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शनिवार, 26 जनवरी 2019

जिद्दी प्रतिरोध की अक्षर दुनिया


- प्रेम प्रकाश

भारत में महिला लेखन के जरिए स्त्री संघर्ष, चेतना और अस्मिता की जो अक्षर दुनिया पिछले कुछ दशकों में आबाद हुई है, उस दुनिया में रचनात्मक हस्तक्षेप की जो सबसे बड़ी धुरी है, उसे चिन्हित करने में कृष्णा सोबती का बड़ा योगदान रहा है। कृष्णा जी ने महिलावादी आंदोलन की वैश्विकता के बीच स्त्री, समाज और परंपरा को अपने तरीके से एक सीध में रखकर देखा। 1950 में कहानी ‘लामा’ से साहित्यिक सफर शुरू करने वाली इस महान लेखिका ने महिला पक्ष के साथ अपने समय के हस्तक्षेप को भी काफी निर्भीक तरीके से लिखा और बोला। इसलिए उनके लेखन और जीवन की रचनात्मक चौहद्दी को बांधना आसान नहीं है।

उनके लेखन में अगर किसी पहाड़ी नदी की तरह आधी दुनिया की हहराती संवेदना है तो समय और समाज की उस चिंता से भी वह हरसंभव मुठभेड़ करती हैं, जिसके लिए कलम को सीधे-सीधे आंदोलन और प्रतिरोध का हथियार बनना पड़ता है।

यह नहीं कि आज जब कृष्णा सोबती हमारे बीच नहीं हैं, तो उनके लेखन और जीवन को लेकर हम भावनात्मक रूप से अतिरिक्त रूप से विवश या सम्मोहन का शिकार हुए जा रहे हैं, बल्कि यह तो उनके जीते-जी ही हो गया था कि समकालीन भारतीय साहित्य की कोई भी कतार बगैर उनके नाम के पूरी नहीं होती है। उनकी नाक पर चढ़े बड़े ऐनक में हम सब अपनी दुनिया को आलोचकीय विवेक के साथ देखने-समझने के आदी बहुत पहले हो गए हैं।

उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए हम अगर उस दौर की स्थितियों को देखें-समझें, जब वो अपनी स्वीकृति और उभार के लिए संघर्ष कर रही थीं तो साफ दिखता है कि नई कहानी आंदोलन के भीष्म साहनी और कमलेश्वर से लेकर राजेंद्र यादव जैसे नामवर सितारों के बीच एक लेखिका कैसे अपने जिद्दी महिला किरदारों के साथ कथा और जीवन का एक नया साझा रचने का जोखिम उठाती है। हिंदी संवेदना की अक्षर दुनिया में यह एक बड़ा मोड़ ही नहीं, एक साहसी हस्तक्षेप भी था। मृदुला गर्ग से लेकर ममता कालिया, नासिरा शर्मा और उनके बाद की कथाकारों तक यह दुनिया अगर लागातार आबाद और सघन होती चली गई तो इसलिए क्योंकि इस विस्तार को कृष्णा जी पाठकों के बीच बड़ी स्वीकृति दिला चुकी थीं। हिंदी आलोचना ने इस रचनात्मक स्वीकृति के दमखम को भले देर-सबेर पहचाना हो पर स्त्री विमर्श का समकालीन सर्ग आज अगर एक बड़ी आलोचकीय दरकार का नाम है तो इसलिए क्योंकि इसने जीवन और लेखन के पुरुषवादी मिथ को निणार्यक रूप से तोड़ दिया है।

कृष्णा जी को पिछले साल ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। इससे पहले उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के लिए उन्हें वर्ष 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फेलोशिप से भी नवाजा गया था। इसके अलावा पद्मभूषण, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान जैसे अलंकरण उनकी यशस्विता को बढ़ाते हैं। उन्होंने अपने लेखन से हिंदी की कम से कम दो पीढ़ियों को रचनात्मक संवेदना से जोड़ा है। उनके कालजयी उपन्यासों में ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘जिंदगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय सरगम’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘हम हशमत’, ‘बादलों के घेरे’ ने कथा साहित्य को अप्रतिम ताजगी और स्फूर्ति प्रदान की है।

उनकी रचनात्मक सक्रियता के आखिरी दिनों में आई ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ जैसी पुस्तकें ये दिखाती हैं कि वह मौजूदा देशकाल और परिस्थिति को देखते-समझते हुए किस तरह अपने रचनात्मक शिल्प और कथ्य को लगातार विचार और लोकतंत्र की हिफाजत के औजार के तौर पर मांज रही थीं।

18 फरवरी 1924 को गुजरात (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मीं कृष्णा सोबती हमेशा साहसपूर्ण रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती रहेंगी। निजी जिंदगी से लेकर अपने शब्दों की दुनिया को वे लगातार इस काबिल बनाए रखने में सफल रहीं, जिस कारण उनके प्रति सम्मान रखने वालों का समाज हर तरह के इकहरेपन का अतिक्रमण करता है। दिलचस्प है कि यह अतिक्रमण खुद उनके जीवन और लेखन का भी हिस्सा रहा है। 94 साल का जीवन जिस दुनिया में उन्होंने जिया, उसमें जब-जब कोई महिला आजादख्याली की बात करेगी, जब-जब लेखकों-बौद्धिकों की जमात अभिव्यक्ति की निर्भीक आजादी की बात करेगी, तब-तब उनकी स्मृति हमें रचनात्मक ऊर्जा से समृद्ध करती रहेगी।

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