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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

आंदोलन की बहुरंगता को बदरंग देखना


अंग्रेजों ने भारत को कभी संपेरों और भभूती साधुओं का देश कहा था। आज भी दुनियाभर के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों के बीच इस देश की रचना और चेतना को लेकर कई समानान्तर मत हैं। खुद अपने देश को देखने की जो समझ हमने पिछले छह दशकों में गढ़ी है, वह भी या तो कोरे आदर्शवादी हैं या फिर आधी-अधूरी। ऐसी ही एक समझ यह है कि भारत विविधताओं के बावजूद समन्वय और समरसता का देश है। ये बातें छठी-सातवीं जमात के बच्चे अपने सुलेखों में भले आज भी दोहराएं पर देश का नया प्रसंस्कृत मानस इस समझ के बरक्स अपनी नई दलील खड़ा कर रहा है।
असल में अपने यहां देश विभाजन की बात हो या सामाजिक बंटवारे की, राजनीतिक तर्क पहले खड़ा हुआ और बाद में सरजमीनी सच को उसके मुताबिक काटा-छांटा गया। मजहबी और जातिवादी खांचों और खरोचों को देश का इतिहास छुपा नहीं सकता पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इन्हें कम करने और पाटने की बड़ी कोशिशों को देश की सामाजिक मुख्यधारा का हमेशा समर्थन मिला है। और इस समर्थन के जोर पर ही कभी तुलसी-कबीर का कारवां बढ़ा तो कभी  गांधी-लोहिया-जयप्रकाश का। बीच में एक कारवां विनोबा के पीछे भी बढ़ा, पर उनके भूदान आंदोलन की सफलता अपने ही बोझ से दब गई और बाद में इस सफलता के कई अंतर्द्वंद भी सामने आए। अभी देश में पिछले कुछ महीनों से जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश सड़कों पर उमड़ना शुरू हुआ है तो इस आक्रोश की वजहों को समझने के बजाय इसके चेहरे को पढ़ने में नव प्रसंस्कृत और प्रगतिशील मानस अपनी मेधा का परिचय दे रहा है। 
जनलोकपाल बिल के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को देखते-देखते आजादी की दूसरी लड़ाई की शिनाख्त देने वाले अन्ना हजारे आज की तारीख में देश का सबसे ज्यादा स्वीकृत नाम है। गांधीवादी धज के साथ अपने आंदोलन को अहिंसक मूल्यों के साथ चलाने वाले हजारे का यह चरित्र राष्ट्र नेतृत्व का पर्याय बन चुका है तो इसके पीछे उनका जीवनादर्श तो है ही, वे प्रयोग भी हैं जिसे उन्होंने सबसे पहले अपने गांव समाज में सफलता के साथ पूरे किए। लिहाजा, यह सवाल उठाना कि उनके साथ उठने-बैठने वालों और उनके आह्वान पर सड़कों पर उतरने वालों में दलित या मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी नहीं है, यह एक आंदोलन को खारिज करने की ओछी हिमाकत से ज्यादा कुछ भी नहीं।
भूले नहीं होंगे लोग कि इसके पहले जब हजारे के जंतर मंतर पर हुए अनशन के बाद सरकार सिविल सोसायटी के साथ मिलकर लोकपाल बिल के बनी संयुक्त समिति के सोशल कंपोजिशन पर भी सवाल उठाए गए थे। अब जबकि रामलीला मैदान में हजारे के अनशन और उनकी मुहिम के समर्थन में देश के तमाम सूबों और तबकों से लोग घरों से बाहर आए हैं, तो 'तिरंगे' के हाथ-हाथ में पहुंचने और 'वंदे मातरम' के नारे के आगे मजहबी कायदों की नजीर रखी जा रही है। आरोप और आपत्ति के ये स्वर वही हैं, जिन्हें पेशेवर एतराजी होने फख्र हासिल है।
बहरहाल, जिन लोगों को लगता है कि महाराष्ट्र के एक गांव रालेगण सिद्धि से चलकर दिल्ली तक पहुंचे अन्ना हजारे के आंदोलन को समाज के हर तबके का समर्थन हासिल नहीं है, उन्हें अपने जैसे ही कुछ और आलोचकों की बातों पर भी गौर करना चाहिए। कहा यह भी जा रहा है बाजार के वर्चस्व और साइबर क्रांति के बाद देश में यह पहला मौका है जब जनांदोलन का इतना बड़ा प्रकटीकरण देखने को मिला है। यही नहीं इसमें शामिल होने वालों में ज्यादातर संख्या ऐसो लोगों की है, जिन्होंने आज तक किसी मोर्चे, किसी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया। लिहाजा यह देश की लोकतांत्रिक परंपरा का एक नया सर्ग भी है, जिसकी लिखावट में समय और समाज के के नए-पुराने रंग शामिल हैं। इस बहुरंगता को बदरंग होने से बचाना होगा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. अन्‍ना हजारे ने कहा कि देश में जनतंत्र की हत्‍या की जा रही है और भ्रष्‍ट सरकार की बलि ली जाएगी। यह गांधीवादी अहिंसक सत्‍याग्रह है या खून के बदले खून?

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  2. राहुल जी...अन्ना गांधीवादी तो हैं...पर वे हैं एक फौजी गांधीवादी...उन्हें आप गांधी की जगह नहीं देख सकते...उनकी सीमा...उनके आंदोलन के तरीकों आैर बातों से कई बार जाहिर हुई है...हां, ये जरूर है कि मौजूदा समय में वे एक बड़ी नैतिक ताकत के रूप में उभड़े हैं...बहरहाल पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार।

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