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शुक्रवार, 13 जून 2014

चोमस्की के मोदी विरोध का तर्क-कुतर्क


सोलह मई को 16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के नतीजे आए थे। उस दिन सबके अवाक रहने की स्थिति थी। विरोधी इस बात से हतप्रभ थे कि नमो का जादू इतना कारगर कैसे रहा, तो हिमयती इस बात पर दंग थे कि उम्मीद से बड़ी सफलता आखिर मिली कैसे। प्रतिक्रियों के इन अतिरेक के बीच एक खामोशी भी पसरी थी। समय और परिस्थिति के मुताबिक अपनी निष्ठाएं बदलने वाले बौद्धिकों को छोड़ दें तो कुछ ढीठ किस्म के प्रगतिशील ऐसे भी थे, जिनसे इस चुनाव परिणाम को देखकर कुछ बोलते नहीं बन रहा था। पर यह बोलती बंद की नौबत विचार परिवर्तन की चौखट को खटखटा नहीं सकी।
फिर क्या था कि जैसे-जैसे 16 मई पीछे छूटती गई, इन प्रखर जनों ने अपनी टेक नए सिरे से लेनी शुरू कर दी। बहुमत के आंकड़े को झुठलाया नहीं जा सकता और न ही लोकतंत्र में जनता की राय को लेकर आप सार्वजनिक तौर पर कोई नकारात्मक राय रख सकते हैं। पर विचार और तर्क की दुनिया में इससे बच निकलने के चोर रास्ते भी हैं। ऐसा ही एक चोर रास्ता खोला गया है विश्व प्रसिद्ध चिंतक, विचारक और भाषाविद नोम चोमस्की का नाम लेकर। चोमस्की ने भारत में नमो उदय को लेकर कुछ तीखी बातें कही हैं। खासतौर पर सोशल मीडिया पर वैचारिक वाम की अलंबरदारी करने वालों ने चोमस्की के बयान को आपस में खूब पढ़ा-पढ़ाया है। अब तो चोमस्की की टिप्पणी के साथ भाई लोग अपनी पूरक टिप्पणी भी जोड़ते चले जा रहे हैं। इस तरह एक बयान अब भरे-पूरे आख्यान की शक्ल लेता जा रहा है। आख्यान मोदी विरोध का, देश की राजनीति में मोदी के धूमकेतु की तरह उदय को लेकर जरूरी संशय का।
बहरहाल, इस बारे में आगे और बात करने से पहले यह देख लेना जरूरी है कि आखिर चोमस्की ने कहा क्या है। नोम चोमस्की के बयान से जुड़ी यह टिप्पणी देश के एक प्रगतिशील बौद्धिक के फेसबुक वाल से उठाई गई है। नाम का जिक्र इसलिए नहीं कि ऐसा किया नहीं जा सकता बल्कि इससे अनावश्यक एक ऐसे विवाद का जन्म होगा, जिसका चोमस्की के बयान प्रसंग को लेकर खड़ी हुई बहस से कोई सीधा लेना-देना नहीं है। फेसबुक पर जो टिप्पणी की गई है, वह कुछ इस तरह है-'नोम चोमस्की ने भारत के संभावित राजनीतिक परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए आज बोस्टन में कहा कि भारत में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है। भारत खतरनाक स्थिति से गुजरेगा। आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व में जो बदलाव भारत में आने वाला है, ठीक इसी अंदाज में जर्मनी में नाजीवाद आया था। नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन लोकप्रियता का सहारा लिया था। भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है। कांग्रेस पार्टी ही इन सबके लिए जिम्मेदार है। अब भारत के वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा। नोम चोमस्की आज शाम को कैंब्रिज पब्लिक लाइब्रेरी में अमेरिका की विदेश नीति पर अपना डेढ़ घंटे का भाषण दे रहे थे। इसके पश्चात उन्होंने अलग से मेरी अनौपचारिक संक्षिप्त बातचीत में अपनी यह प्रतिक्रिया व्यक्त की।’
