भारत विशिष्टताओं से ज्यादा विलक्षणताओं का देश है। इसी तर्ज पर आप चाहे तो यह भी कह सकते हैं अपना देश विविधताओं से ज्यादा अंतर्विरोधों से भरा है। यह बात न सिर्फ सधी जुमलेबाजी में बेखटके चलती है बल्कि समय और समाज के वरिष्ठ टीकाकारों ने भी अपने अनुभव से इस तथ्य पर मुहर लगाई है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में जो हवा एक दिशा से बहती है, उसका रुख भी यहां आकर बदल जाता है। दलित राजनीति के कागजी धुरंधरों से लेकर प्रगतिशील समाजविज्ञानियों तक ने माना है सामाजिक गैरबराबरी के पीछे एक बड़ी वजह आर्थिक गैरबराबरी है।
यह भी खासा दिलचस्प ही है कि अपने यहां बाजार और सामाजिक न्याय का मुद्दा एक साथ राजनीति, संसद और समाज के एजेंडे में शुमार हुअा। पिछले तीन दशकों में जहां विकसित और चमकदार भारत के छालीदार इमेज को अपनी सफलता में शामिल करने वाली सरकारें आई, वहीं देश में एक नवसंपन्न वर्ग अचानक शहरों से लेकर कस्बों तक पसरता चला गया। पर कहते हैं न कि लिखावट बदलने से भाषा नहीं बदलती, सो भारतीय समाज का अंतर्विरोध भी इस दौरान कम होने के बजाय नई जटिलताओं के साथ और बढ़ीं। जिस दौर में आप महज एक फोन कॉल पर पिज्जा-बर्गर और आइसक्रीम का स्वाद आप ले सकते हैं, उसी दौर में सिर पर मैला ढ़ोने को अभिशप्त एक समाज हमारे बीच रहता है, यह सचाई हमारे विकास और संपन्नता के हर दावे को धोकर रख देता है।
अच्छा लगता है कि अब भी कुछ लोगों, समूहों और संगठनों को यह लगता है कि नए समय का नया समाज भी सर्वथा विभेदमुक्त होना चाहिए। ऐसे ही एक प्रयास के तहत दो सौ से ज्यादा अछूत महिलाओं का शिवनगरी काशी ने मुक्त और खुले ह्मदय से न सिर्फ स्वागत किया बल्कि यह संदेश भी दिया कि इंसान और भगवान दोनों की नजर में सब सामान्य हैं। सिर पर मैला ढोने वाली इन महिलाओं ने न सिर्फ जिंदगी में पहली बार मंदिर की देहरी लांघी बल्कि उस पात में बैठकर साथ में खाना भी खाया जिनके बीच अछूत होने की उसकी शिनाख्त न जाने कितनी पीढ़ियों से गाढ़ी होती आ रही थी। यहां यह बात भी गौरतलब है कि भारत की विश्व पहचान में उसके धार्मिक और आध्यात्मिक बिरसे का भी खासा योगदान रहा है। इसलिए अगर किसी कर्मकांडी या सामाजिक जहालत के नाम पर चले आ रही विभेदकारी मध्यकालीन मलीनता अगर आज भी हमारी मानसिकता को घेरता है तो यह सचमुच एक शर्मनाक स्थिति है और इसका बचाव किसी भी सूरत में करना एक बर्बर कार्रवाई होगी। आखिर जिस पूरे दौर को ही उदारवादी और हर स्तर पर खुले होने का ग्लोबल तमगा हासिल है, उस दौर में अनुदारता समाज या विचार के भीतर किसी सूरत बनी रहे, यह मुनासिब नहीं।
यह भी खासा दिलचस्प ही है कि अपने यहां बाजार और सामाजिक न्याय का मुद्दा एक साथ राजनीति, संसद और समाज के एजेंडे में शुमार हुअा। पिछले तीन दशकों में जहां विकसित और चमकदार भारत के छालीदार इमेज को अपनी सफलता में शामिल करने वाली सरकारें आई, वहीं देश में एक नवसंपन्न वर्ग अचानक शहरों से लेकर कस्बों तक पसरता चला गया। पर कहते हैं न कि लिखावट बदलने से भाषा नहीं बदलती, सो भारतीय समाज का अंतर्विरोध भी इस दौरान कम होने के बजाय नई जटिलताओं के साथ और बढ़ीं। जिस दौर में आप महज एक फोन कॉल पर पिज्जा-बर्गर और आइसक्रीम का स्वाद आप ले सकते हैं, उसी दौर में सिर पर मैला ढ़ोने को अभिशप्त एक समाज हमारे बीच रहता है, यह सचाई हमारे विकास और संपन्नता के हर दावे को धोकर रख देता है।
अच्छा लगता है कि अब भी कुछ लोगों, समूहों और संगठनों को यह लगता है कि नए समय का नया समाज भी सर्वथा विभेदमुक्त होना चाहिए। ऐसे ही एक प्रयास के तहत दो सौ से ज्यादा अछूत महिलाओं का शिवनगरी काशी ने मुक्त और खुले ह्मदय से न सिर्फ स्वागत किया बल्कि यह संदेश भी दिया कि इंसान और भगवान दोनों की नजर में सब सामान्य हैं। सिर पर मैला ढोने वाली इन महिलाओं ने न सिर्फ जिंदगी में पहली बार मंदिर की देहरी लांघी बल्कि उस पात में बैठकर साथ में खाना भी खाया जिनके बीच अछूत होने की उसकी शिनाख्त न जाने कितनी पीढ़ियों से गाढ़ी होती आ रही थी। यहां यह बात भी गौरतलब है कि भारत की विश्व पहचान में उसके धार्मिक और आध्यात्मिक बिरसे का भी खासा योगदान रहा है। इसलिए अगर किसी कर्मकांडी या सामाजिक जहालत के नाम पर चले आ रही विभेदकारी मध्यकालीन मलीनता अगर आज भी हमारी मानसिकता को घेरता है तो यह सचमुच एक शर्मनाक स्थिति है और इसका बचाव किसी भी सूरत में करना एक बर्बर कार्रवाई होगी। आखिर जिस पूरे दौर को ही उदारवादी और हर स्तर पर खुले होने का ग्लोबल तमगा हासिल है, उस दौर में अनुदारता समाज या विचार के भीतर किसी सूरत बनी रहे, यह मुनासिब नहीं।
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