- प्रेम प्रकाश
जिन राजनीति और समाज विज्ञानियों को यह लगता था कि मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल है, उनके लिए दो अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम नींद से जगाने वाला है। एससी-एसटी एक्ट के संबंध में बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों की तरफ से आयोजित भारत बंद का व्यापक असर हुआ। बंद के दौरान हिंसा भी हुई। खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में हिंसा और आगजनी की कई घटनाएं हुई। दिलचस्प है कि एक्ट पर फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है। केंद्र सरकार ने तो इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। फिर भी बंद और विरोध के निशाने पर केंद्र सरकार रही। उसी के खिलाफ नारे लगे और उसी की नीतियों और मंशा को लेकर सवाल उठे, सड़कों पर असंतोष दिखा।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की थी। यह सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई थी। ये गाइडलाइंस फौरन लागू हो गई थी। इसके तहत अब शिकायत के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत से होगी और अगर आरोपी सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी। यही नहीं, इस मामले में अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत मंजूर या नामंजूर करेंगे। इस अदालती फैसले का आधार कहीं न कहीं यह है कि एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 शिकायतें दर्ज हुईं। जांच में 935 झूठी पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित संगठनों को लगता है कि कहीं न कहीं सरकार उसे मिले न्यायिक सुविधा या अधिकार के कटौती के पक्ष में है। जबकि जिस मामले में सर्वोच्च अदालत ने नया फैसला सुनाया है, उसमें सरकार कहीं से भी पार्टी नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी एक्ट के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका दायर की। पर कोर्ट ने सोमवार यानी भारत बंद के एलान के दिन इस पर फौरन सुनवाई से मना कर दिया।
दरअसल, यह पूर मामला अब कहीं न कहीं राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है। इस सियासी वार-प्रतिवार के पीछे एक बड़ी वजह 2019 का लोकसभा चुनाव है। यही वजह है कि महज 13 दिन के भीतर इस मामले पर तकरीबन सारा विपक्ष एक सुर में बोलता दिखा।
गैरतलब है कि देश में एससी-एसटी की आबादी 20 करोड़ और लोकसभा में इस वर्ग से 131 सांसद आते हैं। जाहिर है कि इस वर्ग के साथ हर दल के हित जुड़े हैं। यहां तक कि भाजपा के भी सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से हैं। साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बड़ा गणित कहीं न कहीं दलित और पिछड़ों की राजनीति का है। भाजपा का कसूर सिर्फ इतना है उनके और संघ परिवार के कुछ नेताओं ने जिस तरह आरक्षण और जाति के मुद्दे पर जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे विपक्ष को दलितों-पिछड़ों को यह कहने-समझाने में मदद मिली है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आरक्षण सहित इस वर्ग के कई संवैधानिक सम्मत अधिकारों पर कैंची चलाने की मंशा रखती है। अलबत्ता इस धारणा का खंडन खुद प्रधानमंत्री तक ने कई बार किया। पर खासतौर पर जिस तरह से भाजपा के त्रिपुरा में सत्तारूढ़ होने के बाद बिहार, प. बंगाल, यूपी, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर केरल तक देश का राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम बदला है, उसने भाजपा विरोध का एक नया मंच खड़ा कर दिया है। यह मंच दलित राजनीति का है, मंडलवादी राजनीति के आक्रामक और हिंसक एक्सटेंशन का है।
एस-एसटी एक्ट को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पैदा हुआ असंतोष अब पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है
जिन राजनीति और समाज विज्ञानियों को यह लगता था कि मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल है, उनके लिए दो अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम नींद से जगाने वाला है। एससी-एसटी एक्ट के संबंध में बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों की तरफ से आयोजित भारत बंद का व्यापक असर हुआ। बंद के दौरान हिंसा भी हुई। खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में हिंसा और आगजनी की कई घटनाएं हुई। दिलचस्प है कि एक्ट पर फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है। केंद्र सरकार ने तो इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। फिर भी बंद और विरोध के निशाने पर केंद्र सरकार रही। उसी के खिलाफ नारे लगे और उसी की नीतियों और मंशा को लेकर सवाल उठे, सड़कों पर असंतोष दिखा।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की थी। यह सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई थी। ये गाइडलाइंस फौरन लागू हो गई थी। इसके तहत अब शिकायत के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत से होगी और अगर आरोपी सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी। यही नहीं, इस मामले में अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत मंजूर या नामंजूर करेंगे। इस अदालती फैसले का आधार कहीं न कहीं यह है कि एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 शिकायतें दर्ज हुईं। जांच में 935 झूठी पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित संगठनों को लगता है कि कहीं न कहीं सरकार उसे मिले न्यायिक सुविधा या अधिकार के कटौती के पक्ष में है। जबकि जिस मामले में सर्वोच्च अदालत ने नया फैसला सुनाया है, उसमें सरकार कहीं से भी पार्टी नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी एक्ट के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका दायर की। पर कोर्ट ने सोमवार यानी भारत बंद के एलान के दिन इस पर फौरन सुनवाई से मना कर दिया।
दरअसल, यह पूर मामला अब कहीं न कहीं राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है। इस सियासी वार-प्रतिवार के पीछे एक बड़ी वजह 2019 का लोकसभा चुनाव है। यही वजह है कि महज 13 दिन के भीतर इस मामले पर तकरीबन सारा विपक्ष एक सुर में बोलता दिखा।
गैरतलब है कि देश में एससी-एसटी की आबादी 20 करोड़ और लोकसभा में इस वर्ग से 131 सांसद आते हैं। जाहिर है कि इस वर्ग के साथ हर दल के हित जुड़े हैं। यहां तक कि भाजपा के भी सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से हैं। साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बड़ा गणित कहीं न कहीं दलित और पिछड़ों की राजनीति का है। भाजपा का कसूर सिर्फ इतना है उनके और संघ परिवार के कुछ नेताओं ने जिस तरह आरक्षण और जाति के मुद्दे पर जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे विपक्ष को दलितों-पिछड़ों को यह कहने-समझाने में मदद मिली है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आरक्षण सहित इस वर्ग के कई संवैधानिक सम्मत अधिकारों पर कैंची चलाने की मंशा रखती है। अलबत्ता इस धारणा का खंडन खुद प्रधानमंत्री तक ने कई बार किया। पर खासतौर पर जिस तरह से भाजपा के त्रिपुरा में सत्तारूढ़ होने के बाद बिहार, प. बंगाल, यूपी, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर केरल तक देश का राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम बदला है, उसने भाजपा विरोध का एक नया मंच खड़ा कर दिया है। यह मंच दलित राजनीति का है, मंडलवादी राजनीति के आक्रामक और हिंसक एक्सटेंशन का है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें