मुंबई के डांस बारों पर प्रतिबंध लगना और फिर हाईकोर्ट का उसे गलत ठहराना तथा आखिर में सुप्रीम कोर्ट का भी हाईकोर्ट के फैसले पर हामी भरना, यह महज एक घटनाक्रम नहीं है। 2००5 से 2०13 तक खिंचा यह संघर्ष 21वीं सदी के पहले दशक और उसके बाद के सामाजिक-राजनीतिक विमर्श की सूरतों और उसके हासिल को जाहिर करता है। यह वह दौर है जब देश में सामाजिक न्याय का संघर्ष वैचारिक रूप से स्थगित होता गया और जो बचा वह जाति और क्षेत्र की अस्मितावादी राजनीति।
गौरतलब है कि इस दौरान बाजार की शह पर जो नए उभार देखने को मिले वे संबंध और परिवार की बहुलतावादी अवधारणा के खिलाफ रहे। दैहिकता के दाह ने स्त्री-पुरुष संबंधों के तमाम सरोकारों को गैरजरूरी बना दिया। टीवी ने इन संबंधों को लेकर नब्बे के दशक में जो 'बुनियाद’ खड़ी की थी उसे बाद के धारावाहिक निर्माताओं ने कोई महत्व नहीं दिया बल्कि उन्होंने अपने मुताबिक 'देह’ और 'संदेह’ के विपरीत साझे में कथानक का फरेबी जाल बुना। इस जाल में देश के नव मध्यवर्ग को जहां अपनी महत्वाकांक्षाओं का आभासी संसार दिखा, वहीं उसकी रही-सही संवेदनाओं को देह और लालच के आगे नतमस्तक दिखाया गया। यह दौर अब भी जारी है।
बहरहाल समझना यह ज्यादा जरूरी है कि इस पूरे कालप्रवाह में विकल्प और हस्तक्षेप का जरूरी स्पेस कहां सिमट गया या दम तोड़ गया। बात एक बार फिर से डांस बारों पर प्रतिबंध की करें तो इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने में मदद मिलेगी। गौर करें तो पिछले एक-डेढ़ दशक में कथित नैताकितावादी आग्रहों के साथ कई तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक शक्तियां आगे आई हैं। खाप पंचायतों से लेकर श्रीराम सेना तक का उन्मुखीकरण इसी दौरान हुआ। यही नहीं, वेलेंटाइंस डे जैसे प्यार-मोहब्बत के सार्वजनिक इजहार के बोल्ड पर्व अगर इस दौरान तेजी से लोकप्रिय हुए तो उसके खिलाफ तेजाबी प्रतिक्रिया भी हर तरफ देखने को मिली। दिलचस्प है कि इन तमाम प्रवृत्तियों और आग्रहों-दुराग्रहों के बीच देश की सियासी जमात ने भी बदलाव की कोई अलख जगाने के बजाय खुद को परिस्थितियों के हवाले किया। बड़ा या छोटा शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा हो जिसने इस बीच समाज और संबंध के बीच के कल्याणकारी सूत्र को पकड़कर अपनी राजनीति की दिशा तय करने का जोखिम लिया हो। आप खाप पंचायत वालों से बात करें --जिन्हें एक इलाके और समाज के लड़के-लड़कियों का शादी के बंधन में बंधना तो दूर मोबाइल फोन पर बात करना तक अखरता है- -तो वे बताएंगे कि कैसे इस-उस दल के नेता जातीय आधार और प्रभाव के कारण उनके आगे नाक रगड़ने आते हैं। यह समझना भूल होगी कि यह महज एक सियासी समझौता है। अपनी बेटियों-बेटों को जलाने वालों पर धिक्कार की जगह उनके समर्थन से लोकप्रियतावादी राजनीति की राह आसान करना दरअसल हमारे देशकाल की मौजूदा रचना प्रकिया पर एक सख्त टिप्पणी है। लड़कियों की तंग पोशाकें लड़कों को उकसाती हैं, फैशन अश्लीलता की रंगोली है और शादी संबंध नहीं, समझौता ज्यादा है, जिसमें सब कुछ सहना-भोगना ही एक शादीशुदा स्त्री की नियति है, ऐसे तमाम तर्क और ऐसी तमाम समझ हमारी चेतना में कोई पहली बार शामिल हुए हों, ऐसा नहीं है। पर सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर में इसका बार-बार सार्वजनिक दुहराव हमारी आधुनिक चेतना के रेतीले धरातल का सच जाहिर करता है।
देश में बीते तीन-चार सौ सालों में नगरवधुओं से लेकर तवायफों के चलन के कई-कई प्रकार और स्वरूप देखने को मिलते हैं। राजप्रासादों तक इनकी पहुंच देखी गई। इन पर पैसे-अशर्फियां तक लुटाई गईं। जिस बंगाल से नवजागरण की हांक लगी, राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों में खुद उसकी संस्कृति के ईंट-गारे के साथ 'परपुरुष’ और 'परस्त्री’ का अंतरंग लोक सजता-संवरता रहा है। बांग्ला साहित्य में इसका पूरा अक्स उभरा है। पर बावजूद इन चारित्रिक-सांस्कृतिक स्फीतियों के कोई ऐसी प्रतिक्रियावादी कार्रवाई कहीं देखने को नहीं मिलती, जिससे लगे कि इसे एक बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा हो। शायद इसलिए कि इन स्फीतियों के बीच भी संवेदना का जरूरी स्पेस हमारे सलूक और संस्कार में बराबर बना रहा। बनारस की तवायफों ने अपने गहने उतारकर गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोग किया तो कई राजपुत्रों को इनके पास तहजीब का ककहरा पढ़ने के लिए भेजा गया।
पर ये तो रही बीते जमाने की बात। हमें तो बात करनी है उस दौर की जो प्रभाष जोशी के शब्दों में 'चरम भोग का परम दौर’ है। लालच की रेखा जब हथेली से खिंचकर हृदय तक पहुंच रही हो और ईष्याã की आग में अपने 'स्व’ के भी तिरोहित होने की परवाह न हो फिर तो जो बचेगा, उस पर न तो हैरत होनी चाहिए और न ही चिंता। मुंबई के डांस बारों में नब्बे के दशक में मनोरंजन, अपराध और कमाई के साझे अड्डे बनने शुरू हुए। इस लिहाज से इसे कानून और व्यवस्था के लिए एक नया सिरदर्द जरूर ठहराया जा सकता है। पर इन पर तो गाज गिरी इस नाम पर कि यहां शरीफ घरों के बच्चे बिगड़ जाते हैं। यहां नाचने वाली लड़कियों के कारण कई खुशहाल घर टूट रहे हैं। किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि जिन बार डांसरों के चरित्र पर ये सारी तोहमतें जड़ी जा रही हैं, उनके कृत्य पर आपत्तियां की जा रही हैं, उनके लिए यहां तक पहुंचने का रास्ता किसने तैयार किया। क्या ये रास्ता इन लड़कियों के लिए पेशागत स्वेच्छा और संघर्ष का रास्ता है या फिर उनकी यह नियति है। फिर इस नियति को गढ़ने वाले हाथों की भी शिनाख्त जरूरी है। देश में जाति और वर्ग की चेतना और अस्मिता को लेकर मुट्ठियां लहराने वालों ने कभी आधी आबादी के हिस्से आई परेशानियों-चुनौतियों की फिक्र नहीं की।
बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। पिछले साल दिल्ली में जब चलती बस में गैंगरेप की घटना हुई तो इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन से लेकर देश के कई हिस्सों में जो भीड़ उमड़ी, उसमें कोई सियासी जमात तो हरगिज शामिल नहीं थी। क्योंकि इस जमात ने तो इससे काफी पहले ही स्त्रियों के प्रति अपनी धारणा को उन तमाम ताकतों के साथ कर लिया था, जो या तो उन्हें लक्ष्मणरेखा की मर्यादा सिखाने पर आमादा रहीं या फिर पोशाकों के तंग और खुले होने का सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ सिखाती रहीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने डांस बारों का ताला फिर से खोलने की इजाजत देते हुए समानता के अधिकार की भी दुहाई दी है। पर इस अधिकार को लेकर उन पूर्वाग्रहों का क्या होगा जिसे एक तरफ तो पूनम पांडे के नशे में झूमना भाता है वहीं बार में महिलाओं का नाचना तो क्या उनका प्रवेश भी सांस्कृतिक अपराध लगता है। यह पूर्वाग्रह हमारे आधुनिक चरित्र और समझ के दोगलेपन का है, जो सुप्रीम कोर्ट के एक जजमेंट भर से दूर होने से रहा।
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