आपकी अंटी में मेरी मौजूदगी नई नहीं है। नई बात तो है वह गिरावट जो मेरी हैसियत में आई है। मंडी-हाट में मेरी आमद-रफ्त पुरानी है। पर अब तो जिक्र बाजार का होता है। मंडियों की गद्दियों पर बैठने वाले सेठ-साहूकार तो बीते जमाने की बात हो गए। अब तो मेरी हैसियत का 'अर्थ’ बताते हैं बाजार के पंडित। अर्थ आज पूरी एक व्यवस्था है।
भूमंडलीकरण की छतरी के नीचे बैठे तमाम आर्थिक दिग्गज जब यह बताते हैं कि मेरी सेहत तारीखी तौर पर बिगड़ रही है तो हैरत मुझे भी होती है। मैं नहीं चाहता कि मुझे कोई जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना दे पर इतनी कामना तो मेरी भी है कि मेरे आगे यह साफ हो कि क्या मैं सचमुच काफी कमजोर हो गया हूं या फिर कोई मुझसे ज्यादा मजबूत है इसलिए उसके सामने मुझे पिद्दी बताया जा रहा है। मैं जानता हूं आंखों पर बड़े फ्रेम का चश्मा चढ़ाकर मेरा बुखार मापने वाले मुझे बस जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना ही देंगे। वे यह नहीं बताएंगे कि मुझे जिन महाबलियों के आगे लगातार कमजोर सिद्ध किया जा रहा है, उनकी बढ़ी ताकत के पीछे राज क्या है।
मैं कोई मूढ़ नहीं बल्कि तालीमशुदा हूं। मुझसे यह बात छिपी नहीं कि मेरा कद और मेरी वकत डॉलर के मुकबले आंकी जा रही है। यह मुकाबला मेरा चुनाव नहीं है। मुझे इस मुकाबले में उतरना पसंद भी नहीं। मैं तो उलटे सवाल करना चाहूंगा देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का दिलासा दिलाने वाले तमाम 'मनमोहनों’ से कि उन्होंने मेरी इज्जत दूसरों के सामने यों क्यों उछाली। देश की आजादी के आसपास तो डॉलर की भी वही हैसियत थी जो मेरी। फिर पिछले छह दशकों और खासकर हालिया दो-तीन दशकों में ऐसा क्या हो गया कि डॉलर दुनियाभर की मुद्राओं के लिए एक पैमाना बन गया। क्या यह मुनासिब है? और यह मुनासिब है तो बगैर मेरी ताकत के यह देश आर्थिक महाशक्ति होने का दावा क्या हवा में कर रहा है। अगर देश की मुद्रा की इकाई ही कमजोर है तो फिर वह देश समृद्धि और विकास की दहाई, सैकड़ा, हजार... की दूरी कैसे पूरी कर सकता है। यह अर्थ का ज्ञान नहीं अनर्थ करने की सनक है। और मुझे ऐसे सनकी अगर बख्श ही दें तो अच्छा होगा।
जब कभी मेहनत और पसीने का फल होने की इज्जत मुझे दी जाती है तो मेरे साथ मेरे धारकों को भी फL और संतोष होता है, अपने स्वाबलंबन का, अपने पुरुषार्थ का। आज तो मेरे चेहरे को भी काला-सफेद कर दिया गया है। कई तिजोरियों में मैं काले धन के तौर पर सिसक रहा हूं तो कहीं सफेद होने के बावजूद गरीबी रेखा के नीचे दुबके रहने पर मजबूर हूं।
एक शिकायत मेरी उन तर्कवीरों से भी हैं जो अपनी अगाध राष्ट्र आस्था के नाम पर यह सवाल उछाल रहे हैं कि क्या कमजोर रुपया मतलब कमजोर राष्ट्र है? मैं खुद के कभी सोने या तांबे-पीतल होने को लेकर कोई अकड़ नहीं रखता। पर इतना मुझे भी पता है कि अगर देश के तिरंगे को कमजोर कहने की हिमाकत राष्ट्रीय अपराध है, देश की सेना को कायर कहना राष्ट्रद्रोह है तो देश के करोड़ों मेहनतकशों की कमाई की कीमत को भी कमतर आंकना राष्ट्रीय जुर्म है।
मेरी जन्मकुंडली और हैसियत का हिसाब रखने वाले उस दिन बहुत खुश थे जब मुझे नाम और छवि को पीछे महज एक 'चिह्न’ का दर्जा दिया गया। पांच मार्च 2००9 का वह दिन मनाया तो वैसे मेरे अभिनंदन दिवस के रूप में था पर यह दिन मेरे लिए क्षोभ से भर देने वाला रहा। जिस दौर में डॉलर की पूरी इकोनमी डूब रही थी, मैंने देश को 'अर्थवान’ बनाए रखा। आज उसी कुबड़े डॉलर के चिह्न के आगे मुझे एक कमजोर हैसियत के साथ पस्तहाल दिखाया जाता है तो यह आघात लगता है। बहरहाल यह देश के तिजोरी मंत्री और प्रधानमंत्री पर ही है कि वे मेरी हैसियत और रुतबे से डॉलर को और कितना खेलने देते हैं?
