दिल्ली का राजनीतिक कुहासा छट गया है। अब आम आदमी पार्टी सरकार बनाने को राजी है। पर अब तक के घटनाक्रम में और कुछ हुआ हो या नहीं, पारंपरिक राजनीति के आगे एक वैकल्पिक लीक खींची जा सकती है, यह संभावना कहीं न सहीं संभव होती दिख रही है। दिल्ली विधानसभा के नतीजे जब आठ दिसंबर को आए तो उसके साथ यह धर्मसंकट भी आया कि यहां अगली सरकार कैसे बनेगी और कौन बनाएगा? त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति कोई देश में पहली बार नहीं बनी है। बल्कि सच तो यह है कि केंद्र में भी यह स्थिति एकाधिक बार रही है। पर सरकारें हर बार बनी हैं। कई बार आधे-अधूरे कार्यकाल के लिए तो कई बार पूरे कार्यकाल के लिए। पर दिल्ली में चुनकर आई त्रिशंकु विधानसभा से सरकार गठन की राह दुश्वार इसलिए हो गई क्योंकि एक साल पहले खड़ी हुई एक पार्टी ने 28 सीटें जीतकर एक बदली राजनीतिक स्थिति का संकेत सभी दलों को दे दिया।
दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा 36 का है। कांग्रेस महज आठ सीटें जीतकर पहले ही सत्ता के रेस से बाहर हो गई। भाजपा के अगुवाई वाली राजग भी बहुमत के आंकड़े से चार सीट पीछे रही। रही आप तो उसे आठ सीटें मिलीं। भाजपा के लिए दिल्ली में बहुमत का आंकड़ा जुगाड़ना कोई बड़ी बात नहीं होती। हाल के वर्षों में भी वह कर्नाटक से लेकर झारखंड तक जोड़तोड़ का यह खेल खेल चुकी है। पर दिल्ली में यह मुमकिन इसलिए नहीं हो सकता था क्योंकि पिछले कम से कम तीन सालों में आम आदमी के भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक शुचिता की एक नई चुनौती खड़ी कर दी। देश में यह अपने तरह की संभवत: पहली सूरत थी जिसमें कोई भी दल सरकार बनाने के लिए आगे आने को तैयार नहीं दिखा। मीडिया ने इसे आम आदनी पार्टी द्बारा तय किए गए 'मॉरल इंडेक्स’ का नाम दिया। दिलचस्प है ऐसे दौर में जब किसी पॉलिटक डेवलेपमेंट के प्रभाव को सेंसेक्स के चढ़ने-उतरने से जोड़कर देखा जाना एक जरूरी दरकार बन गई हो, उस दौर में सेंसेक्स से बड़ी खबर और चर्चा उस मॉरल इंडेक्स की हो रही है, जो लोकतंत्र में जनता की एक दिन की मतदान की भागीदारी से आगे एक सतत प्रक्रिया को आजमाए जाने की वकालत कर रही है।
पिछले 14 दिसंबर को दिल्ली के उपराज्यपाल ने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के उपराज्यपाल ने सरकार बनाने की संभावना पर विचार करने के लिए बुलाया था। आप की तरफ से यह पहले ही साफ कर दिया गया था कि वह न तो किसी दल से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी। पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने इस बीच एक नया सियासी दांव खेला। केजरीवाल उपराज्यपाल से मिलने पहुंचते इससे पहले वहां कांग्रेस की यह चिट्ठी पहुंच चुकी थी कि वह आप को सरकार बनाने के लिए बाहर से बिना शर्त समर्थन देने को तैयार है। कांग्रेस के इस दांव से आप को अपने पुराने स्टैंड पर थोड़ा विचार करना पड़ा। क्योंकि इस दौरान ये बातें भी खूब हुईं कि आम आदमा पार्टी ने बिजली दर आधी करने और हर घर को 7०० लीटर पानी देने जैसे जो चुनावी वादे किए हैं, उससे वह पूरा नहीं कर सकती है। क्योंकि ऐसा करना न तो संभव है और न ही व्यावहारिक। लिहाजा उसकी पूरी कोशिश होगी कि वह सरकार बनाने से बचे।
आप के नेताओं ने इस बदले राजनीतिक खेल को समझा।उसने तय किया कि वह इस पूरी स्थिति को एक बार फिर से जनता की अदालत में ले जाएगी और उससे ही पूछेगी कि क्या उसे सरकार बनानी चाहिए। जो खबरें हैं, उसमें आप ने दिल्ली में 25० से ज्यादा सभाएं की। जनता ने भारी बहुमत से आप को सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ने को कहा। अब आप इस पॉलिटकल स्टैंड के साथ सरकार बनाने जा रही है कि वह किसी दल के समर्थन या विरोध के आधार पर नहीं बल्कि जनता की राय पर सरकार बनाने जा रही है।
इस पूरे घटनाक्रम में पहली नजर में एक गैरजरूरी नाटकीयता आप के नेताओं की तरफ से नजर आती है। एक बार चुनाव संपन्न हो जाने के बाद फिर से जनता के पास जाने का क्या तुक है? ऐसी दरकार हमारी संवैधानिक व्यवस्था की भी देन नहीं है। फिर भी ऐसा किया गया। दरअसल, इसका जवाब वे मुद्दे हैं जो गुजरे दो-तीन सालों में बार-बार उठे। लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से क्या पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चत होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आप स्थानापन्नता की राजनीति की बजाय विकल्प की राजनीति को एक स्वरूप देने के मकसद से आगे बढ़ना चाहती है। देश में साढ़े छह दशक से भी लंबे दौर में जो सियासी व्यवस्था जड़ जमा चुकी है, उसे एक भिन्न समझ के साथ देखने-समझने की तैयारी और उस ओर अग्रसर होना कोई आसान काम नहीं है। पर आज बदलाव की जमीन पर शुरुआती तौर पर एक दल और उससे जुड़े लोग खड़े हैं तो यह जाहिर करता है कि इस विकल्प के प्रति जनता के मन में भी छटपटाहट कम नहीं है।
जनता के बीच जनता की राजनीति को तो शक्ल लेना ही चाहिए। यही तो जनतंत्र की बुनियादी दरकार है। पिछले कुछ दशकों में जनता के नाम पर भले खूब राजनीति हुई और उसे अस्मितावादी तर्किक निकष पर कसने की भी खूब कोशिश हुई पर जनतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रतिभागिता की चुनौती को स्वीकार करने से सब बचते रहे। आज अगर आप की दिल्ली की सरकार को इस प्रतिभागिता को सुनिश्चत करने की क्रांतिकारी पहल की बजाय अगर महज बिजली-पानी के भाव के मुद्दे पर केंद्रित करने की कोशिश हो रही है, तो इसलिए क्योंकि लोकतंत्र की राजनीति करने वाले दूसरे किसी दल के पास यह नैतिक साहस नहीं है कि वह जनता के नाम पर नहीं बल्कि जनता के साथ मिलकर अपनी राजनीति का गंतव्य तय करे। बहरहाल, आप की पहल एक नई राजनीति की शक्ल पूरी तरह ले पाएगी, इसमें संशय अब भी काफी है। पर इन संशयों के धुंध के बीच से ही कुछ सुनहरी किरणें अगर फूट रही हैं तो यह देश के भावी राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक शुभ संकेत है।
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