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गुरुवार, 29 सितंबर 2016

दरियादिली अब नहीं


-प्रेम प्रकाश
उरी में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य जोर आजमाइश की जो आशंका थी, वह अब काफी हद तक दूर हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के भाषण से भी यह साफ हुआ कि भारत, पाकिस्तान के साथ फिलहाल किसी सीधे टकराव की स्थिति में खुद को नहीं ले जाएगा। दरअसल, ये सारी स्थितियां एक बार फिर इस बात को साफ कर रही हैं कि कम से कम नब्बे के दशक से शुरू हुए वैश्विक उदारीकरण के दौर के बाद से ग्लोब के किसी छोड़ पर बैठा देश किसी दूसरे देश के खिलाफ ऐलानिया जंग की बात नहीं कर सकता। लिहाजा आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शह और मात की सबसे बड़ी बिसात कूटनीति है।
आधुनिक दौर के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ माने गए जर्मनी के प्रधानमंत्री बिस्मार्क ने कभी कहा था कि कूटनीति पांच-छह गेंदों को एक साथ हवा में उछालने और फिर उसे लपकने जैसा सर्कसी करतब है। इसमें सब्र और संतुलन दोनों का इम्तहान एक साथ होता है। भारत अब खासतौर पर सिंधु जल समझौते को कूटनीतिक मेज पर लाकर पाकिस्तान के साथ इसी सब्र और संतुलन के साथ दबाव बढ़ाने में लगा है। यह एक ऐसा वैकल्पिक और सुरक्षित कदम है जो पाकिस्तान पर सख्ती तो बढ़ाएगा ही, भारत को इस कारण अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस बात से घिरने से भी बचाएगा कि वह अपने पड़ोसी मुल्क के खिलाफ किसी तरह के हिंसक या सैन्य अभियान को अंजाम दे रहा है।
अच्छी बात यह है कि अभी इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय बैठक भर हुई है। पर पाकिस्तान में इसकी प्रतिक्रिया है कि आने वाले दिनों में उस पर आफत का कोई बड़ा पहाड़ टूटने वाला है। इस बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर पाकिस्तान के माथे पर सिलवटें बढ़ा दी हैं कि खून और पानी साथ नहीं बह सकते। जबकि बैठक में जल संधि में बदलाव की किसी दरकार पर कोई विचार नहीं किया गया है। इसमें हुआ बस यह है कि अब भारत इस समझौते के प्रावधानों का इस सख्ती से पालन करना चाहता है ताकि पाकिस्तान को ऐसा कोई अतिरिक्त लाभ न मिले, जो उसे अब तक मिलता रहा है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है सिंधु जल क्षेत्र में बिजली परियोजनाओं को विकसित करने पर जोर। इसके तहत जो पहला कदम उठाने को भारत उत्सुक है, वह है तुलबुल बिजली परियोजना को फिर से शुरू करना।
बात करें सिंधु जल समझौते की तो पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका भारतीय सीमा से छोड़े गए नदियों के पानी पर आश्रित है। विश्व बैंक की मध्यस्थता के बाद 19 सितंबर 196० में भारत और पाकिस्तान के बीच यह समझौता हुआ था। तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने इस पर दस्तखत किए थे। संधि के मुताबिक भारत पाकिस्तान को सिधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी नदी का पानी देगा। मौजूदा समय में इन नदियों का 8० फीसदी से ज्यादा पानी पाकिस्तान को ही मिलता है। यह समझौता पिछले 56 साल से बगैर किसी रुकावट के जारी है। जबकि इस दौरान भारत-पाकिस्तान के रिश्ते कई बार पटरी से उतरे। यहां तक कि दोनों देश इस दौरान जंग के मैदान में भी आमने-सामने हुए। पर अब भारत इस संधि को पाकिस्तान पर कारगर सख्ती के एक बेहतर कूटनीतिक विकल्प के तौर पर आजमाना चाहता है। इसे मौजूदा हालात में जम्मू कश्मीर में पाक के बढ़े आतंकी शह को काउंटर करने और भारतीय हित रक्षाके लिहाज से सबसे बेहतर विकल्प भी माना जा रहा है।
दिलचस्प है कि घाटी में अभी जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसमें भी सरकार के लिए सिंधु जल समझौते को लेकर पाकिस्तान के साथ अब तक बरती जा रही उदारता से कदम पीछ खींचने में मदद मिलेगी। क्योंकि 2००2 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस संधि को खत्म करने की मांग उठ चुकी है। साफ है कि जम्मू कश्मीर की अवाम को भी अब तक यही लगता रहा है कि भारत सरकार उसके स्थानीय हितों की उपेक्षा करके पाकिस्तान को मदद करती रही है।
भारत की इस नई पहल के बाद पाकिस्तान एकदम से सक्रिय हो गया है और वह तमाम देशों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस बात को उठाने में लग गया है कि भारत को ऐसे किसी कदम को उठाने से रोका जाए जिससे पाकिस्तान में जल संकट जैसी स्थिति आए। विदेशी मामलों में पाक प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज ने 56 देशों को बकायदा पत्र लिखकर कश्मीर मामले पर दखल देने को कहा है। पाकिस्तान के सामने दोहरा संकट यह है कि एक तरफ तो वह जल संकट की आशंका से उबरना चाहता है, वहीं भारत की नई कूटनीतिक पहल के बाद उसके लिए इस बात को प्रचारित करना जरूरी हो गया है कि भारत जम्मू कश्मीर के बिगड़े हालात के लिए उसे नाहक कसूरवार ठहराने में लगा है।
यहां यह समझ लेना खासा जरूरी है कि सिधु जल समझौते को आधुनिक विश्व इतिहास का सबसे उदार जल बंटवारा माना गया है। इसके तहत पाकिस्तान को 8०.52 फीसदी पानी यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी भारत सालाना देता है। नदी की ऊपरी धारा के बंटवारे में उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया की किसी और संधि में नहीं मिलेगी। सिधु समझौते के तहत उत्तर और दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा तय की गई है, जिसके तहत सिधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां पूरी की पूरी पाकिस्तान को भेंट के तौर पर दे दी गई हैं और भारत की संप्रभुता दक्षिण की ओर तीनों नदियों के बचे हुए हिस्से में ही सीमित रह गई है।
जाहिर है भारत अब इस उदारता को आगे इसलिए नहीं निभाना चाहता क्योंकि इसके बदले उसे पाकिस्तान की तरफ से आतंकी और जेहादी मंसूबों का हिंसक अंजाम भुगतना पड़ता रहा है। आज जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक तौर पर बहाल सरकार काम कर रही है। यही नहीं, कम से कम पिछले एक दशक में वहां पंचायत से लेकर विधानसभा तक लोगों ने जिस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है, उससे वहां अमन चैन की एक स्वाभाविक स्थिति कायम होने में मदद मिलनी चाहिए थी। पर कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विवाद का मुद्दा बनाने की पाकिस्तानी जिद ने आज घाटी की स्थिति को लेकर भारत सरकार को नए सिरे से सोचने करने पर मजबूरकर दिया है। अच्छी बात यह है कि नदियों के जल का इस्तेमाल स्थानीय स्तर पर खेती से लेकर बिजली निर्माण तक करने पर सरकार अब अगर जोर दे रही है तो इससे घाटी में तो विकास का एक नया दौर शुरू होगा ही पाकिस्तानी आतंकी हिमाकत पर भी नकेल कसने में मदद मिलेगी।

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