http://www.nationalduniya.com/
भूमंडलीकरण की छतरी के नीचे बैठे तमाम आर्थिक दिग्गज जब यह बताते हैं कि मेरी सेहत तारीखी तौर पर बिगड़ रही है तो हैरत मुझे भी होती है। मैं नहीं चाहता कि मुझे कोई जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना दे पर इतनी कामना तो मेरी भी है कि मेरे आगे यह साफ हो कि क्या मैं सचमुच काफी कमजोर हो गया हूं या फिर कोई मुझसे ज्यादा मजबूत है इसलिए उसके सामने मुझे पिद्दी बताया जा रहा है। मैं जानता हूं आंखों पर बड़े फ्रेम का चश्मा चढ़ाकर मेरा बुखार मापने वाले मुझे बस जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना ही देंगे। वे यह नहीं बताएंगे कि मुझे जिन महाबलियों के आगे लगातार कमजोर सिद्ध किया जा रहा है, उनकी बढ़ी ताकत के पीछे राज क्या है।
मैं कोई मूढ़ नहीं बल्कि तालीमशुदा हूं। मुझसे यह बात छिपी नहीं कि मेरा कद और मेरी वकत डॉलर के मुकबले आंकी जा रही है। यह मुकाबला मेरा चुनाव नहीं है। मुझे इस मुकाबले में उतरना पसंद भी नहीं। मैं तो उलटे सवाल करना चाहूंगा देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का दिलासा दिलाने वाले तमाम 'मनमोहनों’ से कि उन्होंने मेरी इज्जत दूसरों के सामने यों क्यों उछाली। देश की आजादी के आसपास तो डॉलर की भी वही हैसियत थी जो मेरी। फिर पिछले छह दशकों और खासकर हालिया दो-तीन दशकों में ऐसा क्या हो गया कि डॉलर दुनियाभर की मुद्राओं के लिए एक पैमाना बन गया। क्या यह मुनासिब है? और यह मुनासिब है तो बगैर मेरी ताकत के यह देश आर्थिक महाशक्ति होने का दावा क्या हवा में कर रहा है। अगर देश की मुद्रा की इकाई ही कमजोर है तो फिर वह देश समृद्धि और विकास की दहाई, सैकड़ा, हजार... की दूरी कैसे पूरी कर सकता है। यह अर्थ का ज्ञान नहीं अनर्थ करने की सनक है। और मुझे ऐसे सनकी अगर बख्श ही दें तो अच्छा होगा।
जब कभी मेहनत और पसीने का फल होने की इज्जत मुझे दी जाती है तो मेरे साथ मेरे धारकों को भी फL और संतोष होता है, अपने स्वाबलंबन का, अपने पुरुषार्थ का। आज तो मेरे चेहरे को भी काला-सफेद कर दिया गया है। कई तिजोरियों में मैं काले धन के तौर पर सिसक रहा हूं तो कहीं सफेद होने के बावजूद गरीबी रेखा के नीचे दुबके रहने पर मजबूर हूं।
एक शिकायत मेरी उन तर्कवीरों से भी हैं जो अपनी अगाध राष्ट्र आस्था के नाम पर यह सवाल उछाल रहे हैं कि क्या कमजोर रुपया मतलब कमजोर राष्ट्र है? मैं खुद के कभी सोने या तांबे-पीतल होने को लेकर कोई अकड़ नहीं रखता। पर इतना मुझे भी पता है कि अगर देश के तिरंगे को कमजोर कहने की हिमाकत राष्ट्रीय अपराध है, देश की सेना को कायर कहना राष्ट्रद्रोह है तो देश के करोड़ों मेहनतकशों की कमाई की कीमत को भी कमतर आंकना राष्ट्रीय जुर्म है।
मेरी जन्मकुंडली और हैसियत का हिसाब रखने वाले उस दिन बहुत खुश थे जब मुझे नाम और छवि को पीछे महज एक 'चिह्न’ का दर्जा दिया गया। पांच मार्च 2००9 का वह दिन मनाया तो वैसे मेरे अभिनंदन दिवस के रूप में था पर यह दिन मेरे लिए क्षोभ से भर देने वाला रहा। जिस दौर में डॉलर की पूरी इकोनमी डूब रही थी, मैंने देश को 'अर्थवान’ बनाए रखा। आज उसी कुबड़े डॉलर के चिह्न के आगे मुझे एक कमजोर हैसियत के साथ पस्तहाल दिखाया जाता है तो यह आघात लगता है। बहरहाल यह देश के तिजोरी मंत्री और प्रधानमंत्री पर ही है कि वे मेरी हैसियत और रुतबे से डॉलर को और कितना खेलने देते हैं?
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