महिलाओं और बच्चों के छोटे-छोटे समूह। उनके बीच कभी पैदल तो कभी किसी दूसरे साधन से पहुंचने वाली महिला। देखने में किसी आम अफगानी महिला की तरह। बातचीत भी तकरीबन वैसी ही। पर कुछ समय साथ गुजारें और थोड़ी गुफ्तगू करें तो मालूम पड़ेगा कि राष्ट्र और संस्कृति से प्रेम का क्या मतलब क्या है। हम बात कर रहे हैं अफगानिस्तान के बामियान सूबे की गवर्नर हबीबा सराबी की। अफगानिस्तान में हबीबा आज उस मुहिम का नाम है जो अपने मुल्क को युद्ध और आतंक की बजाय जीवन, प्रकृति और संस्कृति की संपन्नता की शिनाख्त दिलाना चाह रही है।
हबीबा के जीवन में संघर्ष और उपलब्धि का साझा काफी पहले से रहा है। उनकी तरफ दुनिया की दिलचस्पी तब एकदम से बढ़ गई जब यह खबर आई कि उन्हें इस साल के लिए रेमन मैग्सेसे एवार्ड के लिए चुना गया है। हबीबा अफगानिस्तान के अशांत रहे सूबों में से एक बामियाम की गवर्नर हैं पर उन्हें यह सम्मान इस कारण नहीं मिला है। रेमन मैग्सेसे एवार्ड फाउंडेश्न की नजर में एक मानवाधिकारवादी कार्यकताã के रूप में उनकी कोशिशें काबिले तारीफ है। वह युद्ध, आतंक और दमन के लंबे दौर से गुजरे देश में सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को फिर से खड़का करने में लगी हैं। वे कहती हैं यह बड़ा और सबसे जरूरी काम है। जिसे सिर्फ सरकारी घोषणाओं और योजनाओं के बूते नहीं किया जा सकता है। इसके लिए तो पहले लोगों के टूटे हौसले के बहाल करना होगा। व्यक्ति को सामाजिक बहुलता की इकाई में ढालना होगा। हबीबा एक महिला होने के नाते यह भी बखूबी समझती हैं कि आतंक और युद्ध की विभिषिका ने अगर सबसे ज्यादा असर डाला है तो वह अफगानी महिलाओं और बच्चों के जीवन पर। वैसे भी अफगानी समाज पर पारंपरिकता और रूढ़ता इतनी हावी रही है कि ग्लोबल दौर से ये कई दशक पीछे हैं।
हबीबा 2००5 में गर्वनर नियुक्त होने से पहले अफगानिस्तान सरकार में महिला मामलों के साथ शिक्षा और संस्कृति विभाग की मंत्री थी। देश में जब तालिबानी आतंक का दौर कुछ कमजोर पड़ा तो राष्ट्रपति हामिद करजई ने हबीबा के मानवाधिकारवादी प्रयासों को महत्वपूर्ण माना। भूले नहीं हैं लोग कि एक दशक पहले बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तालिबानियों ने नुकसान पहुंचाया था। यह एक बर्बर हिमाकत थी शांति और समन्वयी रचना प्रक्रिया से बने अफगानी समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोलने की, उसे एक उन्मादी मकसद की तरफ ले जाने की। आज उसी बामियान सूबे में हबीबा एक गवर्नर से ज्यादा एक शांति कार्यकताã के रूप में कार्य कर रही हैं। हबीबा के लिए यह काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी है क्योंकि वह अल्पसंख्यक हजारा समुदाय से आती हैं।
हबीबा ने अपनी पांच दशक से ज्यादा लंबी जीवनयात्रा में एक तो यात्राएं काफी की हैं, दूसरे तालीम की अहमियत को उन्होंने बखूबी समझा। वह एक अच्छी हिमोटोलॉजिस्ट हैं और डॉक्टरी की इस पढ़ाई को पूरा करने के लिए उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन से फेलोशिप तक मिला। पर एक पेशेवर डॉक्टर के रूप में काम करना इस शांति कार्यकताã को कभी नहीं भाया। 1998 के आसपास जब तालिबानियों का कहर काफी बढ़ गया तो हबीबा को पाकिस्तान में पेशावर के शरणार्थी शिविर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान उनके पति काबुल में रह गए बाकी परिवार की देखभाल के लिए।
