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सोमवार, 1 अगस्त 2011

50 लाख पन्नों पर लिखी दोस्ती


प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहतीं थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं। फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में अगस्त के पहले रविवार से शुरू होगा उसके पीछे का अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से भी परदा उठाता है।
फ्रेंडशिप डे या मैत्री दिवस को मनाने का ऐतिहासिक सिलसिला 1935 में तब शुरू हुआ जब यूएस कांग्रेस ने दोस्तों के सम्मान में इस खास दिन को मनाने का फैसला किया। इस फैसले तक पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी वजह प्रथम विश्वयुद्ध के वे शर्मनाक अनुभव बनी जिसने देशों के साथ समाज के भीतर संबंधों के सारे सरोकारों को तार-तार कर दिया। इस त्रासद अनुभव को सबने मिलकर अनुभव किया। तभी बगैर किसी हील-हुज्जत के यह सर्वसम्मत राय बनने लगी कि अगर हम संबंधों के निभाने के प्रति समय रहते संवेदनशील जज्बे के साथ सामने नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं जब मानव इतिहास का कोई भी हासिल बचा नहीं रख पाएंगे। आलम यह है कि पिछले कई दशकों से  दुनिया के सबसे ताकतवर देश का तमगा हासिल करने वाले देश से मैत्री को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा आज पूरी दुनिया के कैलेंडर की एक खास तारीख है। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े इस जरूरत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी 1997 में एक अहम फैसला लिया। उसने लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती का राजदूत घोषित किया।
पिछले दस सालों में दोस्ती का यह पर्व उसी तरह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ है जिस तरह वेंलेंटाइन डे। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है। लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते हैं- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।' जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते हैं।
फेंड और फ्रेंडशिप का जिक्र हो रहा हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती के महापर्व की हो तो इन युवाओं को कैसे भूला जा सकता है। हाल में टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे "इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।' इस  वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
स्थिति शायद उतनी निराशाजनक नहीं जितनी ऊपर से दिखती है। गूगल सर्च इंजन पर फ्रेंडशिप डे के दो शब्द जो 50 लाख से ज्यादा पन्ने हमारे सामने खोलता है उसमें कई सामाजिक संस्थाओं और दोस्तों के ऐसे समूहों के क्रिया-कलापों का बखान भी बखान भी है जो मानवीय संबंधों को हर तरह की त्रासदी से उबाड़ने में लगे हैं। खुशी की बात यह कि ऐसी पहलों का ज्यादातर हिस्सा युवाओं के हिस्से है। बहरहाल, पूरी दुनिया के साथ भारत भी मैत्री दिवस को मनाने के लिए तैयार है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधों और वचनों के मान के लिए सब कुछ दाव पर लगा देने वाले देश में लोक और परंपरा के साथ आधुनिकता के बीच दोस्ती के नए संकल्प पूरे होंगे।  

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