अब कोई चोमस्की से यह पूछे कि लोग उन्हें एंटी-स्टैबलिशमेंट की पैरोकारी करने वाले तो मानते हैं पर लोकतंत्र विरोधी नहीं। फिर एक देश में चुनाव के जरिए बहाल हुई नई सरकार और उसके जरिए उभरे नए राजनीतिक नेतृत्व को वे इतने संशय की नजर से क्यों देख रहे हैं। क्या वैचारिक प्रखरता और प्रगतिशीलता की एक शर्त यह भी है कि वह हर उभार के खिलाफ हो। क्योंकि तभी विरोध को वैचारिक तौर पर वजनी माना जाएगा और उस पर चर्चा होगी।
नोम चोमस्की जिस देश से आते हैं और जहां उन्हें थिंक टैंक तो माना जाता है पर वहां भी वे मुख्यधारा के बौद्धिकों और विचारकों की अगुवाई नहीं कर सके। कहने को भले ऐसा करना उनकी महात्वाकांक्षा का हिस्सा न हो, पर उनके आलोचक तो इसे उनकी असफलता के तौर पर ही देखते हैं।
चोमस्की भारत को लेकर पहले भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी बातें मुखरता से कहते रहे हैं। पर उनकी हालिया टिप्पणी से नहीं लगता कि वे भारत की राजनीतिक सचाई से पूरी तरह वाकिफ हैं। वाम की तरफ उनका झुकाव स्वाभाविक है पर भारत में वाम अपने गढ़ में ही ढह गया, इस स्थिति को समझने का विवेक वे नहीं दिखा रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के पुराने जिक्र को छोड़ भी दें तो भी चोमस्की यह बताने से तो बच ही रहे हैं कि बाजार के दौर में मनुष्य के अंदर उन्नति और विकास की एक नई सोच पैदा हुई है, उसके आगे कोई वैकल्पिक लकीर कैसे खिंची जाए।
बाजारवादी व्यवस्था के हिमायती भारत में भी बहुत लोग नहीं हैं। यहां तक कि नरेंद्र मोदी जिस पार्टी और विचारधारा से आते हैं, उसकी भी बुनियादी अवधारणा इसके खिलाफ है। पर इससे देश और समाज में विकास और उन्नति की जगी भूख और उससे पैदा लेने वाले नए तरह के राजनैतिक नेतृत्व का तकाजा कहां से खारिज हो जाता है।
चोमस्की की इस बात में जरूर थोड़ा दम है कि भारत में मोदी के उभार और कांग्रेस के बुरे हश्र को देखकर कई लोगों को यह लगता है कि देश में विचार और सत्ता से जुड़े तमाम सरोकार एकध्रुवीय न हो जाएं। एक अच्छे लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरूरी है। असहमति के लिए लोकतंत्र में गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए, यह क्रियात्मक रूप में भी सामने आना चाहिए।
वाम और क्षेत्रीय दलों के एक मंच पर आने की बात देश में चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भी उठी पर कुछ भी ठोस सामने नहीं आया। अब एक ही उम्मीद है कि मोदी सरकार के काम करते कुछ दिन बीतते हैं तो फिर उनको लेकर सहमति-असहमति की सही जमीन चिह्नत होगी। इस इम्तहान में दोनों पक्षों को खरा उतरने की चुनौती होगी।
मोदी अभी देश में उम्मीद और भरोसे का नाम है। जिस तरह की स्थितियां पूरे देश में व्यवस्था से लेकर समाज तक है, उसमें रातोंरात कोई क्रांतिकारी बदलाव आसान बात नहीं होगी। यह बात उनके विरोधियों के भी समझ में आ रही है। पर विरोध के इस संभावित रकबे को घेरने के लिए उन्हें अभी थोड़ा धैर्य दिखाना होगा। यही नहीं उन्हें इस बीच जनता की अपेक्षाओं के मुताबिक अपनी राजनीति की बनावट को भी नए सिरे से गढ़ना होगा।
क्या चोमस्की की बातों पर उछाल भरने वालों को लोकतांत्रिक राजनीति की इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती मंजूर है। अगर हां, तो फिर यह उनसे ज्यादा इस महान लोकतांत्रिक मर्यादाओं वाले देश के हित में होगा और अगर नहीं, तो फिर यही साफ होगा कि बड़ी लकीर (मोदी) के आगे उससे भी बड़ी लकीर खींचना एक बात है और लकीर पीटते रहना दूसरी।
 

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