विवाह संस्था को लेकर बहस इसलिए भी बेमानी है क्योंकि इसके लिए जो भी कच्चे-पक्के विकल्प सुझाए जाते हैं, उनके सरोकार ज्यादा व्यापक नहीं हैं। पर बुरा यह लगता है कि जिस संस्था की बुनियादी शर्तों में लैंगिक समानता भी शामिल होनी चाहिए, वह या तो दिखती नहीं या फिर दिखती भी है तो खासे भद्दे रूप में। सबसे पहले तो यही देखें कि मंगलसूत्र से लेकर सिदूर तक विवाह सत्यापन के जितने भी चिह्न् हैं, वह महिलाओं को धारण करने होते हैं। पुरुष का विवाहित-अविवाहित होना उस तरह चिह्नि्त नहीं होता जिस तरह महिलाओं का। यही नहीं महिलाओं के लिए यह सब उसके सौभाग्य से भी जोड़ दिया गया है, तभी तो एक विधवा की पहचान आसान है पर एक विधुर
की नहीं।
अपनी शादी का एक अनुभव आज तक मन में एक गहरे सवाल की तरह धंसा है। मुझे शादी हो जाने तक नहीं पता था कि मेरी सास कौन है? जबकि ससुराल के ज्यादातर संबंधियों को इस दौरान न सिर्फ उनके नाम से मैं भली भांति जान गया था बल्कि उनसे बातचीत भी हो रही थी। बाद में जब मुझे सचाई का पता चला तो आंखें भर आईं। दरअसल, मेरे ससुर का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। लिहाजा, मांगलिक क्षण में किसी अशुभ से बचने के लिए वह शादी मंडप पर नहीं आईं। ऐसा करने का उन पर परिवार के किसी सदस्य की तरफ से दबाव तो नहीं था पर हां यह सब जरूर मान रहे थे कि यही लोक परंपरा है और इसका निर्वाह अगर होता है तो बुरा नहीं है। शादी के बाद मुझे और मेरी पत्नी को एक कमरे में ले जाया गया। जहां एक तस्वीर के आगे चौमुखी दीया जल रहा था। तस्वीर के आगे एक महिला बैठी थी। पत्नी ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए। बाद में मैंने भी ऐसा ही किया। तभी बताया गया कि वह और कोई नहीं मेरी सास हैं। सास ने तस्वीर की तरफ इशारा किया। उन्होंने भरी आवाज में कहा कि सब इनका ही आशीर्वाद है, आज वे जहां भी होंगे, सचमुच बहुत खुश होंगे और अपनी बेटी-दामाद को आशीष दे रहे होंगे। दरअसल, वह मेरे दिवंगत ससुर की तस्वीर थी। तब जो बेचैनी इन सारे अनुभवों से मन में उठी थी आज भी मन को भारी कर जाती है। सास-बहू मार्का या पारिवारिक कहे जाने वाले जिन धारावाहिकों की आज टीवी पर भरमार है, उनमें भी कई बार इस तरह के वाकिए दिखाए जाते हैं। मेरे पिता का पिछले साल देहांत हुआ है। पिता चूंकि लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे, सो ऐसी परंपराओं को सीधे-सीधे दकियानूसी ठहरा देते थे। पर आश्चर्य होता था कि मां को इसमें कुछ भी अटपटा क्यों नहीं लगता। उलटे वह कहतीं कि नए लोग अब कहां इन बातों की ज्यादा परवाह करते हैं जबकि उनके समय में तो न सिर्फ शादी-विवाह में बल्कि बाकी समय में भी विधवाओं के बोलने-रहने के अपने विधान थे।
मां अपनी दो बेटियों और दो बेटों की शादी करने के बाद उम्र के सत्तरवें पड़ाव को छूने को हैं। संत विनोबा से लेकर प्रभावती और जयप्रकाश नारायण तक कई लोगों के साथ रहने, मिलने-बात करने का मौका भी मिला है उन्हें। देश-दुनिया भी खूब देखी है। पर पति ही सुहाग-सौभाग्य है और उसके बिना एक ब्याहता के जीवन में अंधेरे के बिना कुछ नहीं बचता, वह सीख मन में नहीं बल्कि नस-नस में दौड़ती है।
किसी पुरुष के साथ होने की प्रामाणिकता की मर्यादा और इसके नाम पर निभती आ रही परंपरा इतनी गाढ़ी और मजबूत है कि स्त्री स्वातं`य के ललकार भरते दौर में भी पुरुष दासता के इन प्रतीकों की न सिर्फ स्वीकृति है बल्कि यह प्रचलन कम होने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्सवधर्मी बाजार महिलाओं की नई पीढ़ी को तीज-त्योहारों के नाम पर अपने प्यार और जीवनसाथी के लिए सजने-संवरने की सीख अलग दे रहा है।