ज्ञान को शिक्षा की औपचारिकता में देखने के हिमायती तो पहले से ही थे। हाल के दशकों में तो ह्यूमन रिसोर्स जैसे पेशवर शब्द इसके लिए ज्यादा सटीक मानकर चल रहे हैं। दरअसल, यह फर्क सिर्फ नजरिए या समझदारी का नहीं, उस दौर का भी है जहां अकेली नियामक शक्ति बाजार है। शिक्षा के कैंपसी और सिलेबसी ढांचें में कई परिवर्तनों के वाहक और कारक रहे प्रो. यशपाल को भी आज लगता है कि जो स्थिति है, उसमें महज सुधारात्मक पहलों से काम नहीं चलेगा बल्कि शिक्षा को लेकर एक स्वतंत्र आंदोलन की दरकार है। गौरतलब है कि ऐसा कहने वाले यशपाल इतिहास में अकेले शख्स नहीं हैं।
गांधी को उनके सर्वोदयी या रचनात्मक अभिक्रमों के लिए याद करने वालों को पता होगा कि आजादी का अलख जगाने वाले राष्ट्रपिता ने बुनियादी तालीम जैसी अवधारणा आजादी से पहले रखी। यह बात दीगर है कि इस लीक को आगे बढ़ाने वाले तपे-तपाए लोग तो कई आए पर कोई बड़ा आंदोलनात्मक आरोहण सिरे नहीं चढ़ सका। जमनालाल बजाज सम्मान से सम्मानित सर्वोदयी कार्यकर्ता प्रेम भाई तो कुछ दशक पहले तक देश में अक्षर सेना के अभिनव संकल्प को पूरा करने में लगे थे। दुर्भाग्य से संकल्प पूरा होने से पहले ही उनकी आयु पूरी हो गई। आज आलम यह है कि शिक्षा के संस्थान कम दुकान और ठीए ज्यादा हैं। देशभर में चल रही 500 यूनिवर्सिटी और 31 हजार कॉलेज में से 60 फीसद अवैध हैं क्योंकि राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रतिबद्धता परिषद (नैक) ने इन्हें मान्यता के काबिल नहीं समझा है। काले धन की तर्ज पर कहना होगा तो कहेंगे कि देशभर में काली तालीम का धंधा धड़ल्ले से चल रहा है। सरकारी स्कूल-कालेजों के खस्ताहाल होते जाने का फायदा निजी संस्थान उठा रहे हैं और सरस्वती के मंदिरों में धूप-धुम्मन करने का बीड़ा लक्ष्मी के उल्लुओं ने उठा लिया है।
देश के रचनात्मक निर्माण को लेकर आजीवन संघर्ष करने वाले आचार्य राममूर्ति अकसर इस बहस की गुत्थी को सामाजिक कार्यकताओं के आगे खोलते थे कि पहले शिक्षा या पहले जागरूकता। यह सवाल पहले अंडा कि पहले मुर्गी जैसा है। राममूर्ति जी गुत्थी की फांस खोलते हुए समझाते थे कि दोनों एक-दूसरे से सर्वथा जुदा नहीं, इसलिए पहले कौन का सवाल नहीं। एक जागरूक और शिक्षित समाज का निर्माण दरअसल एक ऐसा लक्ष्य है जिसके लिए पहल एक साथ जरूरी है।
आज सरकार के तमाम मिशनों और कमीशनों की फाइल एक तरफ सरकाते हुए प्रो. यशपाल अगर शिक्षा के लिए क्रांति की बात कर रहे हैं तो उसके पीछे वजह यह है कि जिज्ञासा, शोध और अविष्कार का सामाजिक रिश्ता कहीं खो सा गया है और जो समाने आया है, वह है करियर, ग्रोथ और सक्सेस जैसे बाजारवादी रास्ते और लक्ष्य। लिहाजा, अगर इस बदले रास्ते और मंजिल के अनुभव अगर अब सचमुच हमें सालने लगे हैं और हम इनसे वाकई उबरना चाहते हैं तो इसके लिए एक क्रांतिकारी संकल्प की दरकार होगी। पर जो स्थिति है, उसमें यह मानना मुश्किल है कि करेज फॉर करियर और पैशन फॉर सक्सेस की युगलबंदी का हॉट रोमांस ठंडा पड़ने लगा है। सो ज्ञान के पिपासुओं को अभी कुछ और दिन पानी से गला तर करने की बजाय रेत ही फांकना पड़ेगा।
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