मि बुरा न मानो होली है। मस्ती की इस टेर पर होली की मस्ती ने जाने कितनी चुहल और कितनी शरारतों ने मन से अंगराइयां भरी हैं। मस्ती के इतने सारे रंगों को किसी एक रंग में रंगा दिखना हो तो भारत के महान लोकपर्व होली की परंपरा का अवगाहन कोई भी कर सकता है। होली संबंधों से लेकर स्वादिष्ट पकवानों तक अनेक रूपों और अर्थों में हमारी लोक परंपरा का हिस्सा रहा है। पर पिछले कुछ सालों-दशकों में होली बदरंग हुआ है। इस लोकपर्व की सबसे बड़ी थाती उसके गीत रहे हैं, जो आज भी तकरीबन सभी लोक और शास्त्रीय घरानों की पहचान में शुमार है।
दुर्भाग्य से होली के ये पारंपरिक गीत आधुनिक बयार में या तो बदल रहे हैं या फिर अपने को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नतीजतन जिन होली गीतों में स्त्री-पुरुष और पारिवारिक संबंधों को लेकर मर्यादित विनोद और हंसी-ठिठोली के रंगारंग आयोजन होते थे, वहां सतहीपन और अश्लीलता इतना बढ़ी है कि अर्थ की पिचकारी की जगह द्विअर्थी तीर सीधे कानों को बेधते हैं। दिल्ली की एक संस्था ने कुछ साल पहले कुछ ऐसे भाषाई कैसेटों-एलबमों का अध्ययन किया था, जिनकी बिक्री बाजार में लोकगीत-संगीत के नाम पर होती है। इनके कवर पर छपी तस्वीरों और टाइटल से कोई सहज ही इनके स्तर और कांटेंट का पता कर सकता है।
लोक के विलोप का खतरा बाजार के दौर में बढ़ा तो जरूर है पर इसका निपटना इतना आसान भी नहीं है। लिहाजा लोक छटा को बाजार अपनी तश्तरी में सजाकर मन-माफिक तरीके से बेच रहा है। लिहाजा लोक की विरासत कायम तो जरूर है पर यह इतनी विषाक्त जरूर हो जा रही है कि लोकगंगा के लिए अलग से सफाई अभियान की दरकार है।
पिछले साल रिलीज एक होली एलबम की बानगी देखिए- "का करता है तू सब रे। इ रंग लगा लगा रहा है कि लैकी के गाल पर पीडब्ल्यूडी का रोलर चला रहा है।' इस देशज डॉयलाग के बाद शुरू होता है होली गीत। गीत के बोल ऐसे जैसे लड़की को रंग लगाने का नहीं बल्कि सीधे बिस्तर पर आने का आमंत्रण दिया जा रहा हो। वैसे यह तो कम है, कई गीत तो अपनी मंशा से ज्यादा अपनी शब्दावली में ही इतने भोंडे होते हैं कि आप उन पर कोई चर्चा तक नहीं कर सकते। लोक गायिका मालिनी अवस्थी मानती हैं कि इन फूहड़ गीतों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। श्रोता और दर्शक थोड़े कम दोषी इसलिए हैं क्योंकि उनके पास चुनाव अब अच्छे-बुरे के बीच रहा ही नहीं। लिहाजा, कान उन कंपनियों का ऐंठना चाहिए जो होली के रंग-बिरंगे आयोजन को बदरंग कर रहे हैं। निशाने पर लोक परंपरा तो है ही, उनसे ज्यादा महिलाएं हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा फब्तियां और ओछी हरकतें उन्हें ही सहनी-उठानी पड़ती हैं। अगर यह लगाम जल्द ही कसी नहीं गई तो इस महान लोकपर्व को महिला विरोधी करार दिए जाने का खतरा है।
दुर्भाग्य से होली के ये पारंपरिक गीत आधुनिक बयार में या तो बदल रहे हैं या फिर अपने को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नतीजतन जिन होली गीतों में स्त्री-पुरुष और पारिवारिक संबंधों को लेकर मर्यादित विनोद और हंसी-ठिठोली के रंगारंग आयोजन होते थे, वहां सतहीपन और अश्लीलता इतना बढ़ी है कि अर्थ की पिचकारी की जगह द्विअर्थी तीर सीधे कानों को बेधते हैं। दिल्ली की एक संस्था ने कुछ साल पहले कुछ ऐसे भाषाई कैसेटों-एलबमों का अध्ययन किया था, जिनकी बिक्री बाजार में लोकगीत-संगीत के नाम पर होती है। इनके कवर पर छपी तस्वीरों और टाइटल से कोई सहज ही इनके स्तर और कांटेंट का पता कर सकता है।
लोक के विलोप का खतरा बाजार के दौर में बढ़ा तो जरूर है पर इसका निपटना इतना आसान भी नहीं है। लिहाजा लोक छटा को बाजार अपनी तश्तरी में सजाकर मन-माफिक तरीके से बेच रहा है। लिहाजा लोक की विरासत कायम तो जरूर है पर यह इतनी विषाक्त जरूर हो जा रही है कि लोकगंगा के लिए अलग से सफाई अभियान की दरकार है।
पिछले साल रिलीज एक होली एलबम की बानगी देखिए- "का करता है तू सब रे। इ रंग लगा लगा रहा है कि लैकी के गाल पर पीडब्ल्यूडी का रोलर चला रहा है।' इस देशज डॉयलाग के बाद शुरू होता है होली गीत। गीत के बोल ऐसे जैसे लड़की को रंग लगाने का नहीं बल्कि सीधे बिस्तर पर आने का आमंत्रण दिया जा रहा हो। वैसे यह तो कम है, कई गीत तो अपनी मंशा से ज्यादा अपनी शब्दावली में ही इतने भोंडे होते हैं कि आप उन पर कोई चर्चा तक नहीं कर सकते। लोक गायिका मालिनी अवस्थी मानती हैं कि इन फूहड़ गीतों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। श्रोता और दर्शक थोड़े कम दोषी इसलिए हैं क्योंकि उनके पास चुनाव अब अच्छे-बुरे के बीच रहा ही नहीं। लिहाजा, कान उन कंपनियों का ऐंठना चाहिए जो होली के रंग-बिरंगे आयोजन को बदरंग कर रहे हैं। निशाने पर लोक परंपरा तो है ही, उनसे ज्यादा महिलाएं हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा फब्तियां और ओछी हरकतें उन्हें ही सहनी-उठानी पड़ती हैं। अगर यह लगाम जल्द ही कसी नहीं गई तो इस महान लोकपर्व को महिला विरोधी करार दिए जाने का खतरा है।
सही कहा आपने.
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पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?