आज जब अफगानिस्तान में अशांति का दौर थोड़ा पीछे छूटता दिखता है तो इस संघर्षशील अफगानी महिला की कोशिश है कि उनका मुल्क दुनिया के बाका देशों के बीच अपवाद के रूप में न देखा जाए। इसके लिए वह अफगानी समाज, संस्कृति और प्रकृति को फिर से सींचने में जुटी हैं।
-प्रेम प्रकाश
हबीबा के जीवन में संघर्ष और उपलब्धि का साझा काफी पहले से रहा है। उनकी तरफ दुनिया की दिलचस्पी तब एकदम से बढ़ गई जब यह खबर आई कि उन्हें इस साल के लिए रेमन मैग्सेसे एवार्ड के लिए चुना गया है। हबीबा अफगानिस्तान के अशांत रहे सूबों में से एक बामियाम की गवर्नर हैं पर उन्हें यह सम्मान इस कारण नहीं मिला है। रेमन मैग्सेसे एवार्ड फाउंडेश्न की नजर में एक मानवाधिकारवादी कार्यकताã के रूप में उनकी कोशिशें काबिले तारीफ है। वह युद्ध, आतंक और दमन के लंबे दौर से गुजरे देश में सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को फिर से खड़का करने में लगी हैं। वे कहती हैं यह बड़ा और सबसे जरूरी काम है। जिसे सिर्फ सरकारी घोषणाओं और योजनाओं के बूते नहीं किया जा सकता है। इसके लिए तो पहले लोगों के टूटे हौसले के बहाल करना होगा। व्यक्ति को सामाजिक बहुलता की इकाई में ढालना होगा। हबीबा एक महिला होने के नाते यह भी बखूबी समझती हैं कि आतंक और युद्ध की विभिषिका ने अगर सबसे ज्यादा असर डाला है तो वह अफगानी महिलाओं और बच्चों के जीवन पर। वैसे भी अफगानी समाज पर पारंपरिकता और रूढ़ता इतनी हावी रही है कि ग्लोबल दौर से ये कई दशक पीछे हैं।
हबीबा 2००5 में गर्वनर नियुक्त होने से पहले अफगानिस्तान सरकार में महिला मामलों के साथ शिक्षा और संस्कृति विभाग की मंत्री थी। देश में जब तालिबानी आतंक का दौर कुछ कमजोर पड़ा तो राष्ट्रपति हामिद करजई ने हबीबा के मानवाधिकारवादी प्रयासों को महत्वपूर्ण माना। भूले नहीं हैं लोग कि एक दशक पहले बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तालिबानियों ने नुकसान पहुंचाया था। यह एक बर्बर हिमाकत थी शांति और समन्वयी रचना प्रक्रिया से बने अफगानी समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोलने की, उसे एक उन्मादी मकसद की तरफ ले जाने की। आज उसी बामियान सूबे में हबीबा एक गवर्नर से ज्यादा एक शांति कार्यकताã के रूप में कार्य कर रही हैं। हबीबा के लिए यह काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी है क्योंकि वह अल्पसंख्यक हजारा समुदाय से आती हैं।
हबीबा ने अपनी पांच दशक से ज्यादा लंबी जीवनयात्रा में एक तो यात्राएं काफी की हैं, दूसरे तालीम की अहमियत को उन्होंने बखूबी समझा। वह एक अच्छी हिमोटोलॉजिस्ट हैं और डॉक्टरी की इस पढ़ाई को पूरा करने के लिए उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन से फेलोशिप तक मिला। पर एक पेशेवर डॉक्टर के रूप में काम करना इस शांति कार्यकताã को कभी नहीं भाया। 1998 के आसपास जब तालिबानियों का कहर काफी बढ़ गया तो हबीबा को पाकिस्तान में पेशावर के शरणार्थी शिविर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान उनके पति काबुल में रह गए बाकी परिवार की देखभाल के लिए।
आज जब अफगानिस्तान में अशांति का दौर थोड़ा पीछे छूटता दिखता है तो इस संघर्षशील अफगानी महिला की कोशिश है कि उनका मुल्क दुनिया के बाका देशों के बीच अपवाद के रूप में न देखा जाए। इसके लिए वह अफगानी समाज, संस्कृति और प्रकृति को फिर से सींचने में जुटी हैं।
-प्रेम प्रकाश
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