असीम संभावनाएं थीं। ये संभावनाएं आज भी बहाल हैं। इसी दौर में देश और राज्यों की राजधानियों में बैठे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों और उनके समर्थन से बनी सरकारों को लगने लगा कि यह प्रखर नागरिक चेतना उनके पूरे अस्तित्व को मिट्टी की भीत की तरह भर-भराकर गिरा देगी। लिहाजा इस नागरिक सशक्तिकरण को तीव्र और प्रभावी बनाने वाले हाथ को मरोड़ा जाए। मीडिया इसी हाथ का नाम है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कहकर जिसे सरकारें अब तक इज्जत तो बख्शती रही हैं पर उसकी अतिशय संलग्नता और तत्परता को कभी गले नहीं उतार पाई हैं। इमरजेंसी के दिनों में इसका सबसे क्रूर रूप हम देख चुके हैं।जनता के लिए लोकतांत्रिक साझेदारी का मतलब सिर्फ पांच साल में एक बार मतदान केंद्र के बाहर कतार में खड़े होना भर नहीं है। उसकी साझेदारी तो इससे आगे की है और इसी दरकार ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जन्म दिया है। पर दुर्भाग्य से इस दरकार को निर्वाचित जनों और संस्थाओं ने अपने लिए ज्यादा सुरक्षित बनाने का उपक्रम बना लिया और अब तो सूरत यह है कि जनता की लोकतांत्रिक प्रतिभागिता पूरी व्यवस्था में इतनी भर रह गई है कि उसके नाम पर भले सब कुछ होता है पर उसकी मर्जी का कुछ भी नहीं। अखबारों-टीवी चैनलों के बढ़े प्रसार के साथ सोशल मीडिया के नए दमखम ने दुनिया भर के शासक वर्ग के सामने अनुशासन और अनुशीलन का दबाव बढ़ाया है। भारत में इस खतरे को बढ़ते देख सरकार ने कई बार अलग-अलग तरीके से मीडिया पर आंखें तरेरी हैं, उसकी आलोचना की है। चूंकि देश सेंसरशिप और इमरजेंसी के दौर से काफी आगे निकल आया है इसलिए आज मीडिया के मुंह पर जाबी पहनाने की हिमाकत तो शायद ही कोई करे। पर अगर कोई यह कहे कि पत्रकारों के भी लाइसेंस बनने चाहिए, उनके लिए भी एप्टिट्यूड टेस्ट होने चाहिए तो इतना तो लगता ही है कि उसे देश के पत्रकारिता आंदोलन के बारे में जानकारी थोड़ी कम है।
अगर हम बात करें प्रिंट मीडिया की तो देश में पत्रकारिता के लिहाज से दो दौर खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं। एक आजादी से पूर्व का दूसरा ग्लोबलाइजेशन के बाद का। अगर एक पराधीन देश की जनता ने जिद पर आने पर दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी सत्ता की चूलें हिलाकर रख दीं तो उसके पीछे देश की भाषाई पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ था। साहित्यकारों-पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ने देश के आत्मसम्मान को जगाया और स्वाधीनता की ललक जन-जन में पैदा की। बाद में ग्लोबलाइजेशन के दौर में लगने लगा कि खुरदरे कागजों पर खबर पढ़ने का दौर अब पीछे छूट जाएगा क्योंकि उपभोक्तावादी सनक के साथ टीवी चैनलों की खुलती छतरियों और इंटरनेट के बढ़े जोर के बाद इतनी फुर्सत किसे होगी कि वह घर में बैठकर अखबार बांचे। पर हुआ ठीक इसके उलटा। भाषाई पत्रकारिता ने इस दौर में अपना सबसे बड़ा आरोहण दिखाया। प्रसार के साथ कमाई दोनों में उसने कुबेरी आख्यान रचे। और यह सफलता उस देश में मायने रखती है जहां सरकार को अभी सर्वशिक्षा का प्रण ही दोहराना पड़ रहा है।
ऐसी स्थिति में महज इस कारण से कि जनता के मुद्दे अगर मीडिया की ताकत के साथ देश का एजेंडा बनने लगे तो खतरनाक है, यह सोच कमजोर सत्ता प्रतिष्ठानों में ही उभर सकती है। एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकताã के अनशन के आगे मजबूर होकर जब देश की संसद को अपनी कार्यवाही चलानी पड़ी, प्रस्ताव पारित करने पड़े तो उसके साथ यह भी साफ हो गया कि लोकमत और मीडिया के साझे से देश में लोकतंत्र की नई लहर शुरू हो सकती है। फिर क्या था, नेताओं के एक के बाद एक बयान आए कि मीडिया ने अण्णा आंदोलन को ओवरएक्सपोज किया। यही स्थिति तब भी सामने आई जब पिछले साल दिसंबर में दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ की गई बर्बरता के खिलाफ पूरे देश के युवा आक्रोशित होकर घरों से बाहर आए।
देश की राजनीतिक जमात को अभी तक यही लगता रहा है कि उनके मुद्दे और उनकी सोच और पहल से ही देश में लोकतंत्र की गाड़ी आगे बढ़नी चाहिए। जनता बस इस गाड़ी में सवारी की तरह बैठ जाए, वह ड्राइविंग सीट पर आने की हिमाकत ना करे। यहां तक कि प्रेस परिषद के मुखिया जस्टिस काटजू जैसे लोगों के दिमाग में भी यही बात आती है कि पत्रकारिता के पेशे में कूप-मंडूक लोग भरे पड़े हैं।
नक्सल हिंसा से लेकर किसानों की आत्महत्या तक को लेकर जमीनी रिपोर्टों और इन पर बहस का दुस्साहस देश के पत्रकारों ने दिखाया है। इस कवरेज के साथ प्रबंधकीय मुठभेड़ भी पत्रकारों को करनी पड़ी है। बावजूद इसके आज अगर भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र से लेकर कई सूबों की सरकारें हलकान हैं तो उसके पीछे भी मीडिया की चौकस नजर ही है। पिछले दो-तीन सालों में चले नागरिक सशक्तिकरण के अभिक्रम को भी मीडिया का संबल इसलिए मिला क्योंकि यह समय की मांग है। देश की राजनीतिक बिरादरी अगर आज जनता की नजरों में अपना इकबाल खोती जा रही है तो उसकी वजह ये लोग खुद हैं। आप आईने पर यह दबाव नहीं डाल सकते कि वह आपको मनमाफिक तरीके से दिखाए। यह बात मनीष तिवारी के साथ उन तमाम लोगों को समझनी चाहिए जिन्हें उनके जैसा बोलना-सोचना अच्छा लगता है। यह बात उन जस्टिस साहब को भी समझनी चाहिए जिन्हें मीडिया मीडियाकरों की जमात लगती है और देश के नब्बे फीसद लोग जाहिल। परिवर्तन का हरकारा इस देश में मीडिया हमेशा रहा है और आज उसके लिए कई बिजनेस कंपल्शन बढ़ जाने के बावजूद अगर उसके भीतर यह जज्बा बहाल है, फिर तो सूचना और खबरों के इस पूरे तंत्र को सलाम। नियमन और लाइसेंस की दरकार तो वहां ज्यादा है जहां निर्वाचित निर्वाचकों के स्वयंभू स्वामी बने फिर रहे हैं।
http://www.nationalduniya.com/
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