कश्मीर का मुद्दा एक बार फिर गरमाया है। याद आता है तकरीबन तीन साल पहले का एक वाकया। अपने महानायक तब इंग्लैंड के दौरे पर थे। ऑक्सफोर्ड की लाइब्रेरी में मैग्ना कार्टा चार्टर देखकर अमिताभ बच्चन जब अभिभूत होते हैं तो अखबारों, टीवी चैनलों के लिए यह न छोड़ी जा सकने वाली खबर थी। यह स्थिति तकरीबन वैसी ही है कि पूरब में खड़े होकर कोई पश्चिम को सूर्य का घर माने और उसकी लाली से अपनी चेतना और इतिहास बोध को रंग ले।
दरअसल, हम बात कर रहे हैं लोकतंत्र की उन जड़ों की जिसकी डालियों पर झूला डालने वाले परिदे आपको आज पूरी दुनिया में मिल जाएंगे। पर लोकतंत्र महज एक शासनतंत्र नहीं, एक जीवनशैली और मानवीय इच्छाशक्ति भी है। अगर यह बोध और सोच किसी को भावनात्मक अतिरेक लगे तो उसे भारत के पांच लाख से ज्यादा गांवों के सांस्कृतिक गणतंत्र की परंपरा से परिचित होना चाहिए। परंपरा का यह प्रवाह आज जरूर पहले की तरह सजल नहीं रहा, पर है वह आज भी कायम अपने जीवन से भरे बहाव के साथ।
अमिताभ बच्चन जब आधुनिक विश्व में लोकतंत्र के ऐतिहासिक उद्भव की गाथा को देख-सुनकर गदगद हो रहे थे, उसी समय देश के कुछ सूबों में पंचायत के चुनाव हो रहे थे। इन सूबों में जम्मू कश्मीर भी शामिल था। यह एक बड़ा अनुष्ठान था। लेकिन तब विधानसभा चुनावों, भ्रष्टाचार के खिलाफ अदालती कार्रवाई और नागरिक समाज की मांगों और आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन के खात्मे के शोरगुल में इसकी तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। अलबत्ता स्थानीय लोगों की दिलचस्पी जरूर इसमें बनी रही।
दिलचस्प तो यह रहा कि अशांत घाटी में इन चुनावों का औपचारिक निर्वाह ही जहां बड़ी कामयाबी ठहराई जा सकती थी, वहां अस्सी फीसद तक मतदान हुए। यही नहीं बिहार जैसे सूबे में जहां पंचायत की परंपरा को ऐतिहासिक मान्यता हासिल है, वहां भी ये चुनाव तब संगीनों के साए में होने के बावजूद खून के छीटों से बचे नहीं रहे थे। जबकि जम्मू-कश्मीर में ये चुनाव तकरीबन शांतिपूर्ण संपन्न हुए थे।
दरअसल, पंचायत के बहाने इस चुनाव में घाटी के लोगों ने न सिर्फ लोकतांत्रिक सरोकारों की अपनी मिट्टी को एक बार फिर से तर किया बल्कि दुनिया के आगे यह साफ भी किया था कि उनका जीवन, उनका समाज, उनकी संस्कृति उतनी उलझी या बंटी हुई नहीं है, जितनी बताई या समझाई जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कहीं से मुमकिन नहीं था कि कश्मीरी पंडित परिवार की एक महिला उस गांव से पंच चुनी जाती, जो पूरी तरह मुस्लिम बहुल है। यहां विख्यात पर्यटन स्थल गुलमर्ग जाने के रास्ते में एक छोटा सा गांव है- वुसान।
आशा इसी गांव से पंच चुनी गई थी जबकि यहां से इस पद के लिए मैदान में उतरी वह अकेली कश्मीरी पंडित महिला थी। इस सफलता को आपवादिक या कमतर ठहराने वालों के लिए यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी से 199० के करीब दो लाख कश्मीरी पंडित परिवारों को पलायन करना पड़ा था। दुर्भाग्यपूणã है कि देश में संसदीय परंपरा के धुरर्Þ बिखेर देने वाली खबरें तो मीडिया की आंखों की चमक बढ़ा देती हैं पर इन परंपराओं की जमीन तर करने वाली खबरों पर हम गौर नहीं फरमाते।
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