बुधवार, 29 सितंबर 2010
अंतिम बिगुल
बुझी नहीं है आग
न झुका है आसमान
तमगे हम लाख पहनें
या कि पा लें
पेशेवर रहमदिली का
सबसे बड़ा इनाम
पत्थर में धड़कन की तरह
सख्त सन्नाटे को दरकाती
आवाज
समय ने भी कर दिया इनकार
जिसे सुनने से
कविता की ये पंक्तियां
चुराई हैं मैंने भी
खासी बेशर्मी से
उस बच्चे की बेपरवाह आंखों से
सोचता हूं अब भी
नहीं गूंज रहा होगा क्या
युद्ध का वह अंतिम बिगुल
इतिहास की बेमतलब जारी
बांझ-लहूलुहान थकान के खिलाफ
वह अंतिम तीर
वह अंतिम तान
बस अड्डे पर मिली
लावारिस मुस्कान
पांच रुपये में आठ समान
पांच रुपये में आठ समान
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