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गुरुवार, 19 जून 2014

महज यूपी नहीं आधी दुनिया की करें फिक्र

आपकी नजर में कौन सी खबर ज्यादा बड़ी है, बहस की नई मेजें सजने वाली हैं- वह सब जो इन दिनों देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में हो रहा है या वह जिसने प्रीति जिंटा और नेस वाडिया के रिश्ते को पुलिस थाने तक ले आई? वैसे इन दोनों खबरों से इतर एक तीसरी खबर भी है, जिसकी चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया पर खासा वायरल है। कमाल तो यह कि इंटरनेट खंगालने पर इसके टेक्स्ट अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी में मिले। दरअसल, हम बात कर रहे हैं पूर्व अमेरिकी मॉडल सारा वॉकर की।
सारा को हॉट बिकनी गर्ल का खिताब युवाओं ने दे रखा था। वह मॉडलिंग की दुनिया में एक सनसनाता नाम रही। पर अचानक चमक-दमक की यह दुनिया उसे परेशान करने लगी। देह और संदेह के दौर में अपनी पहचान और सुरक्षा को लेकर जिस तरह की परेशानी घर से बाहर काम पर निकली किसी भी एक आम लड़की को हो सकती है, वही परेशानी सारा को भी हुई। पर बाकी लड़कियों की तरह अपनी इन परेशानियों को सहन करने या दबाने के बजाय उसके खिलाफ जाने का निर्णय किया। अलबत्ता यह तेवर बागी कम जुनूनी ज्यादा लगता है। क्योंकि अपनी बगावत में सारा वॉकर ने कुछ और नहीं किया बल्कि अपना धर्म बदल लिया। सारा ने इस्लाम की शरण यह सोचकर ली कि बुर्के और हिजाब की दुनिया महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित है। ऐसा है या नहीं इस पर जजमेंटल होने से अच्छा है कि हम सारा के निजी फैसले का स्वागत करें। पर यह फैसला कुछ सवाल तो उठाता ही है, जिन पर चर्चा हो रही है और होनी भी चाहिए।
सारा के जिक्र के बरक्श अगर बात यूपी में महिलाओं के खिलाफ पेड़ से लटकी बर्बरता की करें या प्रीति जिंटा मामले पर शुरू हुई बेहूदी लतीफेबाजी की, तो सबसे बड़ी कसूरवार वह दृष्टि है, जिसने महिलाओं को महज फिगर और आइटम बनाकर रख छोड़ा है।
ऐसा नहीं है कि अपराध यूपी के किसी हिस्से में हो तो उसका एक मतलब होता है और मुंबई-दिल्ली-गुड़गांव-गुवाहाटी में हो तो उसके मायने बदल जाते हैं। आलोचना तो मीडिया की भी होनी चाहिए कि वह अपराध को लेकर एक नए तरह का वर्ग भेद पैदा कर रहा है। यह कैसे हो रहा है, इसकी ताजा मिसाल है फिल्म 'रागिनी एमएमएस-2’ के हिट गाने 'बॉबी डॉल सोने की’ का वीडियो। इस बोल्ड फिल्म पर सेंसर बोर्ड की कितनी कैंचियां चलीं, मालूम नहीं। पर यह तो रोज टीवी पर दिख रहा है कि कुछ दिन पहले तक इस गाने के वीडियो में सनी लियोनी ने अपने शरीर के एक खास हिस्से को कपड़ों से ढक रखा था और इन दिनों चल रहे वीडियो में कपड़े की जगह उसके दोनों हाथों ने ले ली है। फिर क्या... कई छोटे-बड़े शहरों से पर्दे से उतर जाने के बाद भी यह फिल्म टीवी चैनलों पर धूम मचाए हुए है।
इस गाने में सनी के बोल्ड से बोल्डतर अवतार पर आंखंे सेंकने वालों को इंटरटेनमेंट का यह चालाक ओवरडोज खूब रास आ रहा है। पर मीडिया की नजर में इससे न तो कोई कानून व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो रहा है और न कहीं मानवता शर्मसार हो रही है। जबकि सचाई तो यह है कि इस तरह हम जिस तरह का देशकाल और मानस रच रहे हैं, वही पुरुष के लिए स्त्री देह संसर्ग को एक 'बर्बर कारवाई’ बनाने की जंगली सनक को जन्म देते हैं।
