बहरहाल, बात एक बार फिर से नैना सिंह की। फिल्म में नैना का किरदार गुल पनाग ने निभाया है। फिल्म करने के बाद वह चैनलों और अखबारों ने उसकी टिप्पणियों को बतौर एक रेडिकल फेमिनिस्ट सुर्खियां में खूब टांगा। अब खबर यह है टर्निंग 30 का द्वंद्व अपनी निजी चिंदगी में भी झेल रही गुल ने अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ सात फेरे ले लिए हैं। सुंदरता की बिकाऊ स्पर्धा जीतने, फिर रैंप पर कुछ छरहरी चहलकदमियां, मॉडलिंग और पेज थ्री की दुनिया में मौजूदगी को बनाए-टिकाए रखने के लिए कैमरे को तमाम मांसल एंगल मुहैया कराने और कुछ लीक से अलगाई जाने वालीं फिल्में करते-करते दो साल पहले तीस पार कर चुकीं गुल को अब जिंदगी की बहार घर के बाहर नहीं, घर-परिवार के भीतर नजर आने लगी है।
तीस की टीस को अभिनय और असल जिंदगी में महसूस कर चुकी गुल से चाहे तो कोई अब यह पूछ सकता है कि आधुनिकता की टेर पर जिंदगी के स्वचछंद गायन का ऊपरी सूर क्या आजीवन नहीं साधा जा सकता। याकि जीवन के जो तरीके तीस तक ठीक-ठाक लगते हैं, तीस पर पहुंचकर वही तरीके अप्रासंगिक और गैरजरूरी क्यों नजर आने लगते हैं। दरअसल, तीस की दहलीज तक पहुंची तीन दशकीय उदारवादी सामाजिक स्थितियों की जो सबसे बड़ी त्रासदी है, उसे ही युवाओं और खासकर महिलाओं की आजादी की शिनाख्त दे दी गई है। गाल बजा-बजाकर बहस करने वाले महिला हिमायतियों ने अब तक इस बात का कोई जवाब नहीं दिया है कि लोक, परंपरा और संबंध के भारतीय अनुभव अगर खारिज होने चाहिए तो उसका विकल्प क्या है।
हिंदी साहित्य के जानकार जानते हैं कि आजादी पूर्व क्रांतिकारी रणभेरी के साथ शुरू हुआ मुक्ति प्रसंग, किस तरह आसानी से स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की ढलान पर आ गया। दिलचस्प है कि मस्ती और मनमानी के गायक यहां भी वही थे, जो देश और समाज की आजादी के तराने गा रहे थे। संबंधों की बहस महिला बनाम पुरुष से ज्यादा सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों में एकांगी और स्वायत्त उल्लास के ओवरइंजेक्शन का है। जिस बाजार के एक्सलेटर्स पर चढ़कर आज हम फ्लैट, टीवी और गाड़ी को अपनी पहुंच और जरूरत के तौर पर गिना रहे हैं, उसका इंटरेस्ट संबंधों के स्थायित्व की बजाय उसके टूटने-बदलने के आस्वादी रोमांच में ज्यादा है। यही प्रशिक्षण वह नए तरह से तैयार ग्रीटिंग कार्डस, सीरियल, एड और रियलिटी शोज के जरिए चौबीसों घंटे चला रहा है।
दरअसल, सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस का थ्री-एस फिनोमना अपने तीन दशकों की यात्रा के बाद टर्निंग-30 का जो विमर्श चला रहा है, वहां अब भी संतोषजनक उपसंहार की गुंजाइश किस कदर गुल है, यह बात कोई आैर समझे या न समझे गुल पनाग के तो समझ में आ गई है। शादी की 'बुलेट सवारी' करती गुल को खुश देखकर फिल्म में उसके रोने और तड़पने की वजह आसानी से समझी जा सकती है। यह समझ अगर आधी दुनिया के खुद ब खुद अलंबरदार बने फिरने वालों के समझ में भी आ जाए तो उनकी नादानी के 'सात खून माफ' हो सकते हैं।
सश्क्त ढंग से खोखले बाजारवाद का दंश अभिव्यक्त हुआ है।
जवाब देंहटाएंshukriya...bhai Devendra!
जवाब देंहटाएंप्रेमजी..
जवाब देंहटाएं. यह फिल्म नहीं देखी..इसलिए गुल के बारे में कुछ नहीं कहूँगी.
...किन्तु मुझे नहीं लगता की अगर एक लड़की के दिमाग को सम्मान देने वाला पुरुष उसे मिल जाये ..
..तो वह शादी करने का फैसला लेने में देरी करेगी.
प्रीतंभरा... मैं सहमत हूं आपकी राय से...पर एक बात यह जरूर है कि टर्निंग-30 तक पहुंचा महिलाओं का मौजूदा मुक्ति प्रसंग कम से कम ऐसी कोई सीख या सबक नहीं देता।
जवाब देंहटाएंतीस की टीस ।
जवाब देंहटाएंटिप्पणीपुराण और विवाह व्यवहार में- भाव, अभाव व प्रभाव की समानता.