पूर्व विश्व सुंदरी युक्ता मुखी की 2००8 में हुई शादी पिछले साल पुलिस थाने तक इसलिए पहुंच गई क्योंकि युक्ता को यह शिकायत थी कि उसके पति प्रिंस तुली उनसे वह सब कुछ चाहते हैं, जो उनके लिए घिनौना है, अप्राकृतिक है। अब कोई यह बताए कि क्या कोई इस घटना को पोस्टर बनाकर पूरे बॉलीवुड इंडस्ट्री पर चस्पा करने की हिमाकत कर सकता है कि मनोरंजन की यह पूरी दुनिया पथभ्रष्ट हो चुकी है, महिला विरोधी हो चुकी है। अगर ऐसा नहीं किया या सोचा जा सकता है तो क्या इसलिए क्योंकि खासतौर पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध को हम धन, हैसियत, शिक्षा, पेशा और स्थानादि से जोड़कर देखते हैं और फिर उसके मुताबिक ही उसका राजनीतिक-सामाजिक भाष्य तैयार करते हैं।
महिलावादी लेखिका मनीषा अपनी पुस्तक 'हम सभ्य औरतें’ में एक ऐसी घटना का जिक्र करती हैं जिसमें बीमारी के कारण महीनों से कौमा में पड़ी अपनी पत्नी के लिए अदालत से कृपा मृत्यु की फरियाद करने वाला पति ही बाद में अचेत पत्नी से संसर्ग बनाता है। देह और पुरुष के बीच खिंची यह वही रेखा है, जो बदायूं में दो बहनों के साथ दुष्कर्म के बाद उनकी हत्या और फिर उनकी लाश को तमाशा बनाने की जंगली हिमाकत के लिए उकसाती है।
बात प्रीति और नेस के संबंध की करें तो यहां भी यही बात संवेदनहीनता की बदली जिल्द के साथ नजर आती है। ये दोनों शादीशुदा नहीं लेकिन लंबे समय तक रिलेशन में थे। बताते हैं कि अब नेस को एक और कन्या का साथ भा रहा है। प्रीति के अधिकार बोध को यह कतई बर्दाश्त नहीं। पर सवाल यह है कि संबंध को समाज और परंपरा से निरपेक्ष अपने मन मुताबिक शक्ल देने की आतुरता अगर 'दुर्घटनाग्रस्त’ होती है तो फिर इसकी सुनवाई कानून और समाज कैसे करे। दरअसल, इन दिनों संबंधों को दीघार्यु बनाने के बजाय उसे अपडेट करने की नई सनक पैदा हो गई है। यह एलजीबीटी रिवोल्यूशन का दौर है। पर 'रेनबो रिबन’ संबंधों की नई कलाइयों की शोभा चाहे जितनी बने, इसने संबंध के कल्याणकारी सरोकारों को तो तहस-नहस कर ही दिया है।
बात जिस सारा वॉकर की हम पहले कर चुके हैं, अब जरा उसकी ही जुबानी उसके अनुभव सुनिए-'मैंने समुद्र के किनारे घर ले लिया। ...मैं अपने सौंदर्य को बहुत महत्व देती थी और ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान खुद की ओर चाहती थी। मेरी ख्वाहिश रहती थी कि लोग मेरी तरफ आकर्षित रहें। खुद को दिखाने के लिए मैं रोज समुद्र किनारे जाती। ...धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया लेकिन मुझे अहसास होने लगा कि जैसे-जैसे मैं अपने स्त्रीत्व को चमकाने और दिखाने के मामले में आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरी खुशी और सुख-चैन का ग्राफ नीचे आता गया।’ साफ है कि सारा ने उस दुनिया के सितम झेले और बढ़ती उम्र के साथ अकेली पड़ती गई, जहां सौंदर्य का मतलब उत्तेजना और संवेदना का मतलब दिखावा है। कहने की जरूरत नहीं कि 'आधी दुनिया’ के लिए 'पूरी दुनिया’ में मानसिकता एक जैसी है।
दुर्भाग्यपूणã यह है कि इस मसले को कहीं हम महज कानून व्यवस्था का सवाल बनाकर देखते हैं तो कहीं अपराधियों की समझ को उनकी जाति, शिक्षा या स्थान से जोड़कर देखते हैं। जबकि सचाई यह है कि अमेरिका के ह्वाइट हाउस से लेकर गरीबी और जहालत में डूबे यूपी के किसी गांव की सचाई में कोई फर्क नहीं है। दोष उस स्त्री मन का भी है, जो इस बर्बर पुरुष प्रवृत्ति के खिलाफ धिक्कार के बजाय स्वीकार से भर उठता है।
 

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